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मन उस आँगन ले जाए ( गीतिका )

 

आकर साजन तू ही ले जा क्यूँ ये सावन ले जाए

अधरों पर छायी मस्ती ये क्यूँ अपनापन ले जाए

 

भिगो रहा है बरस-बरस कर मेघ नशीला ये काला

कहीं न ये यौवन की खुश्बू मन का चन्दन ले जाए

 

कड़क-गरज डरपाती बिजली पल-पल नभ में दौड़ रही

कहीं न ये चितवन के सपने संचित कुंदन ले जाए

 

बिंदी की ये जगमग-जगमग खनखन मेरी चूड़ी की,

बूँदों की ये रिमझिम टपटप छनछन-छनछन ले जाए

 

पुहुप बढाते दिल की धड़कन शाखें नम कर डोल रहीं

कहीं न अब  अँगड़ाई का फन भीगा कानन ले जाए  

 

बढ़ी जा रही भीग-भीगकर चिकुर जाल की ये उलझन

कुन्तल से हरियाला तरुवर हर्षित उपवन ले जाए

 

रुनझुन-रुनझुन करती पायल बिछिया से कह आयी है

सारे बंधन तोड़ सखी अब मन उस आँगन ले जाए.

 

मौलिक/अप्रकाशित.

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Comment by Sulabh Agnihotri on September 7, 2016 at 9:04pm

बिंदी की ये जगमग-जगमग खनखन मेरी चूड़ी की,

बूँदों की ये रिमझिम टपटप छनछन-छनछन ले जाए -------- अद्भुत !

पुहुप बढाते दिल की धड़कन शाखें नम कर डोल रहीं

कहीं न अब  अँगड़ाई का फन भीगा कानन ले जाए  ------- गजब है !

रुनझुन-रुनझुन करती पायल बिछिया से कह आयी है

सारे बंधन तोड़ सखी अब मन उस आँगन ले जाए. ------ निशब्द हूँ !

यदि अन्यथा न लें तो कहना चाहूँगा कि हम लोग जब रौ में आते हैं तो हमारी गीतिकायें गजलियत छोड़कर गीत क्यों बन जाती हैं ? मेरे साथ भी होता है ऐसा। इसे यदि दो पंक्तियों में में निबद्ध अद्भुत गीत कहूँ तो अन्यथा नहीं होगा।


बहरहाल, यह निश्चय ही माह की सर्वश्रेष्ठ रचना चुने जाने योग्य है। बधाई स्वीकार करें।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 25, 2016 at 3:54pm

आदरणीय अशोक जी ..आज मंच पर एक से बढ़कर एक रचना को मिली ..आपकी रचना तो गुनगुनाने में आनंद ही आ गया ..श्रृंगार रस में सावन का वर्णन जिस बेहतरीन अंदाज में आपने किया है काबिले तारीफ़ है ऐसी रचना पढने के बाद तो बस दिल से आवाज उठती है वाह वाह ...ढेर सारी बधाई के साथ सादर

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on August 19, 2016 at 9:57am

आदरणीय अशोक भाईजी

‘ आकर साजन तू ही ले जा क्यूँ ये सावन ले जाए ’...... वाह !

नई नवेली प्रथम सावन में मायके जरूर आती है। आपके छंद के हर एक शब्द उसी विरहिन के मुख से निकले प्रतीत होते हैं। इसे पढ़कर तो वह बेचारी और जादा ‘ आह !!! ’ भरेगी। ... छंद पर वाह ! तो हम जैसे लोग ही कहेंगे।

सावन मास [ विगत माह ] की इस खूबसूरत रचना के लिए बारम्बार हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 18, 2016 at 10:04pm

बहुत ही सुंदर सरस गीतिका बिल्कुल मौसमी रस से सरोवार हार्दिक बधाई आपको आदरणीय 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 22, 2016 at 5:50pm

वाह शृंगार रस की अद्भुत रचना | इस मंच को नमन | बहुत ही सुंदर गीतिका पढने को मिली है | बहुत बहुत धन्यवाद् आदरणीय | और बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए | 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 21, 2016 at 11:58pm

कमाल की गुनगुनाती हुई रचना हुई है आदरणीय अशोक भाई जी. मुग्ध कर दिया आपने ! हार्दिक बधाइयाँ ..

आपने पायल के बिछिया बीच के इशारों के माध्यम से नवोढ़ाओं (नयी सुहागन) की मनोदशा का अत्यंत शृंगारिक वर्णन किया है, भाई जी. अद्भुत है

बार-बार बधाइयाँ

 

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 21, 2016 at 12:36pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब सादर, प्रस्तुत रचना के भाव आप तक पहुंचे मेरी रचना सफल हुई. आपका दिल से आभार. सादर.

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 21, 2016 at 12:33pm

आदरणीय रवि जी सादर, रचना के भाव आप के मन को छू पाए. मेरा सृजन सार्थक हुआ. आप जैसे गुणीजन की उपस्थिति से रचना को मान मिला है. आपका हृदयातल से आभार. सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 21, 2016 at 10:44am

आदरणीय अशोक भाई , नायिका की विरह वेदना और सावन पर बहुत भावपूर्न  और सरस रचना हुई है , दिल से बधाइयाँ आपको ।

बिंदी की ये जगमग-जगमग खनखन मेरी चूड़ी की,

बूँदों की ये रिमझिम टपटप छनछन-छनछन ले जाए

रुनझुन-रुनझुन करती पायल बिछुओं से कह आयी है

सारे बंधन तोड़ सखी अब मन उस आँगन ले जाए.     ---  ये दोनो बन्द बहुत पसंद आये , हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Ravi Prabhakar on July 21, 2016 at 8:47am

आदरणीय अशोक सर ! काव्‍य में मेरी जानकारी नगण्‍य है । परन्‍तु आपकी रचना पढ़ते समय सावन का एक दृश्‍य सृजित हो गया। काले काले मेघों से बरसता पानी मैनें अपने ड्राइंग रूम में महसूस किया। हालांकि इस वक्‍त मेरे शहर में धूप खिली हुई है और बड़ी उमस भरी गर्मी है पर आपकी गीतिका ने मुझे ठंडी ठंडी फुहारों का आनंद दिया है। प्रस्‍तुत गीतिका नायिका के अहसासों काे बाखूबी बयां कर रही है। असीम शुभकामनाएं स्‍वीकारें ।

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