लोगों से अब मिलते-जुलते
अनायास ही कह देता हूँ--
यार, ठीक हूँ..
सब अच्छा है !..
किससे अब क्या कहना-सुनना
कौन सगा जो मन से खुलना
सबके इंगित तो तिर्यक हैं
मतलब फिर क्या मिलना-जुलना
गौरइया क्या साथ निभाये
मर्कट-भाव लिए अपने हैं
भाव-शून्य-सी घड़ी हुआ मन
क्यों फिर करनी किनसे तुलना
कौन समझने आता किसकी
हर अगला तो ऐंठ रहा है
रात हादसे-अंदेसे में--
गुजरे, या सब
यदृच्छा है !
आँखों में कल की ख़बरों की
बच्ची अबतक तैर रही है
अपनी बिटिया की सूरत से
मगर अलग वह ख़ैर रही है
चाहे बिटिया पास नहीं पर
यही सोच कर बहुत खुशी है
मोबाइल-चैटिङ के ज़रिये
आखिर वो कब ग़ैर रही है ?
रोज़ सवेरे समाचार को
पढ़ना, उसके
दर्शन करना
जगत सान्द्र है दो कमरों में
बाकी सब तो
पनछुच्छा है !
जितने की इच्छा थी उतनी
सबकी दुनिया दिखी चहकती
कहीं धार में बहता पानी
कहीं सुगंधित धार महकती
दौर तेज़ है, तो सब दौड़ें
या सुस्तायें, पाट सँभालें
वो भी चुप हैं अपने हिस्से
जहाँ किरच से रात लहकती
वैसे तो बिन्दास दिखे मन
चौंक रहा है
हर ’खटके’ से
बिखर रहा फिर तार-तार-सा,
इसे कहूँ दिन गुड़-लच्छा है ?
****************
--सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया राजेश कुमारी जी, आपको रचना रुचिकर लगी, मैं आश्वस्त हुआ. सादर धन्यवाद
बहुत सुंदर नवगीत | हार्दिक बधाई आदरणीय सौरभ सर | सादर |
वैसे तो बिन्दास दिखे मन
चौंक रहा है
हर ’खटके’ से .....डर ..आशंकाएँ..और उन्हें छिपाए रखने की आज के समय की मजबूरियाँ ..कहीं बहुत गहरे तक छू रही है आपकी ये रचना ..हार्दिक बधाई आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी ...सादर .
आदरणीय सौरभ जी, सामाजिक विसंगतियों से सम्बंधित मार्मिक एवं अत्यंत प्रवाहपूर्ण नवगीत प्रस्तुत किया है आपने। यथार्थ को इस प्रकार आप काव्य में ढालते हैं कि बस पढ़ने वाला मुग्ध होकर रह जाता है।
इस नवगीत को पढ़ते समय मैंने इसकी धारा में बहकर जो आनन्द पाया उसका वर्णन नहीं हो सकता। आपकी सम्प्रेषणीयता की कला हम सबके लिए अनुकरणीय है।
"कौन सगा जो मन से खुलना
सबके इंगित तो तिर्यक हैं"
कितनी बड़ी सच्चाई है यह!
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए आपको अनेक बधाइयाँ!!
वाहह आदरणीय बहुत ही सुंदर भावों का संप्रेषण है नमन है लेखनी को
भाई आदित्य कुमार जी, आपकी तत्क्षण प्रतिक्रिया के लिए हृदयतल से धन्यवाद. द्रुत गति है आपकी ! हार्दिक धन्यवाद भाई.
आपकी टिप्पणी मेरे रचनाकार के लिए और सार्थक हो उठती यदि आपने इस रचना के सापेक्ष अपने मत भी साझा किये होते. क्या अच्छा लगा ! क्या अच्छा नहीं लगा ! यदि नहीं, तो क्यों अच्छा नहीं लगा ! यदि किसी सुधार की गुंज़ाइश है तो कहाँ ? ऐसे विन्दु सामान ’वाह-वाह’ की अपेक्षा हज़ार गुणा प्रभावी होते. चूँकि ओबीओ एक सहित्यिक मंच है, अतः प्रस्तुतियों पर विवेचनाएँ अधिक उचित हुआ करती हैं.
दूसरे, आप यदि ओबीओ जैसे किसी साहित्यिक मंच पर हैं तो शब्द-ज्ञान का होना आपकी पहली आवश्यकता होनी चाहिए. अन्यथा आगे चल कर आपका रचनाकर्म बहुत ही अधिक प्रभावित होगा
यदृच्छा - यत्+इच्छा अर्थात्, उसकी इच्छा. या, परमेश्वर की इच्छा
किरच - यह एक देसज शब्द है. किर्ची से किरच हुआ है. जो आँखों में या बदन में चुभे वह किर्ची ही किरच हुई
सान्द्र - कॉन्सण्ट्रेटेड, अत्यंत गाढ़ा. यह तो विज्ञान का शब्द है भाई. सोल्यूशन चैप्टर में आपने पढ़ा होगा, ’कॉन्क. एसिड’ यानी सान्द्र अम्ल !
तिर्यक - तिरछा या तिरछी. आपने ज्यामिति में नहीं पढ़ा है ? कि, दो समानान्तर रेखाओं को कोई तिर्यक रेखा काटे तो क्या-क्या हुआ करता है ?
पनछुच्छा - विरल स्वाद. किसी व्यंजन के मूल स्वाद में पानी की मात्रा के अधिक हो जाने पर बदला हुआ स्वाद.
जनाब सौरभ पाण्डेय जी आदाब,
"सुना जब आपका नवगीत दिल से ये दुआ निकली
मुझे भी इस विधा से काश रग़बत और हो जाती"
हम जैसे नव अभ्यासियों के लिये आपका नवगीत किसी पाठ शाला से कम नहीं,सच है,हर गीत नवगीत नहीं होता,मगर हर नवगीत ज़रूर गीत होता है । कमाल की प्रस्तुति से मंच को नवाज़ा है आपने,हमारे तो जैसे भाग खुल गये ।
उर्दू की तक़रीबन सारी अस्नाफ़ पर तबा आज़माई कर चुका हूँ,लेकिन हिन्दी विधाओं से परिचय ओबीओ पर आने के बाद हुआ है,में नवगीत के विधान से कोई वाक़फ़ीयत नहीं रखता लेकिन शाइरी किसी भी विधा में हो,उसे समझ ज़रूर सकता हूँ,आपका ये नवगीत शाइरी का बहतरीन नमूना है जो पाठक को मुतास्सिर किये बिना नहीं रहता,इसकी रवानी में बहता चला जाता है,में भी बह गया,वाह बहुत ख़ूब आनन्द आगया इस प्रस्तुति पर बस दाद ही दाद और ढेरों बधाई स्वीकार कर अनुग्रहित करें ।
जितने की इच्छा थी उतनी
सबकी दुनिया दिखी चहकती
कहीं धार में बहता पानी
कहीं सुगंधित धार महकती
दौर तेज़ है, तो सब दौड़ें
या सुस्तायें, पाट सँभालें
वो भी चुप हैं अपने हिस्से
जहाँ किरच से रात लहकती..............बहुत सुन्दर ..हार्दिक बधाई सर जी
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