सोने की चमक छोड़ के मिट्टी की तरफ हूं
बेटों से कहीं ज्यादा मैं बेटी की तरफ हूं
तुम लोग तो जालिम के तरफदार हो लेकिन
मैं आज भी इस देश में गांधी की तरफ हूं
जब साथ दिया मैंने किसी अहले सितम का
एहसास हुआ मुझको मैं गलती की तरफ हूं
आंखो को मेरी ख्वाब ना दौलत के दिखाओ
मैं भूख से बेचैन हूं रोटी की तरफ हूं
मैं डूबने दूंगा ना गरीबों का सफीना
तूफां के मुकाबिल हूं मैं मांझी की तरफ हूं
ये शहर का माहौल मुबारक हो आपको
मैं गांव का बाशिंदा हूं बस्ती की तरफ हूं
नुसरत मेरी ग़ज़लें भी मोहब्बत से भरी हैं
गौतम से मुझे प्यार है चिश्ती की तरफ हूं
कुमार नुसरत
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ. कुमार जी आपकी ग़ज़ल पर समर कबीर साहब, आ. गिरिराज जी और आ. निलेश शेवगाँकर जी अपनी बात कह ही चुके हैं गौर कीजिएगा। मेरी तरफ से आपको बधाई
आ. कुमार जी,
मच पर आपको पहली बार पढ़ा है... अच्छा लगा.. ग़ज़ल भावपूर्ण है.
मतले में सानी में... में को मैं कर लें
.
ये शहर का माहौल मुबारक हो आपको..यह मिसरा आख़िर में थोडा मोच खाया है...बहर चूक रहा है ..
अंतिम रुक्न 122 आना चाहिए 212 हो गया है ...
देख लीजियेगा
सादर
आ. कुमार नुसरत भाई , खूब सूरत ग़ज़ल के लिये बधाइयाँ । एक बात कहना चाहता हूँ , आवश्यक नही कि आप सहमत हों , विचार अपने होते हैं ..
उअला और सानी पर विचार करने से , मतले मे क्या ऐसा नही लगता ..कि .. अनजाने मे ही सही , बेटी की तुलना मिट्टी से हो गयी है -
सोने की चमक छोड़ के मिट्टी की तरफ हूं
बेटों से कहीं ज्यादा में बेटी की तरफ हूं -- सोचियेगा ... सुधार ज़रूरी नही है , जब तक मेरी बात से सहमत न हों ।
आदरणीय कुमार नुसरत जी बहुत प्यारी ग़ज़ल कही है आपने | हार्दिक बधाई आपको |
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