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वो मेरी खामोशियों को हाँ म हाँ समझा किया
मुझको धरती और खुद को आसमाँ समझा किया
पहना जब तक सादगी और शर्म का मैंने लिबास
ये ज़माना यार मुझको नातवाँ समझा किया
उस कहानी के सभी किरदार उसको थे अज़ीज़
बस मेरे किरदार को ही रायगाँ समझा किया
जिस्म मेरा रूह मेरी जिस चमन पर थी निसार
वो फ़कत मुझको वहाँ का पासबाँ समझा किया
जिसकी दीवारों में माज़ी सांस लेता था कभी
यादों से भरपूर घर को वो मकाँ समझा किया
ले गई जिसके गुलों को छीनकर ज़ालिम ख़जाँ
शाख़ के उस दर्द को बस बागबाँ समझा किया
हाय उसने ही जलाया चिलचिलाती धूप में
भूल से अबतक जिसे वो सायबाँ समझा किया
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
//ले गई जिसके गुलों को छीनकर ज़ालिम ख़जाँ
डाल के उस दर्द को बस बागबाँ समझा किया//...
बहुत ही खूबसूरत खयाल हैं आपकी गज़ल में। हार्दिक बधाई, आदरणीया राज जी।
समझ-समझ का फेर और ये दुनिया एक पहेली हमारे लिए यख हम स्वयं एक पहेली दुनिया के लिए। कठिन शब्दों के होते हुए शायद इस बेहतरीन सृजन को मैं सही तरह से समझ पाया हूं। हार्दिक बधाई आदरणीया राजेश कुमारी जी। अंत में हमारे लिए कठिन शब्दों के मायने भी दीजियेगा।
आदरणीय राजेश कुमारी जी एक बेहतरीन अहसास भरी ग़ज़ल कहने के लिए ढ़ेरों दाद । वसूल पाइयेगा ।
सादर ।
आ. राजेश दी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाइ ।
आदरणीया राजेश जी,
बेहतरीन ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.
कई शेरों में स्त्री-विमर्श उभरता देखकर अच्छा लगा.
जिसकी दीवारों में माज़ी सांस लेता था अभी > जिसकी दीवारों में माज़ी सांस लेता था कभी
इक भरे पूरे ही घर को वो मकाँ समझा किया > इक भरे पूरे-से घर को वो मकाँ समझा किया
मुझे लगता है आपका मंतव्य यही रहा होगा गलती से टंकित कुछ और हो गया है.
बाकी बातें आदरणीय समर साहब कह चुके है.
सादर
आदरणीया राजेश कुमारी जी आदाब,
बहुत ही लाजवब ग़ज़ल । हर शे'र उम्दा । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह का संज्ञान लें ।
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले के सानी मिसरे में मेरे नज़दीक 'इक' शब्द भर्ती का है, इस मिसरे को यूँ किया जा सकता है:-
'मुझको धरती,और ख़ुद को आसमाँ समझा किया'
'ये ज़माना सिर्फ़ मुझको नातवाँ समझा किया'
इस मिसरे में 'सिर्फ़' शब्द भर्ती का है,'सिर्फ़' की जगह अगर "यार" करलें तो कैसा रहे?
'जिसकी दीवारों में माज़ी सांस लेता था अभी
इक भरे पुरे ही घर को वो मकाँ समझा किया'
इस शैर में भाव स्पष्ट नहीं है, दूसरी बात ऊला मिसरे में 'था' के साथ "अभी" शब्द ग़लत है,और सानी मिसरे में "ही" शब्द भर्ती का है, कोई विकल्प तलाश करें ।
'डाल के उस दर्द को बस बाग़बाँ समझा किया'
इस मिसरे में 'डाल' जगह "शाख़" कर लें तो उचित होगा ।
'चिलचिलाती धूप में इक सायबाँ निकला वही
तल्ख़ियों में वो जिसे इक खूँ चुकां समझा किया'
इस मिसरे में "खूँ चुकां" क़ाफ़िया काम नहीं कर रहा है,इस शब्द का अर्थ है,ख़ून टपकना, या ख़ून टपकता हुआ,आप ही सोचिये चिलचिलाती धूप का ख़ून टपकने से क्या तअल्लुक़?और यही सवाल तल्ख़ियों(कड़वाहट)के लिये भी है,सानी मिसरे को यूँ किया जा सकता है:-
'उम्र भर जिस शख़्स को तू रायगाँ समझा किया'
हार्दिक बधाई आदरणीय राजेश कुमारी जी।बेहतरीन गज़ल।
जिस्म मेरा रूह मेरी जिस चमन पर थी निसार
वो फ़कत मुझको वहाँ का पासबाँ समझा किया
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