(221 2121 1221 212)
(बहर मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़)
अब के अजीब रंग में आया है जनवरी
ग़म सब पुराने साथ में लाया है जनवरी
बे-नूर सुब्ह-ओ-शाम हैं वीरां हैं रास्ते
तू भी किसी के ग़म का सताया है जनवरी
ना दिन में आफ़्ताब न महताब रात में
मत पूछिये कि कैसे निभाया है जनवरी
क़हर-ओ-सितम है ठंड का जारी उसी तरह
कोहरा-ओ-धुंद और भी लाया है जनवरी
शादाब ना शजर हों तो क्या लुत्फ़-ए-ज़िन्दगी
तुझको सितम ये किसने सिखाया है जनवरी
रिश्ता तमाम माह से इन्सां का है मगर
अपना लगे है मार्च पराया है जनवरी
बिछड़े थे हम जो आप से इस माह तभी से
दिल पर मुहीब दर्द का साया है जनवरी
सारी रुतें हसीन थी जब आप साथ थे
बिन आप के न फिर कभी भाया है जनवरी
तौबा ज़रूर बाक़ी महीने निभाइये
इस में न पी शराब तो ज़ाया है जनवरी
इक और साल ज़िन्दगी का हो गया शुरू
'शाहिद' ये फ़िक़्र में ही बिताया है जनवरी
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय मुसाफ़िर साहिब, आपका बेहद शुक्रिया। आपको भी आपकी रचना "तू भी निजाम नित नया मत अब कमाल कर" के 'फ़ीचर' के लिए चुने जाने पर ढेर सी बधाई।
मोहतरम समर कबीर साहिब, आदाब। आपका शुक्रिया किन अलफ़ाज़ में करूँ समझ नहीं आता, जो आपने नाचीज़ की ग़ज़ल को पढ़ने, ग़लतियाँ बताने और इस्लाह करने के लिए अपना क़ीमती वक़्त दिया। आप मेरे लिए दरअसल ग़ज़ल की यूनिवर्सिटी हैं, क्यूंकि आपकी इसलाहों से (अपनी तथा और शायर हज़रात की) बहुत कुछ सीखने को मिलता है। इस ग़ज़ल में की गई आपकी हर एक इस्लाह मेरे लिए एक पूरा सबक है, जिसे मैंने ध्यान से समझ लिया है। कृपया गुरुदक्षिणा के तौर पे मेरा हार्दिक आभार क़ुबूल करें।
आ. भाई रवि भसीन जी, रचना के ' फीचर' के लिए चुने जाने पर हार्दिक बधाई ।
जनाब रवि भसीन 'शाहिद' जी आदाब,
ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
ना दिन में आफ़्ताब न महताब रात में'
उर्दू शाइरी में 'न' को 2 पर नहीं लिया जाता,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'दिन में है आफ़ताब न महताब रात में'
'कोहरा-ओ-धुंद और भी लाया है जनवरी'
इस मिसरे में 'कोहरा' ग़लत शब्द है,सहीह शब्द है "कुहरा"22,दूसरी बात ये कि 'कुहरा' और 'धुंद' दोनों हिन्दी भाषा के शब्द हैं,इसलिए इसमें इज़ाफ़त नहीं लगेगी,देखियेगा ।
'शादाब ना शजर हों तो क्या लुत्फ़-ए-ज़िन्दगी
तुझको सितम ये किसने सिखाया है जनवरी'
इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं है,दूसरी बात ऊला में 'न' को 2 पर लेना उचित नहीं ।
'रिश्ता तमाम माह से इन्सां का है मगर'
इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर है,यूँ कर लें तो ये ऐब निकल जायेगा:-
'रिश्ता सभी महीनों से इंसाँ का है मगर'
'बिछड़े थे हम जो आप से इस माह तभी से'
ये मिसरा बह्र से ख़ारिज है,देखियेगा ।
'तौबा ज़रूर बाक़ी महीने निभाइये
इस में न पी शराब तो ज़ाया है जनवरी'
इस शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं,और सानी में क़ाफ़िया दोष भी है,सहीह शब्द है "ज़ाए" ।
'इक और साल ज़िन्दगी का हो गया शुरू
'शाहिद' ये फ़िक़्र में ही बिताया है जनवरी'
इस शैर के ऊला में 'सहीह शब्द है "शुरू'अ'"121
और सानी मिसरे में व्याकरण दोष है,देखियेगा ।
आद0 रवि भसीन साहब सादर अभिवादन। बढ़िया दमदार ग़ज़ल कही आपने, शैर दर शैर बधाई आपको
आ. भाई रवि भसीन 'शाहिद' जी, सादर अभिवादन।
बहुत ही उम्दा गजल हुई है । ढेरों बधाइयाँ...
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