बह्र : 1222 1222 122
तुम्हारे शहर से मैं जा रहा हूँ
बिछड़ने से बहुत घबरा रहा हूँ
वहाँ दुनिया को तू अपना रही है
यहाँ दुनिया को मैं ठुकरा रहा हूँ
उठा कर हाथ से ये लाश अपनी
मैं अपने आप को दफ़ना रहा हूँ
तुम्हारे इश्क़ में बन कर मैं काँटा
सभी की आँख में चुभता रहा हूँ
नहीं मालूम जाना है कहाँ पर
न जाने मैं कहाँ से आ रहा हूँ
मुहब्बत रात दिन करनी थी तुमसे
तुम्हीं से रात दिन लड़ता रहा हूँ
पढ़ा इक लफ़्ज़ भी उसने ने मेरा
ग़ज़ल जिसके लिए लिखता रहा हूँ
मुहब्बत करने वाले मर गए हैं
मैं दिल को कब से ये समझा रहा हूँ
नहीं आया मुझे वो रोकने को
उसे मालूम है मैं जा रहा हूँ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
'मुहब्बत रात दिन करनी थी तुमसे
तुम्हीं से रात दिन लड़ता रहा हूँ'
बहुत खूब!
आदरणीय महेंद्र जी, ख़ूबसूरत अशआर हुए हैं. हार्दिक बधाई.
क्या बात है लाजवाब | समर सर की इस्लाह भी लाजवाब |
उम्दा ग़ज़ल और लाजवाब शेर ...
बहुत बधाई
आदरणीय महेंद्र जी, ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है। बहुत बहुत बधाई, इस शानदार ग़ज़ल के लिए।
सादर।
आद0 महेंद्र जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने। आद0 समर कबीर साहब की इस्लाह भी उत्तम। बहुत बहुत बधाई आपको इस सृजन पर
जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'वहाँ दुनिया को तू अपना रही है'
इस मिसरे को यूँ करना उचित होगा:-
'वहाँ दुनिया को तुम अपना रहे हो'
कारण ये कि उर्दू शाइरी में महबूब को स्त्रीलिंग नहीं लेते ।
'उठा कर हाथ से ये लाश अपनी'
इस मिसरे को यूँ करना उचित होगा:-
'उठा कर लाश ये हाथों से अपने'
कारण ये कि एक हाथ से लाश उठाना मुमकिन नहीं ।
'पढ़ा इक लफ़्ज़ भी उसने ने मेरा'
इस मिसरे में 'ने' को "न" कर लें ।
जनाब महेंद्र कुमार जी, आदाब उम्दा ग़ज़ल के लिये मुबारक बाद कुबूल करें
आ. भाई महेंद्र जी, अच्छी गजल हुयी है हार्दिक बधाई ।
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