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ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक-६० में आप सभी का हार्दिक स्वागत है.
संकट की इस काली रात में आशा की नई किरण दिखाती इस गोष्ठी के लिए हार्दिक आभार।
नई किरण उम्मीद की किरण हो,आदरणीय रवि जी।
आभार आदरणीय योगराज जी।
धरोहर
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'विचारा लख्खाराम को मौत के मुंह में उसकी बीमारी से ज्यादा कर्ज के बोझ की चिंता ने ढकेल दिया।'
'सही कहत हो दद्दा।छोटी उम्र में पिता का साया क्या उठा,पहले ही उनका लिया कर्ज न पटा पाया कि खुद की घर-गृहस्थी चलाने में और बोझ तले दबता चला गया।'
'अकेला चना क्या भाड़ झोंकेगा।और फिर भैय्या,कर्ज होवे ही जोंक की तरह,जान लेके ही पिण्ड छोड़े।'
लख्खाराम के दशगात्र में शामिल होने आए गांव के लोग बतिया रहे थे ।सामने से उसके पुत्र जग्गू को आते देखा,तो पास बिठा उसको दिलासा कम,जांच-पड़ताल करने लगे,घर चलाने को तेरा बापू कुछ छोड़ गया ?
बड़े-बुजुर्गों की बात सुन जग्गू सूखे कंठ से निकलती हुलस को दबा,रूंधे स्वर में बोला,
रूपया-पैसा के नाम पर तो जो था,उनके क्रियाकर्म में खर्च हो गया।अपने पैरो की तरफ इशारा करते हुये भारी मन से कहने लगा,
'बस,निशानी के नाम पर उनके पैर के ये जूते हैं, जो कर्जा पटाते-पटाते उधड़ते भी नहीं। पता नहीं ये धरोहर कब तक चलेगी।' लंबी सांस खीचते हुये वही जमीन पर सिर पकड़कर बैठ गया।
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मौलिक व अप्रकाशित
आदरणीया बबिता गुप्ता जी, बहुत ख़ूब! दिल को छू गई आप की लघुकथा।
सधन्यबाद! आदरणीय रवि सरजी।
बढ़िया कथा आ. बबिता गुप्ता जी, वाकई में कर्जे की धरोहर अत्यंत पीड़ादायी होती हैं।हार्दिक बधाई आपको
सधन्यबाद! आदरणीया अर्चना दी।
सधन्यबाद! आदरणीय शेख सरजी।
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