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आदरनीय तेजवीर जी, कमाल की पेशकारी , हार्दिक बधाई हो
वृद्ध आश्रम जाने के लिये जो वजह आपने लिखी है वह लीक से हटकर है जिसके लिए आपको हार्दिक बधाई आदरणीय तेज वीर सिंह जी।
मर्यादा -वह पन्नी बिननेवाली
उसका का रोज का काम सुबह उठकर पोलिथिन की थैलिया और पन्नी बीनना था. वह सालो से यह काम कर रही थी, शायद ही कभी उसने सुबह उठकर कुल्ला या मंजन किया हो, उसे खुद भी याद नहीं होगा. वह सीधे किसी भी होटेल में जाती और वही चाय के घूँट से कुल्ला कर अपना काम चलाती अधिक नहीं तो एक आद पाव या टोस्ट को चाय में
डुबोकर खाने के बाद अपने रोज काम पर चल देती. इस काम से वह रोजाना 200-300/रुपये कमा लेती थी. सारा दिन पूरे शहर में घूम घूम कर वह शाम तक दो तीन बोरी पन्नी बीन ही लिया करती थी और शाम को शराब के ठेके पर जाकर देसी शराब का एक पव्वा चढ़ाने के बाद ही वह घर का रुख करती थी. कभी कभी तो इतनी चढ़ा लेती थी की नशे में मुँह से गालियो की बौछार कर देती थी. पर अब कुछ दिनों से जबसे नोवल करोना ने उसकी सारी दिनचर्या पर मानो हमला बोल दिया था. अब उसे पन्नीया मिलना बेहद कम हो गयी थी और उस पर मुश्किल तब खड़ी हो गयी थी जो कबाड़ी वाला उससे पन्नी खरीदता था उसने सबसे कबाड़ खरीदना बन्द कर दिया था. आज भी वह सुबह से बोरा लेकर इस आस में निकली थी कि शायद आज कुछ पन्नी मिल ही जायेगी, वो ये नहीं समझ पा रही थी कि इस बीमारी ने लोगों के कारण लोगों ने पन्नी फ़ेकनी क्यों बन्द कर दी, उसे शायद ये नहीं पता था कि लोगों के लिये रोजमर्रा की चीजे भी जुटा पाना अब आसान नहीं रह गया था तो पन्नी के होने का प्रश्न ही नहीं था. उसे कुछ नहीं सूझ रहा था कि वह अब अपना पेट कैसे भरेगी, वो धीरे से जाकर एक ओटले पर बैठ गयी, सूरज एन सिर के उपर था, धूप और भूख-प्यास ने मानो उसकी सोचते समझने की ताकत छीन ली थी, अचानक उसके मुंह से बिना शराब पिये ही गालियो की बौछार होने लगी, पर उस तपती दोपहरी में लोग घरों में कैद थे, उसकी कोई भी सुनने वाला नहीं था.
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(उपरोक्त लघु कथा पूरी तरह से मौलिक और अप्रकाशित है)
आदाब। पन्नी बीननेवाली का नशे की हालत में गालियाँ बकना और कोरोना कालीन परिस्थितियों में बिना नशे की अवस्था में होशहवास में गालियाँ बकना इस रचना का मुख्य आकर्षण है विषयांतर्गत। बहुत बढ़िया व उम्दा प्रयास है। हार्दिक बधाई आदरणीया वीणा सेठी जी। मात्रा-टंकण संबंधित त्रुटियां रह गई हैं। घटनाओं का विवरण कम करके कुछ कम शब्दों में इसी कथानक पर आप इसे बेहतरीन लघुकथा का अधिक प्रभावशाली रूप देकर हम पाठकों को अधिक लाभान्वित कर सकेंगी, ऐसा विश्वास है।
लघुकथा गोष्ठी में आपकी सहभागिता हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय वीणा सेठी जी।लेकिन आपकी लघुकथा मुझे प्रभावित नहीं कर सकी।यह मेरी निजी राय है। यह प्रदत्त विषय से भी मेल नहीं खा रही।स्पष्टता का अभाव है। और आगे देखिये इस विधा के ज्ञानी और गुणी विशेषज्ञ क्या टिप्पणी करते हैं। सादर।
बहुत ही साधारण सी लघुकथा है जो प्रदत्त विषय के आसपास भी नजर नहीं आ रहीl ऊपर से भाषा/वर्तनी की बहुत-सी त्रुटियों के कारण रचना प्रभाव नहीं छोड़ पाईl लघुकथा में सबकुछ आप ही ने कह दिया, इसमें यदि विवरण के स्थान पर कुछ संवाद होते तो बात बन सकती थीl बहरहाल, आयोजन में प्रतिभागिता हेतु अभिनन्दन स्वीकार करें आ० वीणा सेठी जी और सुधि साथियों द्वारा दी गई सलाह का संज्ञान लेंl
प्रदत विषय को ढूंढते हुए पूरी लघुकथा पढ़ ली, बात कुछ मुक्कमल नहीं हुई आदरणीया वीणा सेठी जी.
आ. Veena Sethi जी , प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई। आपकी कथा विषय को कैसे परिभषित कर रही हैं? साथ ही प्रस्तुत कथा से कोई संदेश भी नही मिल पा रहा हैं।सादर
आदरणीया वीना सेठी जी, सँभवतः आपकी पहली रचना पढ़ रहा हूँ। अच्छा प्रयास है। विषय को आपने कथा और नायिका का शीर्षक बना दिया। हार्दिक बधाई
आदरनीया वीना जी , लघुकथा अच्छे विषय के साथ पेश की गई, बधाई हो
आयोजन में सहभागिता के लिये हार्दिक बधाई आदरणीया वीणा सेठी जी। गुणीजनों की बातोंं का संज्ञान
लीजियेगा।
झिड़की
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‘नहीं, अभी नहीं....।’ घूँघट से मद्धिम स्वर उभरा।
‘क्यों, क्या हमनें समय को मुखरित नहीं किया?’ फिर वही सवाल हुआ।
‘तुमने किए, पर ख़ुद हावी रहे।’ घूँघट फड़फड़ाया।
‘मतलब?’
फिर सवाल होने पर घूँघट थोड़ा सरका। तेवर की झलक से मतलब पूछनेवाले लेखक-लेखिकाओं का दल सहम गया।
चंद क्षणों के लिए निस्तब्धता छा गई। अंततोगत्वा घूँघटनशीन अक्स ने पुचकारा,
‘क्या हो गया मेरे क़लमकारों को, क़लम कारीगरनियों को भई?’
‘हमनें युग धर्म-निर्वहन में कोई कोताही नहीं की। फिर भी हमारे ज़िम्मे फटकार ही है।’ लेखकों के समूह से आवाज़ बुलंद हुई।
‘तो हमनें ही कौन कोताही बरती है? और कौन तमग़े हासिल हो गए हमें?’ लेखिकाएँ उबल पड़ीं।
‘जैसे?’ घूँघट मुखर होने लगा।
‘हमनें समाज में व्याप्त विसंगतियों पर कूची चलाई है।’ लेखक-दल ने शाबाशी की ख़्वाहिश ज़ाहिर की।
‘हमनें स्त्री-समाज को मर्दों के सामने ला खड़ा किया है। नारी-जागृति फैलाने का श्रेय हमें मिल ही जाना चाहिए।’ लेखिकाओं की तरफ़ से फ़रियाद की गई।
‘उदाहरण से समझाएं, तो बेहतर हो।’ घूँघट उठने लगा था।
‘हमनें भिन्न-भिन्न तरह के विमर्श पेश किए, यथा-नारी विमर्श, दलित विमर्श आदि आदि।’ पुरुषत्व प्रदर्शित होने लगा।
‘स्त्रियों पर स्त्रियाँ ही सही विमर्श प्रस्तुत कर सकती हैं, पुरुष नहीं। हमनें किया भी है।’ नारीत्व नसीहतदां होने लगा।
‘साहित्य जोड़ की कला है, तोड़ की नहीं। और उसमें भी जब मुझे नियामित करने चले हो, तो यह ज़्यादा ज़रूरी है।’ घूँघट कुछ ज़्यादा उठ चुका था।
‘मसलन?’ लेखक लेखिका अब ज़्यादा जिज्ञासु हो चले।
‘हाहहा .... हह नहीं समझे तुमलोग?’
‘बिल्कुल नहीं। हमनें क्या तोड़ा? हमनें तो विभिन्न समूहों के जरिए लोगों को जोड़ा है। सक्रिय लोगों को पुरस्कृत भी किया है।’ क़लमकला वाले दंभपूर्ण मुद्रा में बोले।
‘ज़रूर तुमने समूह बनाए। लिखे, लिखवाए। पुरस्कार बाँटे, पाए। छपे भी, छपवाए भी। पर वहाँ नहीं पहुँचे, जहाँ तुम्हें पहुँचना था।’ घूँघट श्रोताओं को अब घसीटने लगा था।
‘मतलब?’ कलामकला झुझुआने लगी।
‘फिर मतलब? तो सुनो। तुम्हारा मतलब तुम्हारा पात्र होना चाहिए। वह जो तुम्हारी रचना में जीता हो। मिले हो कभी अपने कल्लू पल्लू, बुढ़िया और बुटोली से, जो रोज़ी-रोज़गार ढूँढ़ते प्रवास में जाते हैं, और आपदा में घर लौटते हैं, तो पलायन का ठप्पा लगवाकर?’ घूँघट की नाराज़गी बढ़ती जा रही थी।
‘लिखा है हमनें उनपर।’ लगभग सभी क़लमकलाएँ एक साथ बोल पड़ीं।
‘ज़रूर लिखा तुमने, पर छपने की जल्दी में। एक ही तरह के विषय पर लिखना तुम्हारा धर्म हो गया है। नए-नए विषय तुम खोज नहीं सकते। और कुछ लोगों ने तो तुम्हें छापने की शर्त भी पैबस्त कर दी है कि मेरी फ़लाँ-फ़लाँ किताबें पढ़ लो, तब ही रचनाएँ भेजना।’ घूँघट अब फुफकारने लगा।
‘ऐसी स्थिति तो है।’ क़लमकारों ने सिर झुका लिए।
‘तो बग़ावत कर देते। चले हो तुमलोग मुझे परिभाषित करने और लग गए वही छपने-छपाने के चक्कर में? ज़रा इधर-उधर भी देख लो, जहाँ यह गुटबंदी काबिज़ नहीं है। मैं चलती हूँ, बस मैं।’ लघुकथा का चेहरा लाल हो चुका था। लेखक लेखिकाओं की मंडली सर झुकाए खड़ी थी।
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