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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-186

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 186 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का मिसरा आज के दौर के मशहूर शायर सलीम सिद्दीक़ी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है।
तरही मिसरा है:
“दर्द कम है मगर मिटा तो नहीं”
बह्र 2122, 1212, 112

अर्थात्

फ़ायलातुन्, मफ़ायलुन्, फ़यलुन् है।


रदीफ़ है “तो नहीं” और क़ाफ़िया है ‘आ’ का स्वर
क़ाफ़िया के कुछ उदाहरण हैं, अदा, किला,पता, मिला, बचा, खिला, सहा, दिखा, हुआ, जमा आदि
उदाहरण के रूप में, मूल ग़ज़ल यथावत दी जा रही है।
मूल ग़ज़ल यह है:
उस को एह सास ये हुआ तो नहीं
वो बशर है कोई ख़ुदा तो नहीं


लाख तदबीरें हम ने कीं लेकिन
लिक्खा तक़दीर का मिटा तो नहीं


डूबते को है एक तिनका बहुत
फिर भी मोहकम ये आसरा तो नहीं


मुतमइन क्यों है चारागर अपना
दर्द कम है मगर मिटा तो नहीं


इल्तिफ़ात और वो करें मुझ पर
दिल को धोका कोई हुआ तो नहीं


ख़ौफ़ खाऊँ मैं किस लिए तुझ से
तू भी इंसान है ख़ुदा तो नहीं


जो क़दम भी उठाओ उस पे 'सलीम'
सोच लो सोचना बुरा तो नहीं


मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 27 दिसम्बर दिन शनिवार के प्रारंभ के साथ हो जाएगी और दिनांक 28 दिसंबर दिन रविवार के समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक

तिलक राज कपूर

(वरिष्ठ सदस्य)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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इक नशा रात मुझपे तारी था 

राज़ ए दिल भी कहीं खुला तो नहीं 2

बारहा मुड़ के हमने ये देखा 

कोई हमको भी देखता तो नहीं  5

शहर-ए-दिल में तलब किया जिसको 

यार तेरा वो लापता तो नहीं 4

गिरह 

चोट पहले से अब हुई बेहतर 

' दर्द कम है मगर मिटा तो नहीं ' 

ग़ज़ल में गिरह का शेर रह गया। 

आदरणीय तिलक जी नमस्कार

बहुत खेद है पहली बार ये गलती हुई मुझसे

सादर

एक कोशिश की है__

सादर

चोट पहले से अब हुई बेहतर

दर्द कम है मगर मिटा तो नहीं 

रास्ता  घर  का  दूसरा  तो  नहीं 

जीना मरना अलग हुआ तो नहीं 

मुस्तकिल जज़्बा प्यार होता है

प्यार तेरा बढ़ा - घटा तो नहीं 

नाते - रिश्ते भरोसेमन्द होते 

राजदा कोई दूसरा तो नहीं 

हमसफ़र रोज़ ही बदलते लोग 

पर सुकूँ ज़िन्दगी बढ़ा तो नहीं 

लाख कोशिश की आदमी ने मगर 

नाख़ुदा  देवता  हुआ  तो  नहीं 

अब मरासिम भी हो गये बेज़ार 

आदमी वो है लापता तो नहीं 

प्यार पैसा ही ज़िन्दगी है क्या 

ज़ह्र रौशन कोई सज़ा तो नहीं 

दिलजलों से तू पूछता क्या है

बेहतर उनसे तो जानता तो नहीं

कौन अच्छा बुरा वो तय करेगा 

बेहतर 'चेतन' से जानता तो नहीं 

हाल कैसा है दोस्त तेरा बता 

" दर्द कम है  मगर मिटा तो नहीं"

मौलिक व अप्रकाशित 

आदरणीय चेतन जी नमस्कार

ग़ज़ल का अच्छा प्रयास किया आपने बधाई स्वीकार कीजिए 

सादर

आदमी दिल का वह बुरा तो नहीं
सिर्फ इससे  खुदा  हुआ  तो नहीं।।
(पर जमाने से कुछ जुदा तो नहीं।।)
*
दरमिया अपने फासला तो नहीं
वह मगर मुझसे बोलता तो नहीं।।
*
उसकी फितरत में सादगी है मगर
वो किसी का भी आइना तो नहीं।।
*
आग मन में बहुत लिए हों सभी
दीप इससे  कोई जला तो नहीं।।
*
हो गयी है  सुलह सभी से मगर
द्वेष मन का अभी मिटा तो नहीं।।
*
सब हँसे हैं तो  सिर्फ  रस्म निभी
दिल से कोई कभी हँसा तो नहीं।।
*
उसके बदले में क्या मिला हमको
एक तजुर्बा ही था, सिला तो नहीं।।*
*
उस "मुसाफिर" को कौन देखे अब
वह अकेला है,  काफिला तो नहीं।।
*
गिरह-
की दवा सबने फिर दुआ भी की
"दर्द कम है मगर मिटा तो नहीं”
***
मौलिक/अप्रकाशित

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, ग़ज़ल का बहुत अच्छा प्रयास है। तीन शेर 4,5, व 6 तो बहुत अच्छे लगे। बधाई स्वीकार करें।

आदरणीय लक्ष्मण जी नमस्कार

ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है बधाई स्वीकार कीजिए

सादर

तौर-ए-इमदाद ये भला तो नहीं 
शहर भर में अब इतना गा तो नहीं  
 
मर्ज़ क्या है समझ नहीं आता  
इश्क़ वाला मुआमला तो नहीं 
 
गुर भी दे दूँगा पहले जाँच तो लूँ 
शौक़ तेरा नया-नया तो नहीं
 
सब मिला है तो रब भी मिल जाता    
उतना बेताब दिल हुआ तो नहीं
 
ये हवाएँ तो खुशबू भर लाएँ 
मौसमों में वो ज़ायका तो नहीं  
 
लौटने वाला अब न जाएगा    
ऐतबार अब मुझे रहा तो नहीं  
 
जान लेते हो मन की सब बातें 
नींद में कुछ मैं बोलता तो नहीं 
 
बस नज़रिए की बात है वरना  
हो रहा है जो कुछ नया तो नहीं 
 
आँच अब तक शरर की ज़िंदा है 
राख आलूदा है बुझा तो नहीं  
 
आई तस्वीर ख़ुद न आए वो 
दर्द कम है मगर मिटा तो नहीं **
 
घर में क़ाफ़ी है एक ही पागल 
पूछ लो लड़की लेखिका तो नहीं 
 
#मौलिक एवं अप्रकाशित 

आदरणीय अजय जी नमस्कार

अच्छी ग़ज़ल हुई आपकी ख़ूब शेर कहे आपने बधाई स्वीकार कीजिए

सादर

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