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हार्दिक आभार आदरणीया बबीता जी
आदरणीया प्रतिभाजी, यह सही है कि सच्चा वारिस कर्मकाण्डों से नहीं, व्यवहार-कुशलता तथा आचरण से होता है. यथा शिक्षा तथा शिष्य की उक्ति को चरितार्थ करती इस प्रस्तुति केलिए हार्दिक धन्यवाद व शुभकामनाएँ.
कथा विन्यास अच्छी तरह से बुना गया है. अलबत्ता, भाषायी रचना-प्रस्तुतियों में अंकों का भरसक प्रयोग न किया करें.
शुभेच्छाएँ
हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी ,कथा पर टिपण्णी प्रोत्साहन व् मार्ग दर्शन के लिए
वाह सच में सच्चा बेटा है ..अपने धर्म पिता के संकल्प को आगे तो कोई सपूत ही बढ़ा सकता हैं | बधाई आपको इस कथा के लिय सादर अभिवादन के साथ
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आपका हार्दिक आभार आदरणीया सविता जी
कथा पर प्रोत्साहन के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय सतविंदर जी
संकल्प
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“चलो, समाज में फैली बुराईयों को जड़ से उखाड़ फैंके” अध्यापक ने बच्चों से कहा ।
फिर उसने खुद से सवाल किया “ये बुरईयाँ असमान से तो उतरी नहीं,इस समाज की तो हैं, इसकी जड़ें भी यहीं कहीं हैं।
फिर पहला काम तो ये पता लगाने का होना चाहिए कि बुराईयां समाज में क्यूँ हैं ?
“ कहीं ऐसा तो नहीं कि जो लोग इन बुराईयां को खत्म करने की बात करते हैं, वो ही इन बुराईयों के जनक हों” “नहीं, वो कैसे हो सकते हैं”, फिर अध्यापक खुद से सवाल करता है।
“हम तो नहीं, हम तो नौकरी करते हैं, घर बना सके, बच्चों को पढ़ा सके, और बीवी की जरूरतें पूरी कर सकें ” अध्यापक ने एक बार फिर बुराईयों की बातों से खुद को बचाते हुए कहा, “बाकी बातों से हमें क्या लेना देना है। ”
“बता, जो तुम कर रहें हैं, उस से इस व्यस्था को कायम रखने में मदद नहीं मिल रही” फिर उसके मन में सवाल पैदा हुआ ।
‘कैसे’, अगर आप दूसरों से बेहतर सिथित में है, तो फिर आप इस व्यस्था को कायम तो रखेंगे ।
हाँ “क्यूँ नहीं”
मगर, फिर इस व्यस्था से पैदा होने वाली बुराईयों के निंदक क्यूँ हैं ।
“मैं कहाँ हूँ,अगर विकास होगा तो बुराईयाँ भी तो साथ होंगी ” अध्यापक ने बच्चों को बुराईयों को दूर करने का संकल्प पकड़ाते हुए,खुद से कहा ।
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"मौलिक व अप्रकाशित"
शिक्षक अगर स्वयं के लिए ही पहले एक आदर्श और संकल्प स्थापित करें तो समाज में व्याप्त कई बुराइयों पर रोक लग जाए।
बच्चा माता -पिता के बाद अगर जीवन में किसी से प्रभावित होता है तो वो उसका शिक्षक ही होता है।
एक आदर्श शिक्षक में भविष्य निर्माण की ताकत होती है ,लेकिन देश का दुर्भाग्य कि वैश्वीकरण के दौर में सब आदर्श किताबों में ही सिमटते जा रहे है।
बहुत प्रभावी लघुकथा बनी है आपकी ये आदरणीय मोहन जी। बधाई स्वीकार करें।
बहुत खूब आ० मोहन बेगोवाल जी I
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