आदरणीय लघुकथा प्रेमियो,
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गोष्ठी का शुभारंभ करने हेतु बधाई आदरणीय कांता राय जी ।
क्रोध को धर्य के नाम पर ,पिटारी के सांप सा ,श्रवण कुमार ,निपूता थोडे़ हूँ ।सुन्दर वाक्यांशों से
तस्वीर के बदलते रूप को सुशोभित करते हुए सुन्दर संदेश देती कथा हेतु बधाई आदरणीय कांता राय जी ।
बढ़िया लघुकथा है, सुन्दर और रंग-बिरंगी भावनाओं सजी तस्वीर उभर कर सामने आई है, बधाई स्वीकारें आ० कांता रॉय जीI दो-तीन सुझाव:
१. रचना पूरी तरह लेफ्ट एलाईण्ड रखा करेंI
२. इनवर्टेड कौमा के के बाद स्पेस न दिया करेंI
३. जहाँ ज़रूरी न हो पंक्तियों के मध्य गैप न दिया करें, हर बार एडिट करना पड़ता हैI
क्या बात, क्या बात, क्या बात....अपना हिस्सा भले ही सड़ा हुआ हो, पर है तो अपना ही. बहुत ही सधी हुई लघुकथा प्रस्तुत हुई है, इस शानदार अभिव्यक्ति हेतु बधाई स्वीकार करें आदरणीया कांता जी.
सावधान : आपकी प्रस्तुति में जिग-जैग, प्रस्तुति की तश्वीर बदल दिया है.
आदरणीया कान्ता रॉय जी प्रदत्त विषय को सार्थक करती इस भावपूर्ण लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
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// कसाई बने बेटे के चेहरे पर पल -भर में कई रंग आये और गये । उसके चेहरे पर छाई कठोरता , अब मुलायम सी हो गई ।
"इधर कैसे ........ ? इतने सालों बाद खबर - सुधि लेने आया " बुढा चकित था वर्षों बाद इस तरह उसके आने से ।
मोहरसिंह की जागिरी किसी से छिपी नहीं थी । दो लट्ठबाज हमेशा उसके साथ ही रहते थे ।
वहीं कोने में पास खड़ा बेटा पिटारी के साँप सा सिकुड़ा - सिकुड़ा ..... पिता की आज्ञा पाने के लिए तत्पर श्रवणकुमार बन हाथ जोड़े खड़ा था ।// वाह ,आदरणीया ,किस नए एंगल में घुमाया है आपने प्रदत्त विषय को , शब्दों का चयन और मुखरता गजब की है , दिली बधाई स्वीकार करें
मोहतरमा कान्ता साहिबा ,पिता और पुत्र के माध्यम से घर घर की तस्वीर आपने लघु कथा में खींच दी। ... मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
सदा की तरह भाव ,प्रभाव, लगाव और स्वाभाव अपनी अपनी जगह व्यवस्थित हैं परन्तु क्या कथानक फ़िल्मी स्टाइल में नहीं दर्शाया गया ? जो भी हो बदली तस्वीर की उत्तमता के लिए सादर बधाई प्रस्तुत है, आदरणीया कान्ता जी ।
आदरणीया कान्ता जी,
आपकी प्रस्तुति से अंक -१२ का शुभारम्भ हुआ है इसकी हार्दिक बधाई स्वीकारिये.
जहाँ तक प्रस्तुति की बात है, प्रयास और अभ्यास के हिसाब से यह रोचक लघुकथा बन पड़ी है. लेकिन, इस लघुकथा में आत्मा कहाँ है ? रचना कोई हो, आदरणीया, गद्य या पद्य की, उसे फ़ॉर्मेट में बाँधने से बचना चाहिये. फ़ॉर्मेट या सूत्र शिल्प केलिए होता है. किस्साग़ोई का नहीं. होना भी नहीं चाहिए. अन्यथा रचनाएँ प्लास्टिक के फूल की तरह ही हो जायेंगीं. यानी कृत्रिमता कैसी भी हो रचनाधर्मिता की आत्मीयता की व्युत्क्रमानुपाती ही हुआ करती है.
सभी की टिप्पणियाँ आगयी, बधाई और शाबासियाँ भी भरपूर मिली है आपको. कुछ समर्पित पाठक भी हैं जो हर प्रस्तुत हुए वाक्य पर ’वाह वाह’ करना नहीं भूलते. लेकिन यही कुछ एक रचनाकार को रचनाकर्म के सापेक्ष समझौता करने को उत्प्रेरित करने लगते हैं. ओबीओ पर एक नयी जमात आयी है, इसे कहने में कोई उज़्र नहीं है मुझे, जो एक अच्छा-ख़ासा समय गुजारने के बावज़ूद फेसबुकिया एटिट्युड से बाहर नहीं जा पायी है. इस जमात के कई सदस्य ’अपने’ रचनाकारों के नाम को खोज कर अपना ’पाठकत्व’ प्रदर्शित करते हैं. यह सारा कुछ ओबीओ की मूलभूत अवधारणा के निहायत ख़िलाफ़ है. लेकिन ये स्वीकारने में कोई शर्म नहीं कि, जो है सो है. कमी हम सब की भी है कि हम चाह कर आवश्यक समय नहीं दे पारहे हैं. उन्हें सही बात कही कैसे जाये. सर्वोपरि, वे व्यक्तिवाची अधिक हैं.
आदरणीया, आप चूँकि अत्यंत सक्रिय और समर्पित सदस्या हैं, अतः आपके माध्यम से इतनी बातें कह गया. सादर अपेक्षा है, कि, आप मेरे कहे का निहितार्थ समझियेगा.
इन सभी की टिप्पणियों के बीच आदरणीय टीआर सुकुल जी की टिप्पणी सबसे नैसर्गिक, स्पष्ट और मनन करने योग्य टिप्पणी है. उस पर आप अवश्य ध्यान दें, आदरणीया.
रचनाकर्म के प्रति समर्पण भाव केलिए मेरी बधाइयाँ और शुभकामनाएँ स्वीकारें.
सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय कांता जी!लोग हालत को बदलते देख कुछ ही पलों में तसवीर का रंग बदल लेते हैं!वहां रिश्ते कोई मायने नहीं रखते!बेहतरीन प्रस्तुति!
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