आदरणीय साथिओ,
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पलायन तो कोई निदान नहीं होता, बहुत बढ़िया| संपादन की जरुरत है इसमें, बहुत बहुत बधाई आपको
//आशा हमेशा की तरह आज भी पूरी रात सिसकियाँ ले रही थी। तकिये पर सुबह तक आँसुओं के धब्बों को देखकर मुझे इसका अहसास हो जाता था।//
यह "मुझे" कौन है?
//पति का देर रात को शराब पीकर घर लौटना, नशे की हालत में रिश्तेदारों को फोन करके परेशान करना, मुँह से आती वो तेज दुर्गन्ध, और फिर बिस्तर पर ऐसे ढेर हो जाना मानो कोई निर्जीव....//
बात अधूरी क्यों छोड़ दी महोदया?
// पति का आचरण और मेरा आत्महत्या का निर्णय मेरे बच्चों का भविष्य उज्जवल होने से पहले ही अन्धकार में डूबा देगा। अभी तो प्रेरणा को अपने पावों पर खड़ा करना है ताकि पुरुष समाज उसे भी पाँव की जूती और भोग वस्तू न समझ कर मानसिक वेदना का शिकार न बना सके।//
यह "मेरा" कौन है? किसकी बात हो रही रही है यह?
//बुद्धि मरने के ताने बाने बुनती //
"बुद्धि मरना" क्या होता है?
//यह कहते हुए वो आँसुओं को पोंछती हुई मुस्करा कर अपनी दिनचर्या शुरू कर देती है एक नयी आशा के साथ।//
"वो" नहीं "वह"
आदरणीया सुचिसंदीप अग्रवाल जी इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें.
शुतुरमुर्ग--
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सारे पैकेट संभाल कर उन्होंने कार में रखे और घर की तरफ चल पड़े| कल से बैंक बंद था, दीवाली की छुट्टी थी और रिश्तेदारों के साथ साथ पड़ोसियों को भी देने लायक मिठाईयाँ और तोहफे मिल गए थे| प्रसन्न मन से घर पहुंचकर उन्होंने सारे पैकेट निकाले और श्रीमतीजी को पकड़ाकर कपडे बदलने चले गए| टी वी के सामने कुर्सी पर आराम से लेटे तो जॉग्राफीक चैनल पर शुतुरमुर्ग के बारे में चल रहे प्रोग्राम को देखने लगे| बैंक के माहौल को देखकर आजकल उनका मन कभी कभी कचोटने लगता, फिर वो अपने आप को तसल्ली देते कि वह इसमें कहाँ शामिल हैं|
"आखिर उसी ऑफिस में तो काम कर रहे हो तो शामिल कैसे नहीं हो", मन में एक आवाज़ आयी|
"मेरा विभाग अलग है, अब ऋण विभाग वाले और प्रबंधक जो भी करें, मैंने तो कभी कुछ नहीं माँगा", उन्होंने मन को समझाया|
"मतलब आँख के सामने सब कुछ हो रहा है, छोटे छोटे दुकानदारों तक को पैसे देने पड़ते है ऋण लेने के लिए| और तुमको लगता है कि तुम्हारा कोई रोल नहीं है इसमें", मन ने फिर से समझाया|
"देखो, न तो मैं किसी भी कागज पर हस्ताक्षर करता हूँ और न ही किसी भी ऋण लेने वाले से कोई ताल्लुक रखता हूँ| अब मुझे इन चीजों के लिए क्यों दोष दे रहे हो", उन्होंने एक बार फिर मन को समझाया|
"हाँ, ताल्लुक तो सिर्फ उनके द्वारा दिए गए उपहारों से रखते हो| संस्था के प्रति भी कोई जिम्मेदारी होती है या वह भी बाकी लोग ही देखेंगे", मन ने इस बार कस के फटकारा|
"लीजिये चाय पीजिये, इस बार की काजू कतली तो बेहतरीन है, बाजार से तो खरीदने की हिम्मत नहीं थी इस बार", पत्नी ने चाय के साथ मिठाई रखते हुए कहा|
उनकी निगाह टी वी पर पड़ी, उन्होंने देखा कि शुतुरमुर्ग को शेर ने मार डाला|
"ये मिठाई ले जाओ यहाँ से", एकदम से उन्होंने पत्नी से कहा| पत्नी ने उनको अजीब सी नजर से देखा और मिठाई लेकर चली गयी|
उन्होंने अब शुतुरमुर्ग बने रहने का फैसला बदल दिया था|
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मौलिक एवम अप्रकाशित
मोहतरम जनाब विनय कुमार साहिब , प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
वाह बहुत बढ़िया ढंग से दिल दिमाग के द्वन्द को आपने चित्रित किया है ...बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय विनय जी
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