आदरणीय साथिओ,
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Arpana Sharma
"लिव-इन रिलेशन " -तस्वीर का दूसरा रुख़
"मैं अभी बहुत व्यस्त हूँ, घर पहुँचते देर होजाएगी। तुम खाना खाकर सोजाना", गौरव का जवाब सुन याशी ने गहरी उच्छ्वांस ले फोन रख दिया। पिछले एक माह से यह रोज का नियम होगया है। अपने प्रति गौरव की उपेक्षा नित नये रूप में उभरता पा रही है।
अगले दिन सुबह उठते ही न बना। सिर दर्द से टूट रहा था और गौरव नहाने के बाद नये ड़्यूओ की गंध से महकता गुनगुना रहा था। उसके हाव -भाव उसका उत्साह छिपाने में असमर्थ थे।
उसने इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि याशी अभी तक बिस्तर पर ही है।
"मैं चलता हूँ ", आज दफ्तर थोड़ा जल्दी जाना है। नाश्ता और लंच बाहर ही कर लूँगा ।
इससे पहले कि वह कुछ सोच पाती, कुछ कह पाती, दरवाजा बंद होने की आवाज आई। गौरव जा चुका था।
पाँच वर्ष पूर्व, गौरव और उसने एक ही काॅलेज से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की और काॅलेज की फेयरवेल पार्टी में संग-संग थिरकते दोनों कब एक-दूसरे को दिल दे बैठे , पता ही न चला। यौवन का उन्माद और प्रथम -प्रेम का भ्रमर उन पर मंड़राता रहा। आधुनिक सभ्यता के खुलेपन ने उन्हें एक-दूसरे के सामीप्य की पूरी आजादी प्रदान की। गौरव की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी लगते ही दोनों एक फ्लैट लेकर साथ-साथ लिव-इन-रिलेशन में रहने लगे।
याशी के परंपरावादी परिवारजनों ने बहुत समझाया। उसकी माँ उसे चेतावनी देती रहीं , "बेटी , स्त्री -पुरूष का साथ जब तक नियमबद्ध बंधन में न हो , तब तक एक तरह का व्याभिचार ही होता है। हमारी भारतीय संस्कृति में विवाह के बंधन को इसीलिए पवित्र और सुदृढ़ माना गया है क्योंकि यह स्त्री-पुरूष को केवल एक दूसरे के प्रति समर्पित रहकर समाज और परिवार के आशीर्वाद से गृहस्थ जीवनयापन की नियमबद्धध, संस्था है। ये लिव-इन रिलेशन का नया चलन और कुछ नहीं बस मित्र रहकर शारीरिक लिप्साओं की पूर्ति का माध्यम भर है। पर क्या इस रिश्ते से तुझे उसके परिवार का आशीर्वाद, सम्मान मिल पाएगा??? क्या ये तेरा दीर्घकालीन सुख और सुरक्षा सुनिश्चित कर पाएगा??
क्या तू इस रिश्ते से एक परिवार विकसित कर पाएगी???,
"अब भी मान जा बेटी", उसकी माँ बहुत गिड़गिड़ाईं- "तुझे गौरव इतना ही पसंद है तो मैं तेरे पापा के साथ उसके घर जाकर विवाह की बात करूँगी ...",
पर याशी पर तो जैसे भूत सवार था। "ओ माँ, गौरव बहुत अच्छा और आजाद खयालों का इन्सान है, वो कहता है-, " अभी जिंदगी की मौजों का मजा लेने और अपना कैरियर बनाने का समय है। शादी दकियानूसी ख़यालात है। मैं अभी मेंटली इसके लिये तैयार नहीं । यू नो याशी, लाइफ इज़ टू एन्ज्वायॅ... ",
माँ की किसी दलील का याशी पर असर नहीं हुआ था और वो बड़े उत्साह से मुंबई में गौरव के संग इस फ्लैट में रहने आगई थी। समय कैसे पंख लगाकर उड़़ गया पता ही नहीं चला , जब तक कि गौरव की उपेक्षा ने उसे हीनता और अकेलेपन के द्वंद्व में ढ़केल न दिया था...।
बड़ी मुश्किल से उस दिन उठ पाई। अल्मारी की दराज में ड़िस्प्रिन ढूँढने लगी तब गौरव के कपड़ों के बीच रखा एक सुंदर फूलों वाला लिफाफा उसके हाथ लगा, " इन्विटेशन फाॅर लंच - फ्राॅम रिया - ऑन हर बर्थड़े"।
याशी को गहरा धक्का लगा। जल्दी ही तैयार होकर वो उसी पार्टी वाली जगह पहुँच गई । जिस हाॅल में पार्टी थी उसके दरवाजे से ही गौरव किसी सुंदरी के साथ नृत्यरत दिखाई देरहा था। याशी लपकती सी वहाँ पहुँच बोली -" हाई रिया , हैप्पी बर्थड़े । आइ एम याशी, गौरव की लिव-इन पार्टनर"।
रिया का हक्का-बक्का चेहरा बता रहा था कि उसे इस बात का कोई इल्म नहीं था। गौरव से अपना हाथ छुड़ा वो फट सी पड़ी- "हाउस कुड़ यू चीट मी...??यू टोल्ड़ मी दैट यू आर सिंगल..."
" यस आइ एम सिंगल", गौरव बोला, "याशी इस माय लिव-इन पार्टनर ओनली...",
याशी के मुँह पर मानो जोर का तमाचा पड़ा, अपनी माँ की एक-एक बात उसके कानों में गूँजने लगी।
वो उल्टे पैर वहाँ से लौट आई। देर रात गौरव जब घर लौटा तो उसे ताला मिला।
याशी अपने घर लौट चुकी थी। अपने परिवार, अपनी मर्यादा और सबसे बढ़कर अपनी अस्मिता और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए । उसने तय कर लिया था कि अपने माता-पिता की पसंद से विवाह कर एक पावन, सुरक्षित, सामाजिक, पारिवारिक रिश्ते की नींव रखेगी बनिस्बत इस खोखले लिव-इन रिलेशन के जहाँ अक्सर अंत में एक लड़की ही ठगी जाती है...!
मौलिक एवं अप्रकाशित
721 शब्दों की इस रचना में एक तिहाई से ज्यादा शब्द अनावश्यक हैंI विषय बहुत अच्छा चुना है किन्तु अनावश्यक विस्तार एवं कालखंड दोष ने कथा को बेहद सुस्त गति का और बोझिल बना दिया है आ० अपर्णा शर्मा जीI बहरहाल सहभागिता हेतु अभिनन्दन स्वीकार करेंI
आ० योगराज ने सब कुछ कह दिया . आश्ह है आपने मार्ग दर्शन प्राप्त किया होगा .
कथा का विषय आपने अच्छा चुना है कथा प्रदत्त विषय से न्याय कर रही है . जिसके लिए आपको बधाई . आदरणीया अर्पणा जी . कथा बड़ी हो गई है .. संकलन में आप कसावट ला सकती हैं
आदरणीया अर्पणा जी, छोटी कहानी बढ़िया बनी है किन्तु लघुकथा विधा की विशिष्ट बुनावट से यह दूर है. इस सहभागिता हेतु हार्दिक बधाई. सादर
आद० अर्पणा शर्मा जी ,बहुत अच्छी कहानी है विषय से न्याय भी कर रही है किन्तु शिल्प पर विद्वद्जन कह ही चुके हैं मेरी तरफ से बधाई आपको
इस सद्प्रयास के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया अपर्णा जी। सुधीजनों की बातों पर ध्यान दीजिएगा।
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