आदरणीय साथिओ,
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अनुत्तरित प्रश्न (मूर्तियाॅ)
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‘‘ पापा ! बाजार के उस अंधेरे से कोने में वह क्या है ?‘‘
‘‘ अरे ! तुम्हें नहीं मालूम ? ये महामहोपाध्याय पंडित दिवाकर जी की मूर्ति है, तुम लोगों को चौथी/पांचवी कक्षा में इनके बारे में नहीं पढाया गया ?‘‘
‘‘ क्या वही, जो संस्कृत और भारतीय दर्शन के मूर्धन्य विद्वान रहे हैं और शास्त्रार्थ में उन्हें कोई पराजित नहीं कर पाया ?‘‘
‘‘ वही हैं, तत्कालीन लोगों ने उन्हें सम्मान देने के लिए उनकी मूर्ति यहाॅं स्थापित की थी । यहीं पर, एकत्रित होकर, इस मैदान में कभी धर्म सभायें की जाती थीं परन्तु म्युनीसिपल ने अब यहाॅं बाजार बना दिया है।‘‘
‘‘ लेकिन मूर्ति की यह दुर्दशा ? शायद अनेक वर्षों से कोई देखरेख नहीं। न तो आस पास ही सफाई है और न ही मूर्ति पर। अरे ! उस पर तो मकड़ियों और पक्षियों का डेरा है, ओ हो ! उनका यह कैसा सम्मान ?‘‘
‘‘ यह तो मूर्ति है, इस युग में जीवित विद्वानों का तो इससे भी बुरा हाल होता है, बेटा ! ‘‘
‘‘ लेकिन क्यों ? ‘‘
‘‘ पता नहीं , तुम इस पर रिसर्च करना।‘‘
मौलिक और अप्रकाशित
अच्छी लघुकथा है आ० डॉ टी आर सुकुल जी, हार्दिक बधाई प्रेषित हैI
बहुत सुन्दर सार्थक लघु कथा आद० सुकुल जी बहुत बहुत बधाई |
मूर्तियों द्वारा सम्मान अब क्षणिक रह गए हैं।बढ़िया प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
मुहतरम टी आर शुक्ल साहिब, प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुंदर
लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ------
एक ज्वलंत विषय को प्रदत्त विषय से जोड़ते हुए प्रभावशाली कथा लिखी है आपने ...हार्दिक बधाई आदरणीय डॉटी आर सुकुल जी
साधारण सी लघु कथा में भी कथा कहने का उद्धेश्य सफक हुआ है | बधाई साहब
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