आदरणीय साथिओ,
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प्रिय भाई सुनील जी, बेहद घिसा विषय होने के बावजूद आपके शिल्प कौशल से लघुकथा प्रभावित बनी है और प्रदत्त विषय से न्याय करती है। कथा का शीर्षक पूरी तरह स्टीक । शुभकामनाएं ।
हार्दिक बधाई आदरणीय सुनील जी।अच्छी लघुकथा।दिये गये विषय को मनोविज्ञानिक दृष्टिकोण द्वारा उजागर करती रचना।
सहारा
‘रामचरन ! ये चांदनी और कनेर कैसे एक तरफ झुके पड़े हैं?’ सुबह की गुनगुनी धूप में लॉन् की आराम कुर्सी पर पसरे पत्नी से चाय का कप पकड़ते हुए साहब का ध्यान अनायास पौधों पर पड़ा ।
‘उ रात मा आंधी के मारे साब! दुई-एक दिन मा खुदैही ठीक हुई जहिएँ!’ क्यारी की गुड़ाई करते रामचरन ने जवाब दिया।
‘गैराज से बांस ले आओ और दोनों पौधों को सहारा लगा दो।’
‘हओ साहेब!’ खुरपा छोड़ रामचरन गैराज की तरफ बढ़ा
‘राम-राम कक्का!’ गैराज में ड्राइवर रघु कार की डिग्गी खोलते हुए बोला
‘जै राम जी की रग्घू! आज तो बड़ी जल्दी आय गए? बहुरिया ठीक तो है?’
‘हमें अभी अस्पताल जाई नाही मिला है काका! कल साम कौनो मसीन बिगड़ गई फैक्ट्री मा, ऊका सामान लाने मालिक भेजे थे हमका। ई सुसरी गाड़ी हु ऐसे बखत पर धोका कर दीस। बड़ी मुस्किल से मिस्त्री मिला रात में । इस कारन वापिसी मे देर होए गई, अब आय मिला है। बस सामान धरके जाहिए रहे हैं। तुम सुनाओ काकी का बुखार उतर गया?’ उनींदे से लाल हुई आंखे मलता रघु बोला ।
“अरे बिटवा! हम गरीबन के बुखार तौ साहूकार के करज जैसन है जो चढ़त ही जात है । बड़े डागडर को ही दिखान होइ। दूई एक दिन मा पगार मिल जाई तब ले जैहै।” ठंडी आह भरते रामचरन ने कहा
‘साहब से कह का देखो तनिक। बहुत नरम दिल हैं सायद कौनों जुगाड़ लग जाए।’ सामान उठा कर लॉन् की तरफ जाते हुए रघु हौले से बोला
‘बहुत टाइम लगा दिया पहुंचने में रघु । अब जल्दी से रेलवे स्टेशन जा कर वेटिंग रूम से इंजीनियर साहब को साथ लेकर फैक्ट्री पहुंचो । कल से काम बंद पड़ा है ।’
‘नमस्ते सर! नमस्ते बीबी जी! सर मुझे तो अस्पताल जाना है। मेरी घरवाली...।’
‘ओह हां ! अभी अस्पताल में ही है वो ? अब तबीयत कैसी है उसकी? मैं फैक्ट्री मुनीम जी को फोन कर देता हूं तुम्हे कुछ रूपए दे देंगे । अच्छे से ध्यान रखना उसका और कोई जरूरत हो तो बेहिचक बता देना। अब जल्दी स्टेशन पहुंचो।’ अखबार का पन्ना पलटते हुए साहब ने कहा
‘मेहरबानी सर ।’ चेहरे पर कृतज्ञता के भाव लिए रघु उल्टे पांव लौट पड़ा।
पीछे क्यारी में बांस गाड़ने बैठै रामचरन की आंखों में चमक और हाथों में तेज़ी आ गई ।
‘आपने बहुत सिर पर चढ़ा रखा है नौकरों को । इनका तो ये आए दिन का रोना है। अभी पिछले हफ्ते ही तो आपने इसे रूपए दिए थे और अब फिर से । वैसे भी दो दिन बाद तो सैलरी देनी ही है।’ पास बैठी पत्नी थोड़ी तल्खी से बोली ।
‘समझा करो भाग्यवान! इनकी ज़़रूरतों की भट्ठी में पैसों का इंधन डालते रहना चाहिए। तभी ये लोग एहसानमंद और आश्रित बने रहते हैं । बिजनेस करने के लिए ये सब करना ही पड़ता है।’ खीसें निपोरते साहब की आवाज में शातिरता थी।
रामचरन के हाथ सहसा रूक गए एक दो पल कुछ सोचने के बाद उसने पौधों को सहारा देने के लिए गाड़े बांस निकाल फैंके और गहरी सांस भरकर फिर से गुड़ाई में जुट गया ।
(मौलिक व अप्रकाशित)
लाल हुई आंखे मलता रघु बोला ।=लाल हुई आंखे मलता हुआ रघु बोला ।
ठंडी आह भरते रामचरन ने कहा = ठंडी आह भरते हुए रामचरन ने कहा
आ. रवी जी बोली भाषा मे लिखी गयी आपकी रचना सहज प्रभाव डालती है.बधाई आपको
रामचरन के हाथ सहसा रूक गए एक दो पल कुछ सोचने के बाद उसने पौधों को सहारा देने के लिए गाड़े बांस निकाल फैंके और गहरी सांस भरकर फिर से गुड़ाई में जुट गया ।- इस एक पंक्ति ने लघुकथा के सरे मर्म को सामने ला कर रख दिया. बहुत ही बढ़िया लघुकथा लिखी है आदरणीय रवि प्रभाकर जी. मेरी ओर से ढेरों बधाई स्वीकार कीजिएगा.
अति सुंदर लघुकथा ! खूबसूरती से द्रश्य चित्रण किया है आपने सर ! उम्दा !!
आदरणीय रवि सर , आपकी यह कथा बेहद पसंद आयी | कथानक बेहतरीन लगा | हार्दिक बधाई सर |
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