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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-86

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 86वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब अख्तर शीरानी  साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|

"ये ज़माना फिर कहाँ ये ज़िंदगानी फिर कहाँ "

2122    2122   2122   212

फाइलातुन  फाइलातुन  फाइलातुन  फाइलुन

(बह्र:  बह्रे रमल मुसम्मन् महजूफ  )

रदीफ़ :- फिर कहाँ 
काफिया :- आनी (जिंदगानी, जवानी, निशानी, आनी, जानी आदि)
 

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 25 अगस्त दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 26 अगस्त दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

 

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

आद0 रवि जी सादर प्रणाम, बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही आपने। मतला भी खूबसूरत, गिरह भी अच्छा लगा। जो शेर मुझे सबसे ज्यादा पसंद आया वह
देख वाइज फिर तुझे शायद नहीं मौका मिले,
आरिज़ों से ज़ुल्फ़ की ये छेड़खानी फिर कहाँ।

उम्दा ग़ज़ल के लिए दाद के साथ मुबारकबाद क़बूलें। सादर
आदरणीय सुरेंद्र जी ग़ज़ल की सराहना और हमारी पसंद के शेर को इंगित करने के लिए हार्दिक आभार
मुहतरम जनाब रवि साहिब ,बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
आदरणीय तस्दीक साहब आप मुत्मइन हुए कोशिश कामयाब हुई । शुक्रिया आदरणीय

आ. रवि सर,,
बहुत उम्दा ग़ज़ल आपने  पेश की ...
गिरह भी खूब लगी है   और वाइज़ को नसीहत भी बेहतर है (आजकल वाइज़ ज़्यादा छेड़खानी कर रहे है..एक तो कल ही धराया है :D; मुझे तो लगता है कि हम ग़ज़ल वालों ने ही वाइजों को बिगाड़ दिया है )
ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई 

सच कहा भाई,हम शाइरों ने ही वाइज़ो को बहुत भाव देकर बिगाड़ा है, हा हा हा..
हा हा हा बहुत खूब आदरणीय नीलेश जी आपकी गुदगुदाती टिप्पणी से बहुत खुशी हुई । बहुत बहुत शुक्रिया ग़ज़ल की सराहना के लिए

बहुत प्यारी ग़ज़ल कही आदरणीय रवि सर ,शेर दर शेर मुबारकबाद कूबूल करें सादर ।

आदरणीया सुनंदा जी ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद
आ.भाई रवि जी इस बेहतरीन गजल के लिए कोटि कोटि बधाई ।

आज है जो  इस लहू में यह  रवानी फिर कहाँ

जाँ  फ़िदा कर दे वतन पर यह जवानी फिर कहाँ

 

ले अदावत की कलम जब सामने बैठा अदू

इक मुहब्बत की ग़ज़ल पर तर्जुमानी फिर कहाँ

 

बैर की आतिशकदा में गर समंदर जल गया

दोस्ती की किश्तियाँ ये  आनी जानी फिर कहाँ

 

सामने हमराज बनकर  वार पीछे से करे

लाश कंधों पे उखुव्वत की उठानी फिर कहाँ

 

वादियों को खंडहरों की लाश में तब्दील कर

ढूँढयेगा प्यार की सच्ची निशानी फिर कहाँ   

 

पत्थरों के शहर में सब झूठ के किरदार हैं

कौन लिक्खे गुड्डे गुड़ियों पर कहानी फिर कहाँ

 

जल  गए हैं जो रकाबत की तपिश की धूप में     

उन गुलों में पाक निकहत ज़ाफ़रानी फिर कहाँ

  

गर खुदा की उस अदालत में कभी पकड़े गए

सोचिये तो फ़लसफ़ा वो हकबयानी फिर कहाँ

 

काम पूरे कर सभी जो हैं अधूरे ‘राज’ तू

ये जमाना फिर कहाँ ये जिंदगानी फिर कहाँ  

------मौलिक एवं अप्रकाशित 

आदरणीया राजेश दीदी बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही आपने शेर दर शेर मुबारकबाद कुबूल करें दूसरा शेर बहुत कुछ कह रहा है ।
बैर की आतिशकदा या बैर के हमें संदेह है कुछ ।
जल गए है ....7 वा शेर बहुत अच्छा लगा ।
खुदा की उस अदालत में उस शब्द गैर जरूरी लगा दीदी खुदा की तो एक ही अदालत है । निवेदन मात्र है । गिरह भी अच्छी । इस उम्दा प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई । सादर

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