आदरणीय साथिओ,
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मुहतर्मा नीता साहिबा ,सुन्दर लघुकथा हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें।
अच्छी लघुकथा कही है आदरणीया नीता दी| हार्दिक बधाई|
हार्दिक बधाई आदरणीय नीता कसार जी।बेहतरीन लघुकथा।
सुंदर कथ्य और रोचक प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आद0 नीता जी ।
आद0 नयना कसार जी सादर अभिवादन। बढिया लघुकथा का प्रयास। पर क्या यह विषय को परिभाषित कर रहा है, मुझे सन्देह है। प्रतिभागिता के लिए बधाई
अच्छी लघुकथा है आ. नीता जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. रचना विषयानुकूल होती तो बेहतर होता. //मैं भी ना निरी बुद्धू ठहरी,बेटियाँ तो साँझी होती है ।// इस पंक्ति की आवश्यकता नहीं है. सादर.
आदरणीय नीता कसार जी इस बढ़िया लघुकथा के लिए. हार्दिक बधाई.
बहुत कसावट के साथ चुस्त संवादों में पिरोई हुई सुन्दर कथा हार्दिक बधाई आदरणीया नीता जी
मेहनत पार लगाए
शेफ़ से किताब निकालते हुए हाथ डॉक्टरेट की डिग्री के लिए तैयार की गई थीसिस पुस्तिका पर जा लगा। हिल कर वह सामने आ गई। उसे उठाया और प्यार से सहलाने लगा।
पहला पृष्ठ खोलते ही वहां मुद्रित परिजनों के प्रति समर्पित सन्देश पढ़ते हुए सीना चौड़ा हो गया।
जैसे ही आगे पढ़ना शुरु किया साक्षात दृश्य सामने उभर आए।
पिता जी कह रहे थे, “ अपनी जितनी औकात थी,उससे जियादा जोर लगा दिया भाई। अब और पढ़ाना म्हारे बस का ना है। कोई छोटी-मोटी नौकरी देख ले या काम-धंधा कर ले। अपनी तो कड़ ढिल्ली हो ली है बस।”
गर्दन झुकाए उनकी बातें सुनीं और कहा, “ठीक है जी। आगे पढूँगा तो आपसे कोई खर्चा न मांगूँगा। जैसे बन पड़ेगा खुद देख ल्यूँगा।”
इससे आगे बोलने की हिम्मत भी नहीं रही। भूगोल में स्नातकोत्तर करने के बाद भी खाली ही बैठा था घर पर। यूनिवर्सिटी में सीमित सीटें थी स्कॉलर्स की। प्रवेश परीक्षा में सर्वोच्च रैंक मिला था। मौका नहीं गंवाना था इसीलिए काम भी शुरु किया और पढ़ाई भी।
तीन साल के दौरान चौमासा,सर्दी और गर्मी सभी एक साइकिल पर घूम कर गुजारे। दूर-दूर के गांवों की मैपिंग की। उसका बढ़िया रिकॉर्ड बनाया। पूरे मनोयोग से थीसिस लिखी।
जून की झुलसाती गर्मी में साइकिल पर गांव से बीस किलोमीटर दूर,गाइड के पास तैयार थीसिस लेकर गया। डोर बेल बजायी। तो अंदर से आ रहे अधेड़ प्रोफेसर ने कहा, “ बोलो! क्या काम है?”
“जी.. नमस्ते सर। यह थीसिस पूरी कर चुका हूँ। आप देख लेते।”
“आज वक्त नहीं है कल आना।”
“जी।”
दुपहरी में वापसी की।
लगातार दस दिन ऐसे ही चला। ग्यारहवें दिन गाइड ने कहा, “कल सुबह नौ बजे आ जाना।”
अगले दिन साइकिल बर्दाश्त न कर पाई और बीच रास्ते चेन टूट गई। बमुश्किल खींच-तान करके साढ़े नौ बजे पहुँच पाया।
“मैं तेरा नौकर हूँ, पूरा दिन तेरा इन्तिज़ार करता रहूँगा? भाग यहाँ से। नहीं देखना मुझे कुछ।”
एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा। इतने दिन के धक्के,साइकिल की चेन का टूटना,गर्मी में बुरी हालत और उस पर रुक्ष व्यवहार,संयम जवाब दे गया, “ तेरे जी में क्या है?”
“कैसे बोल रहा है?”
“हाँ सही बोलूँ हूँ, बता?”
आँखों में आई चमक के साथ रौब से, “एक लाख लगेगें। ले आ।”
धीरे-से गेट से बाहर हुआ,सड़क पर आते ही, “ स्साले आ बाहर मैं देखता हूँ तुझे।”
गाइड चुप-चाप घर के अंदर घुस गया।
युनिवर्सिटी में उसके कक्ष में भी हाथापाई हो गई। अन्य प्रवकताओं ने बीच-बचाव कर गाइड बदलने की सलाह दी। ऐसा करने के लिए अर्जी देने गया तो क्लर्क बोला, “ दुर्व्यवहार के कारण तुम तो ब्लैकलिस्टेड हो चुके हो,पंजीकरण रद्द हो गया तुम्हारा।”
हृदय कुंठा से भर गया।
“आज फिर अपने इतिहास में खो गए ज़नाब?”
पीछे से पत्नी ने चुटकी ली तो तन्द्रा भंग हुई।
“ इतिहास ? हाहा.. जिसे मैं रच न सका।”
“मेहनत जो की वह तो काम आई,प्रशासनिक अधिकारी क्या यूँ ही बन गए?”
“सही कहती हो, इंसान ,इंसान के लिए बाधा खड़ी करता है,तो प्रतिभा और मेहनत से अर्जित ज्ञान उसे पार करवाते हैं।”
कहते हुए थीसिस पुस्तिका को पुनः सँभाल कर रख दिया।
मौलिक एवं अप्रकाशित
बहुत सुंदर और सार्थक सृजन। बेहतरीन शीर्षक और बेहतरीन समापन पंचपंक्ति के बीच नकारात्मक अनुभव को फ्लैशबैक में बाख़ूबी शाब्दिक करते हुए परिश्रम की सकारात्मक परिणति विषयांतर्गत बेहतरीन शिल्प में पेश की गई है। सादर हार्दिक बधाई आदरणीय सतविंदर कुमार राणा जी। हालांकि यह कथानक कहानी और उपन्यास के लिए भी उपयुक्त है!
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