आदरणीय साथिओ,
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आदरनीया नीता जी, बहुत ही शुक्रिया
बेहतरीन यथार्थपूर्ण कटाक्षपूर्ण सृजन के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब सुनील वर्मा जी। जैसी आपसे मंच अपेक्षा करता है, उस से भी बेहतर। विषयांतर्गत पूरी यथार्थपूर्ण भावपूर्ण प्रवाहमय रचना भारत के पर्यटन का अहम नकारात्मक पक्ष पेश करने में पूरी तरह सफल हो रही है।
//फ्रेंच में कहा "जे पेंसे क्यूसे तीप न्येस तरम्प (मुझे लगता है यह आदमी हमें बेवकूफ बना रहा है।)"// .. इसके साथ रचना का बेहतरीन अंतिम वास्तविक किंतु कटाक्षपूर्ण व्यंगात्मक संवाद लघुकथा को सार्थक सिद्ध करता है। तीर और तरकश का बेहतरीन अनुप्रयोग। इस हेतु विशेष बधाई।
शेष विशेषज्ञ, गुणीजन ही बता सकेंगे। शीर्षक के बारे में भी।
बहुत ही प्रभावोत्पादक लघुकथा कही है भाई सुनील वर्मा जी. अतिथि की परिभाषा भी रुतबा देखकर तय की जाती है, यह बात बिलकुल सत्य है. महेश का जवाब सुनकर औंधी पड़ी तख्ती का हँसाना इस लघुकथा की जान है. तरकश शीर्षक भी एकदम सटीक है. इस उत्तम लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें.
प्रदत्त विषय को सार्थक करती बढ़िया लघुकथा, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
अपने घर के अतिथियों में भी उनकी हैसियत के हिसाब से फ़र्क़ किया जाता है तो बाहर की बात ही अलग है. प्रदत्त विषय पर बहुत बढ़िया और प्रभावी रचना, बधाई आपको आ
तख्ती भी हकीकत से अंजान नहीं थी, हकीकत झेलते-झेलते। बढ़िया कथ्य पर आपको बधाई आदरणीय।
जनाब सुनील साहिब ,सुंदर लघुकथा हुई है ,मुबारक बाद क़ुबूल फरमायें।
आदरनीय सुनील जी, बहुत बढ़िया लघुकथा के लिए बधाई
यथार्थ! ऐसा ही होता है| आखरी पंक्ति कथा की जान है| हार्दिक हार्दिक बधाई आदरणीय सुनील भैया|
बेहतरीन लघुकथा जनाब ।
हार्दिक बधाई आदरणीय सुनील जी।बहुत अच्छी लघुकथा।
सीमाएँ
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विदेशी आक्रांता जा चुके थे।अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ता हुआ क्षत-विक्षत वह एक पात विहीन वट वृक्ष के नीचे पड़ा हुआ था। अपने लोग तसल्ली का मलहम लगाते,चले जाते।कुछ राजनेता आये।अपनी अपनी डींगों के पहाड़ खड़े कर गये।किसी ने कहा ,'अरे हमने ही तो इसे बचाया है,नहीं तो फिरंगी इसे तहस-नहस कर गये होते।' फिर कोई अपनी हाँकता कि हमी ने तो गोरों को सात समंदर पर का रास्ता दिखाया।पीठें ठोकी जा रही थीं।आत्म-वंदना आत्म-प्रवंचना का रूप ले चुकी थी।शर-ग्रथित शरीर पर लोग लकीरे खींच रहे थे,अपने -अपने इलाके तय कर रहे थे।बलिदानियों की आत्मा इन्हें धिक्कार रही थी। स्वातंत्र्य संग्राम के बचे सिपाही व्यथित थे।वे चुपचाप इन स्वार्थी और लोलुप लोगों के दुराग्रह पर पश्चाताप के आँसू बहा रहे थे।बँटवारे में बचा आधा शरीर कंपकपा रहा था।
तभी अदबकारों का झुंड तमाशबीनों की भाँति आ गया।वक्तव्य उछले।अक्षर और हर्फ़ में द्वंद्व छिड़ गया।उनकी भी सीमाएँ तय होने लगीं।शब्दों के छींटे अर्द्ध तकसीम शरीर पर पड़ने लगे।कोई कहता-- दिलासा के सब कायल हैं।कोई कहता--इच्छा सबकी होती है।किसीने हर्फ़ और वर्ण में मेल करने की बात की।भाषा के ठेकेदार भड़क गए।भाषा भाषा होती है।उससे खिलवाड़ न हो,ऐसा उनका मत था।हर शब्द की अपनी भाषा है और हर भाषा के अपने शब्द हैं,वे इसके पक्षधर थे।हाँ, आंग्ल भाषा के शब्द उपयोग में आ जायें तो कोई एतराज नहीं।घायल अर्द्ध वदन पर शब्दों के तीर घाव किये जा रहे थे।तभी एक समष्टिमूलक अदीब उधर से गुजरे।माजरा उनकी समझ में आ गया।उन्हीने कहा--
-दिलासा जो न करा दे।
-मतलब?' एक अन्य अदीब चिल्लाया।
-यानि कि खुद को ऊपर बताने की इच्छा।
-फिर उर्दू-फ़ारसी और हिंदी के शब्दों का घालमेल?
--शब्द अभिव्यक्ति के माध्यम हैं,चाहे जिस भाषा के हों।भेदभाव नहीं होना चाहिए।
-बेढ़ब की बातें हैं ये सब।भाषा और शब्दों का अनुशासन कायम रहना चाहिए,'पहले से विद्यमान लेखक मंडली ने आलाप किया।
-ओह..हहह,'एक हृदयविदारक चीख सुनाई पड़ी।
-कौन, आप कौन?' वृक्ष की जड़ के पास पड़े रक्तरंजित पाँव विहीन आधे वदन से अदीब ने पूछा।
-भारत।भारत हूँ मैं।कभी आर्यावर्त था मैं।
अदीब चौंक गया।उसने नमन के शब्द कहे जिसमें वर्ण और हर्फ़ मिले जुले थे।
लेखक मंडली ठिठोली करने लगी।
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