आदरणीय काव्य-रसिको,
सादर अभिवादन !
’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह आयोजन लगातार क्रम में इस बार सौवाँ आयोजन है.
आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ –
17 अगस्त 2019 दिन शनिवार से 18 अगस्त 2019 दिन रविवार 19 अगस्त 2019 दिन सोमवार तक
इस बार के छंद आप पर निर्भर हैं. आप अपनी रचना के छंद का सूत्रवत विधान अवश्य लिखें.
हम आयोजन के अंतरगत शास्त्रीय छन्दों के शुद्ध रूप तथा इनपर आधारित गीत तथा नवगीत जैसे प्रयोगों को भी मान दे रहे हैं. छन्दों को आधार बनाते हुए प्रदत्त चित्र पर आधारित छन्द-रचना तो करनी ही है, दिये गये चित्र को आधार बनाते हुए छंद आधारित नवगीत या गीत या अन्य गेय (मात्रिक) रचनायें भी प्रस्तुत की जा सकती हैं.
साथ ही, रचनाओं की संख्या पर कोई बन्धन नहीं है.
केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.
जैसा कि विदित है, अन्यान्य छन्दों के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती है.
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आयोजन सम्बन्धी नोट :
फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो
17 अगस्त 2019 दिन शनिवार से 18 अगस्त 2019 दिन रविवार 19 अगस्त 2019 दिन सोमवार तक, यानी दो तीन दिनों के लिए, रचना-प्रस्तुति तथा टिप्पणियों के लिए खुला रहेगा.
अति आवश्यक सूचना :
छंदोत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
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विशेष :
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मंच संचालक
सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आदाब। शतकीय छंदोत्सव में चित्राधारित समस्त कोणों पर बेहतरीन आग़ाज़ के लिए हार्दिक बधाई जनाब अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव साहिब।
आल्हा छन्द - (16,15 मात्राओं पर यति, गुरु-लघु से सम चरण का अंत हो। विषयानुरूप अतिश्योक्ति)
मन के बाल सरोवर में अब, रहती है कागज की नाव।
वर्तमान के विषम थपेड़े, सहती है कागज की नाव।।
सराबोर बारिश में होता, बचपन था कितना मासूम।
उछल-कूद वह धमाचौकड़ी, छइँछपाक मस्ती की धूम।।
उन्हीं दिनों की कथा-कहानी, कहती है कागज की नाव…
रेनकोट छाता-छतरी से, रहता था बचपन अनजान।
संग हुआ करते थे केवल, गाँव-गली के मित्र-मितान।।
मधुर-मधुर उन स्मृतियों में अब, दहती है कागज की नाव…
गलियों में पानी के रेले, दिखलाते थे अपना ताव।
उन रेलों पर नन्हें बच्चे, रखते थे कागज की नाव।।
और देखते दूर कहाँ तक, बहती है कागज की नाव…
रेनकोट में सिमटे बच्चे, गलियों पर पसरा कंक्रीट।
दिखते नहीं झुंड बच्चों के, खेल रहे जो ताली पीट।।
अगर चाहते लौटे बचपन, महती है कागज की नाव…
(मौलिक व अप्रकाशित)
आदरणीय अरुण निगम जी सादर
मन के बाल सरोवर में अब, रहती है कागज की नाव।
वर्तमान के विषम थपेड़े, सहती है कागज की नाव।। वाह बहुत खूब आदरणीय
आपकी लेखनी को नमन आदरणीय
सत्यनरायण सिंह जी आकर, लुटा गए हैं अपना प्यार।
हाथ जोड़ कर भ्राता श्री का, अरुण प्रकट करता आभार।।
गलियों में पानी का रेला, चलता दिखता देखो आज
नहर बनी ये इतनी गहरी, नाव बनाएँ तज हर काज
अरुण कहें पूरा गलियों में, पानी का अब लगे बहाव
सब बन जाओ नाविक बच्चो, ले आओ कागज की नाव।
जय-जय
प्रत्युत्तर में राणा जी का, अद्भुत अनुपम आल्हा छन्द।
सौवें आयोजन की गरिमा, ऐसे में देती आनन्द।।
भाव-घटा उमड़े जब मन में, छन्द-नदी तब करे हिलोर।
रस-वर्षा में भीगने वाला, हो जाता तब भाव विभोर।।
आभार, आदरणीय सतविंद्र कुमार राणा जी....
बचपन की हर बात निराली, कहती है कागज की नाव
अरुण निगम के मन को लेकर, बहती है कागज की नाव
कथा-व्यथा-गाथा कितनी ही अकसर रह-रह आती याद
आँखों की कोरों के बादल तभी सुलग होते आबाद
फिर कितने ही भाव लिए चुप रहती है कागज की नाव
वाह-वाह .. आदरणीय अरुण निगमजी..
काश आपकी उपस्थिति नियमित हो जाती।
सौवें आयोजन में उपस्थिति का सादर धन्यवाद
रेनकोट में सिमटे बच्चे, गलियों पर पसरा कंक्रीट।
दिखते नहीं झुंड बच्चों के, खेल रहे जो ताली पीट।।.........वाह ! सुंदर मार्मिक भाव लिए बच्चों से छिनते बचपन पर वीर छंद आधारित गीत का सुंदर बंद हुआ है.
ओढ़ समय की बरसाती अब, होती हर दिन भागमभाग ।
सूर्योदय से भी पहले नित, बच्चे जाते हैं सब जाग ।।
बचे कहाँ हैं वृक्ष जहाँ पर, दें सावन के झूले डाल ।
बारिश गर्मी सर्दी सब हैं, मौसम जिनसे बनता साल ।।
बचपन से अब दूर-दूर ही, रहती है कागज़ की नाव...
आदरणीय अरुण कुमार निगम साहब सादर नमस्कार, प्रदत्त चित्र को आल्हा छंद के माध्यम से कल और आज के बचपन में आये अंतर को दर्शाते हुए सुन्दरता से परिभाषित किया है. इस सुंदर प्रस्तुति पर बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें. सादर.
आदरणीय अरुण भाईजी
चित्र देख आल्हा लिख डाले, डाल दिए शब्दों में जान।
खूब चली कागज की नैया। खूब आपने किया बखान॥
हृदयतल से बधाई इस प्रस्तुति पर
वाह...कागज की नाव के माध्यम से आज के बचपन की विषमताओं को बहुत खूबसूरती से उकेरा है आपने आदरणीय अरुण जी। हार्दिक बधाई आपको
आ. भाई अरुण जी, सुंदर छंद हुए हैं । हार्दिक बधाई ।
सदैव की भाति आपकी रचना बहुत ही खुबसूरत और चित्र को परिभाषित करते हुए बन पड़ी है, दिल से बधाई देता हूँ आदरणीय अरुण भाई साहब.
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