परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 134वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा जनाब अज़हर इनायती साहब की गजल से लिया गया है|
"मुझे वो दे गया इक ख़्वाब देखने के लिए"
1212 1122 1212 112
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़इलुन/फेलुन
बह्र: मुज्तस मुसम्मन् मख्बून मक्सूर
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 27 अगस्त दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 28 अगस्त दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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जनाब मनोज अहसास जी आदाब, बहुत अरसे बाद आपको ओबीओ के तरही मुशाइर: में देख कर ख़ुशी हुई, ग़ज़ल पोस्ट की है तो उम्मीद है आयोजन में सक्रियता भी अंत तक दिखाएँगे:-)))
तरही मिसरे पर ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
बहुत कुछ जनाब अमीर साहिब बता चुके हैं, जो रह गया है मैं बता देता हूँ ।
'नहीं है साथ में अहबाब देखने के लिए'
इस मिसरे में 'साथ' शब्द के साथ 'में' का प्रयोग उचित नहीं होता, देखें ।
'गुज़र गई है हमारी तमाम शब काली
तुम्हारे चहरे पे इक ताब देखने के लिए'
इस शैर के ऊला में 'काली' शब्द और सानी में 'इक' शब्द भर्ती का है, ग़ौर करें ।
आदरणीय समर कबीर साहब
सादर प्रणाम
आपका आशीर्वाद हमारी पूंजी है
बहुत बहुत आभार
बहुत बहुत आभार आदरणीय
आ. भाई मनोज जी, सादर अभिवादन। गजल अच्छी हुई है।हार्दिक बधाई। गुणीजनों की सलाह से और निखर जायेगी।
मनोज साहब बहुत ही अच्छे और अलहदा अशआर निकाले है. उस्ताद साहब की बातों से इनमें और निखार आ जायेगा
आदरणीय मनोज कुमार एहसास जी बहुत बेहतरीन ग़ज़ल कही बहुत-बहुत बधाइयां
आदरणीय मनोज जी,नमस्कार
अच्छी ग़ज़ल कही,बधाई स्वीकार कीजिए।
गुणीजनों की इस्लाह के बाद और भी निखार आएगा ग़ज़ल में।
सादर।
आदरणीय मनोज ज़ी उम्दा पेशकश... गुणी जनों से सहमत
आदरणीय मनोज कुमार अहसास जी, गुणिजनों की इस्लाह के बाद ग़ज़ल बहुत अच्छी हो गई है। बधाई स्वीकार करें।
मनोज जी, ये बात ठीक नहीं है कि आप अपनी ग़ज़ल पर साथियों की टिप्पणियाँ तो मज़े से प्राप्त करें और उनकी ग़ज़लों पर कुछ न लिखें, आपकी इसी आदत के कारण मैं आजकल ब्लॉग पर आपकी ग़ज़लों पर अपनी टिप्पणी नहीं देता, ये बात पहले भी फ़ोन पर आपको स्पष्ट रूप से बता भी चुका हूँ, लेकिन लगता है आप मेरी बात एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देते हैं ।
गुलों को और भी शादाब देखने के लिए
कोई घटा से कहो ताब देखने के लिए।।
*
तरस गये हैं सभी और भी चौदहवीं के बाद
नगर में गाँव का महताब देखने के लिए।।
*
सुना है रात गये तक अधीर खुद भी रहा
वो सिर्फ मुझको ही बेताब देखने के लिए।।
*
भरी रहे यूँही आँखों में उसके नाम की नींद
"मुझे वो दे गया इक ख़्वाब देखने के लिए"।।
*
उलझ निगाह गयी क्यों लिबास पे उनकी
सभा में आये जो आदाब देखने के लिए।।
*
न सोच नींव से उल्फत सभी को यार हुई
ये भीड़ सिर्फ है महराब देखने के लिए।।
*
मौलिक / अप्रकाशित
जनाब लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ।
12 12 -1 12 2 -1 2 12 - 112
'तरस गये हैं सभी और भी चौदहवीं के बाद' इस मिसरे की बह्र 'तरस गये हैं सभी और भी' से आगे की चेक कर लें।
सुना है रात गये तक अधीर खुद भी रहा
वो सिर्फ मुझको ही बेताब देखने के लिए।। ये शे'र ख़ास पसन्द आया। गिरह भी अच्छी लगी है। सादर।
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