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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-145

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 145वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा जनाब जोश मलीहाबादी साहब की गजल से लिया गया है|

" लोग कहते हैं कि तुम ने मुझे बर्बाद किया "

2122    1122    1122    112        

 फ़ाइलातुन  फ़इलातुन  फ़इलातुन  फ़इलुन/फ़ेलुन

बह्र: रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़

 

रदीफ़ :-  किया

काफिया :- आद(बर्बाद, आबाद, आज़ाद, इरशाद, ईजाद, नाशाद, याद आदि)

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनांक 28 जुलाई दिन गुरुवार को हो जाएगी और दिनांक 29 जुलाई दिन शुक्रवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

 

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक

राणा प्रताप सिंह 

(सदस्य प्रबंधन समूह)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

ओबीओ लाइव तरही मुशायरा अंक 145 में सभी का हार्दिक स्वागत है..

शुभ-प्रभात ।

मुशायरा में शामिल होने वाले सभी प्रतिभागियों एवं सदस्यों का हार्दिक स्वागत है। 

2122-1122-1122-22/112


ज़िंदगी भर मुझे जिस शख़्स ने बर्बाद किया
वक़्त-ए-आख़िर उसे ही मैंने बहुत याद किया (1)

देने वालों ने दिए ज़ख़्म नहीं दुख इसका
ग़म तो इस बात का है आपने इरशाद किया (2)

ज़िंदगी आपने ऐसे ही गुज़ारी अपनी
ख़ुद भी ख़ुश रह न सके मुझको भी नाशाद किया (3)


जी में आया तो कभी चीख पड़े आह भरी
हमने सन्नाटे को इस तरह भी आबाद किया (4)

ख़ुदकुशी उसने नहीं की है मुझे लगता है
ज़िस्म से उसने फ़क़त रूह को आज़ाद किया (5)

तुम भी जीने के नये तौर-तरीक़े ढूँढो
मैं तो ख़ुश रहता ही हूँ औरों को भी शाद किया (6)

मैं तो आबाद हुआ उसकी बदौलत लेकिन
"लोग कहते हैं कि तुमने मुझे बर्बाद किया"(7)

यार "सालिक" तू उसे कर न सकेगा फालो
उसने जीने का सलीक़ा नया ईजाद किया (8)

* मौलिक एवं अप्रकाशित

आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन। सुन्दर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।

गिरह भी अच्छी हुई है किन्तु उसकी व तुमने सर्वनामों का प्रयोग एक ही व्यक्ति के लिए उचित नहीं है देखिएगा। सादर...

आदरणीय सालिक जी, अच्छी ग़ज़ल की बधाई स्वीकार करें

आदरणीय सालिक जी, नमस्कार

बहुत ख़ूब हुई ग़ज़ल बधाई स्वीकार कीजिये

लक्ष्मण जी की बात से सहमत हूँ

सादर

आदरणीय सालिक गणवीर जी, सुंदर गज़ल के लिए हार्दिक बधाई। लक्ष्मण धामी का सुझाव सही है। उसकी के बजाय तेरी करना ठीक रहेगा।

आदाब,  सलिक गणवीर साहब,  अच्छी गज़ल हुई है! फिर भी दूसरा  शे'र का सानी मिसरा मुझे रब्त  में नहीं लगा ।शायद आप इरशाद के अभिप्राय को लेकर भ्रम में हैं। चौथा शे'र  के ऊला में भी सुधार  की गुंजाइश है । देखिएगा । और, हाँ भाई  लक्ष्मण सिंह मुसाफिर से मैं सहमत हूँ। 

इस बयाबाँ को तेरी याद से आबाद किया 

दिल-ए-बर्बाद ने हर लम्हा तुझे याद किया

आँख भरके मुझे उसने कभी देखा भी नहीं 

कौन कहता है कि उसने मुझे बर्बाद किया 

मुड़ के देखा है मुझे उस ने चले जाते हुए 

मुद्दतों बाद किसी ने ये दिल आबाद किया 

कोई शिकवा न करूँगा मुझे इतना तो बता 

कर के बर्बाद मुझे तूने किसे शाद किया 

दिल के तारों पे वही राग उभर आया फिर 

फिर किसी ने कहीं भूले से मुझे याद किया 

उम्र भर शिकवा-कुनाँ था वो ग़रीबी पे मेरी 

उसके तानों से न दिल को कभी नाशाद किया 

जिन बहारों के लिये हम ने मिटा दी हस्ती

इन बहारों ही ने.. आ के हमें बर्बाद किया 

इस गुलिस्ताँ के फ़क़त तुम ही निगहबान नहीं 

अपने सर दे के इसे हमने भी बुनियाद किया 

सर-ए-तस्लीम है ख़म मेरा अक़ीदत से 'अमीर'  

हुक्म अल्लाह का जो 'आपने' इर्शाद किया  

"मौलिक व अप्रकाशित" 

गिरह-

तुम ने ताने जो दिये मुझको तवानाई मिली 

'लोग कहते हैं कि तुम ने मुझे बर्बाद किया' 

आदरणीय अमीर जी, अच्छी ग़ज़ल की बधाई स्वीकार करें

आदरणीय अमीर जी, नमस्कार

बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने बधाई स्वीकार कीजिये

दूसरा ख़ूब हुआ

सादर

आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' जी, सुंदर गज़ल के लिए हार्दिक बधाई।

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