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ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा अंक 67 में सम्मिलित सभी ग़ज़लों का संकलन (चिन्हित मिसरों के साथ)

परम आत्मीय स्वजन 

67वें तरही मुशायरे का संकलन हाज़िर कर रहा हूँ| इस बार का तरही मिसरा खुदा-ए-सुखन हज़रत मीर तकी मीर की ग़ज़ल से लिया गया था| मिसरे की बहर दी गई थी

फाइलुन फाइलुन मुफाईलुन (२१२     २१२    १२२२)

(बह्र: खफीफ मुसद्दस् मख्बून मक्तुअ )
जिसमे यह सवाल उठना लाजिम था कि क्या अंत में आने वाले २२ को १२२ की तरह बांधा जा सकता है क्या क्योंकि खुद मीर ने ऐसा किया है| तो यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि कई जगह इस बहर की तख्ती निम्न प्रकार से भी मिलती है जहां पर अंतिम रुक्न फेलुन को फइलुन करने की छूट रहती है| 

फाइलातुन मुफाइलुन फेलुन 

(बह्र: खफीफ मुसद्दस मख्बून मक्तुअ)
दोनों ही सूरतों में जिहाफत से बहर नहीं बदलती है इसलिए यह कहा जा सकता है कि अंत के २२ को ११२ करना जायज माना जा सकता है| इसलिए ऐसे मिसरों को लाल रंग से दूर रखा गया है|
मिसरों को दो रंगों में चिन्हित किया गया है, लाल अर्थात बहर से खारिज मिसरे और हरे अर्थात ऐसे मिसरे जिनमे कोई न कोई ऐब है|
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मिथिलेश वामनकर

क्या बताएं, कहाँ से उठता है,
दर्द जब जिस्मो-जाँ से उठता है।

कोई पूछो न हाल महफ़िल का,
कौन, कैसे, कहाँ से उठता है?

दी समन्दर को बददुआ किसने?
खून मौज़े-रवाँ से उठता है ।

चाहे जिसकी ज़मीन पर कहिये,
शे’र अपने बयाँ से उठता है।

जो कि ममता हमेशा बरसाए
अब्र वो सिर्फ माँ से उठता है।

पैर रहते ज़मीन पर, उसका
हौसला आसमाँ से उठता है।

खोल देता है आँखें मंज़िल की
गर्द जब कारवाँ से उठता है।

आग दिल में नहीं जमानो से
ये धुआँ-सा कहाँ से उठता है।

इक सदा दे अगर मदीना तो
शोर इश्क़े-बुताँ से उठता है।

ताक़तें झूठ को मयस्सर तो
सच कहाँ नातवाँ से उठता है।

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Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan"

सर कोई जब गुमाँ से उठता है।
शब्द रावण ज़ुबाँ से उठता है।।

आदमी धन बटोरता लेकिन।
लकड़ियों पर जहाँ से उठता है।।

जा के देखो मशान घाटों पर।
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है।।

पूछिये मत सुखननवाज़ी क्या।
भाव मन में कहाँ से उठता है।।

पीर का ताप सर पे चढ़ता जब।
तेज़ तूफ़ाँ यहाँ से उठता है।।

बूँद आँखों की, स्याही बनती है।
औ कलम के बयाँ से उठता है।।

आग सीने में इक जलाती है।
नूर तब तो शमाँ से उठता है।।

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ASHFAQ ALI (Gulshan khairabadi)

ये जो शोला बयाँ से उठता है
कब दिले शादमां से उठाता है

कांप जाता है दिल हमारा भी
शोर जब आसमां से उठता है

ले के जाता है झोलियाँ भर भर
जो तेरे आस्तां से उठता है

बोझ दिल पर जो है ग़मों का वो
अब कहाँ नातवां से उठता है

इक जगह हो तो हम बताएं तुम्हें
दर्द जाने कहाँ से उठता है

छोड़ जाता है मालोजर अपना
आदमी जब जहाँ से उठता है

कोई पूछे तो हम बतायें उसे
"ये धुआँ सा कहाँ से उठता है"

मिट गया वो जहाँने हस्ती से
जो भी तेरे मकां से उठता है

शोर 'गुलशन' बपा है हर जानिब
कौन आख़िर यहाँ से उठता है

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Samar kabeer

सच कहूँ तो,ज़बाँ से उठता है
और तूफ़ाँ कहाँ से उठता है

शौर कैसा ये सारी महफ़िल में
मेरे तर्ज़-ए-बयाँ से उठता है

हम भी होंगे वहीं,समझ लेना
नारऐ हक़ जहाँ से उठता है

उनकी बातों में है कशिश ऐसी
जाके कोई वहाँ से उठता है

क्यूँ बिछाते हो तुम सफ़-ए-मातम
जब कोइ दरमियाँ से उठता है

क़ह्र बनकर ब सूरत-ए-बादल
इक धुआँ आसमाँ से उठता है

यार सोचो ज़रा ये कोह-ए-ग़म
क्या किसी नीम जाँ से उठता है

हम ने देखा है ,रोज़ इक फ़ितना
कूचऐ दिलबराँ से उठता है

मौसम-ए-गुल की आबियारी को
"ये धुआँ सा कहाँ से उठता है"

देखे दुनिया कि अम्न का पर्चम
मैरे हिन्दौस्ताँ से उठता है

'मीर'-ओ-'ग़ालिब' तो जा चुके लोगो
अब "समर" भी जहाँ से उठता है

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गिरिराज भंडारी

जब कोई कारवाँ से उठता है
साथ कौन इस जहाँ से उठता है

बेबसी बढ़ के तोड़ दी हद क्या ?
नाला क्यूँ अब ज़ुबाँ से उठता है

बुझ गई आतिशे निहानी जब
“ये धुँआ सा कहाँ से उठता है”

बद दुआयें न खोज लें अल्फ़ाज़
दर्द ज़ख़्में निहाँ से उठता है

आइना क़्या दिखा दिया, हमने
रिश्ता अब दरमियाँ से उठता है

उस्तवारों से कह सँभल जायें
शोर अब नातवाँ से उठता है

अर्श तक सब उठे ज़मींनों से
कौन कब आसमाँ से उठता है

तब हक़ीक़त है रू ब रू आती
ज़ेह्न जिस दम गुमाँ से उठता है

तब कली बोलिये करे भी क्या
जब्र जब बाग़बाँ से उठता है

लफ़्ज़ उठ कर ज़बाँ से यूँ आये
तीर जैसे कमाँ से उठता है

आपसी जब समझ न हो काइम
तब सुकूँ आस्ताँ से उठता है

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Ganga Dhar Sharma 'Hindustan'

जो जहाँ भी जहाँ से उठता है .
तो ज़नाजा वहाँ से उठता है .

बात पूरी नहीं करी तो फिर.
अक्द तेरी जबां से उठता है.

आब ही तो है जान मोती की .
भाव उसका वहाँ से उठता है.

कश्तियाँ डूब डूब जाती हैं.
यह बवंडर कहाँ से उठता है .

बस्तियां खाक ही न हो जाये.
ये धुँआ सा कहाँ से उठता है.

आग से खेलता भला क्यां है.
ये पतंगा कहाँ से उठता है.

इल्म तो 'हिन्दुस्तान' से आया .
शोर सारे जहाँ से उठता है.

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जयनित कुमार मेहता

जब सियासी ज़बां से उठता है
मुद्दआ आसमां से उठता है

याद रहता नहीं खुदा उसको
जैसे ही वो अजां से उठता है

तोड़ हर एक रिश्ता,बेटी का
दाना बाबुल के यां से उठता है

ठूँठ हो जाते हैं शजर बूढ़े
पर न साया मकां से उठता है

ठोकरों के सिवा मिला भी क्या
कोई इतने गुमां से उठता है

आदमी बोझ बांधकर, आखिर
छोड़ सबकुछ,जहां से उठता है

देख तो दिल कोई जला क्या फिर
"ये धुंआँ-सा कहां से उठता है"

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शिज्जु "शकूर"

ज़लज़ला जिस बयाँ से उठता है
वो किसी दास्ताँ से उठता है

ख़्वाब तो ख़ाक हो गये थे फिर
‘ये धुआँ सा कहाँ से उठता है’

नक़्श हटता नहीं वो आँखों से
तेरा ग़म जिस निशाँ से उठता है

ज़ख़्मे-दिल फिर हरा हुआ शायद
दर्द सा जिस्मो-जाँ से उठता है

एक दिन की नहीं है ये तासीर
सख़्त-जाँ इम्तिहाँ से उठता है

कितने किस्से दबे हुए होंगे
कोई पौधा जहाँ से उठता है

दिलजला होगा वो सरे महफ़िल
यक-ब-यक दरमियाँ से उठता है

नूर के पस फ़सुर्दा चेहरे हैं
जाने क्या शम्अ-दाँ से उठता है

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दिनेश कुमार

न तो दिल से न जां से उठता है,
दर्द फिर ये कहाँ से उठता है

मैं अभी खुद समझ नहीं पाया
'यह धुआँ सा कहाँ से उठता है'

नींव ढहती है तब मरासिम की
जब यकीं दरम्यां से उठता है

जानते ख़ूब हैं वो बार-ए-ग़म,
कब दिल-ए-नातवाँ से उठता है

है यही रास्ता तरक्क़ी का
आदमी इम्तिहाँ से उठता है

रात दिन इक अजब सा शोर मियां,
दिल के सूने मकाँ से उठता है

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नादिर ख़ान

दर्द इतना कहाँ से उठता है
ये समझ लो की जाँ से उठता है

सबसे आँखें चुरा रहा था मै
गम मगर अब जुबां से उठता है

बन के अजगर निगल न जाए हमें
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है

दिल गुनाहों से भर गया सबका
अब भरोसा जहाँ से उठता है

वो असर एक दिन दिखायेगा
शब्द जो भी जुबां से उठता है

आग लालच की खा गयी सबको
अब धुआँ हर मकाँ से उठता है

सूख जायें न अब मेरे आँसू
तू मेरे आस्तां से उठता है

हल किये थे बड़े बड़े मसले
वो हुनर अब जहाँ से उठता है


याद किरदार फिर वही आया
जो मेरी दास्तां से उठता है

फिर कोई वस्वसा नहीं होता
न्याय जब नकदखाँ से उठता है

आग दिल की तो बुझ गई नादिर
बस धुआँ ही यहाँ से उठता है

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Tasdiq Ahmed Khan

जो दरे जानेजाँ से उठता है /
वह वफ़ा के जहाँ से उठता है /

कब नज़र की ज़बां से उठता है /
इश्क़ दिल के मकाँ से उठता है /

दूरियाँ खुद बख़ुद नहीं बढ़तीं
शक गुमाँ दरम्याँ से उठता है /

ज़ुल्म की हद न पार कर माली
शोर सा गुलसिताँ से उठता है /

पूछते हैं जला के दिल मेरा
यह धुंआ सा कहाँ से उठता है /

मुल्क में हर फ़साद ऐ लोगों
पेशवा के बयाँ से उठता है /

शोख़ उनकी नज़र जहाँ जाये
शोरे महशर वहाँ से उठता है /

हुस्न फिर इश्क़ को परखता है
जूं हि वह इम्तहाँ से उठता है /

पास कोई नहीं बिठाएगा
क्यूँ तु उस आस्ताँ से उठता है /

तू दरे यार पे झुका दे सर
मुज़्तरिब क्यूँ यहाँ से उठता है /

आह तस्दीक़ जब भरे मुफ़लिस
हश्र एक आसमां से उठता है /

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Ahmad Hasan

यार जब भी यहाँ से उठता है /
जी तो अपना जहाँ से उठता है /

वक़्त कैसा है आज बेढंगा
शोला अब जो धुंआ सा उठता है /

जूत दो चार उसके तो जड़ दे
देखो दिल उसका माँ से उठता है /

थाम बैकुंठ लेता है उसको
जो तेरे आस्तां से उठता है

दर्दे दिल को हकीम क्या समझे
ये तो सोज़े निहां से उठता है /

अपनी बस्ती में कोई है तो नहीं
यह धुंआ सा कहाँ से उठता है /

यार का बोझ देख तो ऐ दोस्त
शुक्र है नातवाँ से उठता है /

बात हर एक ज़बाँ पे है अपनी
अब तो जी राज़दाँ से उठता है /

आप जिस राह से गुज़रते हैं
एक धुंआ सा वहां से उठता है /

तेरे घर का धुवांसा ऐे अहमद
क्यूँ मेरे ही मकाँ से उठता है /

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Nilesh Shevgaonkar

मौसम-ए-गुल खिज़ां से उठता है
हर कोई इम्तिहाँ से उठता है
.
जब यकीं पासबाँ से उठता है,
तब ठिकाना वहाँ से उठता है.
.
उन से मिलकर ये पूछना है मुझे,
यूँ कोई दरमियाँ से उठता है?
.
हरकतें उन की, सर झुकाती हैं,
शोर, उन के बयाँ से उठता है.
.
ख़ाक से ख़ाक का मिलन है बस,
जिस्म कब इस जहाँ से उठता है?
.
बस्तियों को जला के पूछते हैं,
“ये धुआँ सा कहाँ से उठता है”
.
अपना ईमान और दुआ माँ की,
आज भी सर गुमाँ से उठता है.
.
है पुरानी शराब सा ये सुरूर,
जो ग़ज़ल की ज़ुबां से उठता है.
.
शम्स बन पाता है वही ज़र्रा,
ख़ुद की जो आस्ताँ से उठता है.
.
फिर हुआ तीरगी का मुँह काला
‘नूर’ सारे जहाँ से उठता है.

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SHARIF AHMED QADRI "HASRAT"

ज़ुल्म जब जब जहाँ से उठता है
ज़लज़ला फिर वहां से उठता है

रिज्क इतना ही था यहाँ अपना
काफ़ला अब यहाँ से उठता है

फिर किसी का जला है घर शायद
ये धुआं सा कहाँ से उठता है

वो कहीं भी सुकूं नहीं पाता
जो तेरे आस्तां से उठता है

कौन करता है अब वफ़ादारी
अब भरोसा जहाँ से उठता है

अब्र तो दूर तक नहीं हसरत
शोर क्यों आसमां से उठता है

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Sheikh Shahzad Usmani


बोझ कब नौजवां से उठता है,
बुझ चुका मन कहां से उठता है।

बोल तो चुभ गये दिलों में अब,
लफ़्ज़ दिल की ज़ुबां से उठता है।

लोग कर ही गये पलायन सब,
प्रश्न उजड़े मकां से उठता है।

रोज़ बर्दाश्त क्यों करें शोषण,
प्रश्न अब तो ज़ुबां से उठता है।

कौन करता विवाद धर्मों पर,
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है।

स्वच्छता रह सके मगर कैसे,
प्रश्न हर एक मकां से उठता है।

ग़ौर करिये, मग़र अराजक पर,
शक़ कभी दरमियां से उठता है।

नेक सीरत बना सकी किसकी,
प्रश्न यह आज मां से उठता है।

इश्क़ का यह जुनूं बढ़ा कैसे,
इक नज़र की ज़ुबां से उठता है

जोश, ज़िंदा दिली रखे हर दम,
मर्द हर इम्तिहां से उठता है।

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laxman dhami

बोझ जितना भी माँ से उठता है
उतना कब इस जहाँ से उठता है

आ गई फिर से रोशनी दिल में
देख पर्दा कहाँ से उठता है

रूह जन्मों से यार सोई सी
जिश्म लेकिन अजाँ से उठता है

बश्तियों का निशाँ नहीं कोई
‘‘ये धुआँ सा कहाँ से उठता है’’

सोचना तुम हमीं से रिश्ता कुछ
दर्द जिस दास्ताँ से उठता है

काम ये गुलफिशाँ का यारों बस
नाज कब बदगुमाँ से उठता है

अश्क रूकते हैं यार पलकों में
दर्द जब नागहाँ से उठता है

प्यार माँ सा जहाँ मिले हरदम
कौन उस आस्ताँ से उठता है

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Yogendra Jeengar

पूछते हो कहाँ से उठता है,
जोश तो कारवाँ से उठता है|

जब फसाना मिला तो इंसाँ फिर,
भूल जाता जहाँ से उठता है|

दूर जाओ कहीं भी ये सच है,
हर जनाजा मकाँ से उठता है|

आग खुद ही लगाके मत पूछो,
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है|

जब हुआ डूबके तो ये जाना,
दरअसल प्यार जाँ से उठता है|

सच कहूँ आज "यश" ज़माने में,
हो अदब बस वहाँ से उठता है|

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डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव

कौन है जो यहाँ से उठता है ?
आदमी है जहाँ से उठता है

जानकर बार बार जो गिरता
वह सदा आसमाँ से उठता है

एक मजहब परस्त बंदा तो
रोज मेरी अजाँ से उठता है

है बुझा कब से दिल का चूल्हा
ये धुआं सा कहाँ से उठता है

गर्त्त में रोज ही गिरा करता
रोज सूरज वहाँ से उठता है

जो हुनरमंद है अंधेरे में
वह कभी तो निहां से उठता है

आदमी का है जब समय आता
वह मकाँ से दुकाँ से उठता है

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मोहन बेगोवाल

आँखों से यां जुबाँ से उठता है
दर्द बता कहाँ से उठता है

वो जैसी जिन्दगी निभायेगा
साथ उस के जहाँ से उठता है

उम्र भर घर रहा था जो अपना
बन जनाजा मकां से उठता हैं

राज तो झूठ का है सब पासे
सच लगे क्यूँ बयाँ से उठता है

पूछते हैं बहाने से मुझ को
"ये धुआं सा कहाँ से उठता है"

याद उस को रखे जमाना भी
मर्द जो कारवां से उठता है

बात इंजाम तक लियाएँगे
कोई कब दरमियाँ से उठता है

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अजीत शर्मा 'आकाश'

मेरे ही आशियां से उठता है ।
और शोला कहाँ से उठता है ।

बिजलियाँ मेहरबान हैं शायद
जो धुआँ गुलसितां से उठता है ।

जगमगाती है रात की क़िस्मत
चाँद जब आसमाँ से उठता है ।

उठ रही है नज़र तुम्हारी या
तीर कोई कमां से उठता है ।

हार जाते है आँधी-तूफ़ां भी
प्यार जब जिस्मो-जां से उठता है ।

चाँद करने लगा है मनमानी
इनक़्लाब आसमाँ से उठता है ।

कोई जा के उसे जगाये तो
शोला उसके मकां से उठता है ।

जाने जाता है किस जहां में वो
कोई जब इस जहां से उठता है ।

यूँ तो सब ठीक है, मगर फिर भी
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है

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jaan' gorakhpuri

वो शबेगम कि जाँ से उठता है
दाग-ए-दिल कहकशाँ से उठता है

पर्दा ही पर्दा है उठाये चश्म
देखना है कहाँ से उठता है

खोल दी किसने जुल्फ़-ए-नागिन ये?
फन कोई आसमां से उठता है

तेरे आगे मेरा वजूद कि ज्यूँ
गर्द-ए-पा कारवाँ से उठता है

ऐसे लूटा करारे दिल तौबा
शोर आहों फुगाँ से उठता है

इश्क़ में है बहिश्त दुनिया, गर
इश्क़ सूदो जियां से उठता है

बुझ गया क्या चराग फिर कोई
ये धुँआ सा कहाँ से उठता है

देख ली सब जफ़ायें तेरी अब
“जान” तेरा जहाँ से उठता है

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Ravi Shukla

दर्द जब जिस्मो जाँ से उठता है
तब भरोसा जहाँ से उठता है

इश्क में हासिले मुहब्बत का
दर्द कब नातुवाँ से उठता है

अस्ल की हो किसे खबर देखो
जब धुवाँ दास्ताँ से उठता है

तुम नही हो जो रोक लेते थे
अब मुरीद आस्ताँ से उठता है

कुछ खबर भी है बोलने वालो
एक तूफ़ाँ बयाँ से उठता है

कौन लूटे है आफ़ियत मेरी
शोर आबे रवाँ से उठता है

कोई बतलाये तो कहाँ हूँ मैं
नाला मेरे गुमाँ से उठता है

ढूँढिये अस्ल के निशाँ अपने
रब्त इक कहकशाँ से उठता है

जान देकर ही जान छूटेगी
फलसफा इम्तिहाँ से उठता है

देखना है उदास रातों का
चाँद किस आसमाँ से उठता है

ज़िदगी राख हो गई कब की
ये धुवाँ सा कहाँ से उठता है

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Sushil Sarna

आदमीं जब जहां से उठता है
इक धुंआ आसमां से उठता है !!१!!

ख्वाब सब ख्वाब से ही रह जाते
दर्द जब दिल की जाँ से उठता है!!२!!

अब भरोसा नहीं लकीरों पे
अब यकीं हर निशाँ से उठता है!!३!!

जल चुका जिस्म भी, न जाने फिर
"ये धुआँ सा कहाँ से उठता है"

घोंसलों में कहाँ परिंदे हैं
आदमी हर मकां से उठता है

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सीमा शर्मा मेरठी


जब यकीं दरमियाँ से उठता है
एक रिश्ता वहाँ से उठता है।

रोती है क़ायनात ये सारी
जब फ़रिश्ता जहाँ से उठता है।

शोर वो कान खोल दे सबके
जो कलम की ज़बाँ से उठता है।

धुंधली धुंधली दिखे हरिक शय ही
जब धुआँ आसमाँ से उठता है।

दश्त में आग लग गयी क्या फिर
"ये धुआँ सा कहाँ से उठता है ।"

सांस सब थाम कर ज़रा बैठो
शेर दिल के मकाँ से उठता है।

आखिरी सीन पे पहुंच कर ही
पर्दा हर दास्ताँ से उठता है।

तन का जलता है कागज़ी पैकर
जब कोई कारवां से उठता है।

आग जलती नहीं अगर कोई
फिर धुआँ क्यूँ यहां से उठता है।

होगा कोई न कोई तो घायल
तीर जब भी कमां से उठता है।

एक बस तेरे ही नही "सीमा"
दर्द हर दिल जवाँ से उठता है।

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rajesh kumari

कौन कैसे कहाँ से उठता है
हर कोई इस जहाँ से उठता है

जिस्म में रूह कब रुकी बोलो
ये भरम जिस्म जाँ से उठता है

इश्क महफ़ूज है वहाँ कैसे
दर्द कूँ-ए-बुताँ से उठता है

छोड़ दे वो गुलाम को क्यूँ कर
फायदा नातवाँ से उठता है

राह आबाद हो गई समझो
शोर फिर कारवाँ से उठता है

क्या कहीं ख़ाक हो रहे अरमां
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है

खुश रहें प्यार के सभी दुश्मन
लो जनाज़ा यहाँ से उठता है

तब नहाती है रात पूनम की
नूर जब कहकशाँ से उठता है

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मिसरों को चिन्हित करने में कोई गलती हुई हो अथवा किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो अविलम्ब सूचित करें|

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Replies to This Discussion

आदरणीय राणा साहिब ,आदाब।

आदरणीय निवेदन है कि मेरे द्वारा प्रस्तुत ग़ज़ल में लाल रंग से चिन्हित मिसरों की त्रुटि बता उसके निवारण हेतु मार्दर्शन कर अनुग्रहित करें। आपके मार्गदर्शन से मेरे सृजन को राह मिलेगी। धन्यवाद

संशोधित ग़ज़ल कमेंट्स में थी शायद उस पर नज़र न गयी हो।
यहाँ पेश करता हूँ।
संशोधित रचना
.
मौसम-ए-गुल खिज़ां से उठता है
हर कोई इम्तिहाँ से उठता है
.
जब यकीं पासबाँ से उठता है,
तब ठिकाना वहाँ से उठता है.
.
उन से मिलकर ये पूछना है मुझे,
यूँ कोई दरमियाँ से उठता है?
.
हरकतें उन की, सर झुकाती हैं,
शोर, उन के बयाँ से उठता है.
.
ख़ाक से ख़ाक का मिलन है बस,
जिस्म कब इस जहाँ से उठता है?
.
बस्तियों को जला के पूछते हैं,
“ये धुआँ सा कहाँ से उठता है”
.
अपना ईमान और दुआ माँ की,
आज भी सर गुमाँ से उठता है.
.
है पुरानी शराब सा ये सुरूर,
जो ग़ज़ल की ज़ुबां से उठता है.
.
शम्स बन पाता है वही ज़र्रा,
ख़ुद की जो आस्ताँ से उठता है.
.
फिर हुआ तीरगी का मुँह काला
‘नूर’ सारे जहाँ से उठता है.

आदरणीय नीलेश जी संशोधित ग़ज़ल प्रतिस्थापित कर दी गई है|

आदरणीय राणा साहिब अनुरोध है की मेरी संशोधित ग़ज़ल को मेरी संकलित ग़ज़ल के स्थान पर प्रतिस्थापित कर अनुग्रहित करें। आशा है ये अब आपके मानदंडों के अनुरूप होगी। धन्यवाद सर।

आदमीं जब जहां से उठता है
इक धुंआ आसमां से उठता है !!१!!

ख्वाब सब ख्वाब से ही रह जाते
दर्द जब दिल की जाँ से उठता है!!२!!

अब भरोसा नहीं लकीरों पे
अब यकीं हर निशाँ से उठता है!!३!!

जल चुका जिस्म भी, न जाने फिर
"ये धुआँ सा कहाँ से उठता है"!!४!!

घोंसलों में कहाँ परिंदे हैं
आदमी हर मकां से उठता है !!५!

आदरणीय सुशील जी संशोधित ग़ज़ल प्रतिस्थापित कर दी गई है|

आदरणीय राणा साहिब बन्दे की प्रस्तुति पर नज़रे करम करने का तहे दिल से शुक्रिया। 

   

 संशोधित ग़ज़ल

आँखों से यां जुबाँ से उठता है

दर्द कब ये  कहाँ से  उठता  है

जो कोई जिन्दगी निभाएगा 
साथ उस के जहाँ से उठता है

उम्र भर घर रहा था जो अपना
बन जनाजा मकां से उठता हैं

राज तो झूठ का है सब पासे
सच लगे क्यूँ बयाँ से उठता है

पूछते हैं बहाने से मुझ को
"ये धुआं सा कहाँ से उठता है"

याद उस को रखे जमाना भी
मर्द जो कारवां से उठता है

बात इंजाम तक लियाएँगे
कोई कब दरमियाँ से उठता है

आदरणीय राना प्रताप जी आदाब, आपसे निवेदन है कि मेरे आठवें शेर को ,इस शेर से बदल दें ।

"मसअले प्यार से हुये थे हल

वो हुनर अब जहाँ से उठता है"

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Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
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Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
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Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
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अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
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Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
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Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
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