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प्रदत्त विषय पर जानदार और शानदार कथा बुनी है आपने आदरणीया मीना जी ,बधाई इस सशक्त रचना कर्म के लिए आपको
हार्दिक आभार आदरणीय प्रतिभा पांडे जी
आदरणीय मीणा जी प्रदत विषय पर मन को झकझोरती सुंदर संदेशप्रद लघुकथा बनी है , हार्दिक बधाई स्वीकर करें।
हार्दिक आभार आदरणीय सुशील सरना जी
हार्दिक आभार आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी
हार्दिक बधाई आदरणीय मीना जी!
प्रदत्त विषय पर बहुत बढ़िया रचना , बधाई इस उम्दा रचना के लिए आ
नारी का कोमल मन जितनी जल्दी उग्र होता है उतनी ही तीव्रता से पिघल भी जाता है ।
यही कारण है कि सदा से कुटिलताओं और छलावों के हाथों वह शिकार होती रही है।
वो बौद्धिक स्तर पर कभी मात नहीं खाती है।
वो हमेशा आपने कोमल मन के द्वारा ही घात खाती है।
ढेरों बधाई स्वीकार करें आदरणीया मीणा पाण्डेय जी इस सार्थक लघुकथा के लिए। सादर
आयोजन में समीचीन प्रस्तुति हेतु हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ आदरणीया मीनाजी.
शतरंज़ की चाल
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"निलाद्रि बाबू, साहित्य-सर्जन घोर साधना का प्रतिफल है, इसमें समझना क्या है ? इस साधना में दीर्घकालिक लगन न हो तो सब गुड़, समझिये, गोबर !.. फिर हम तो वैसे भी किसी राजनीति वग़ैरह से दूर ही रहते हैं, आप तो जानते ही हैं !"
"क्या बोलते हैं अच्युत बाबू ? आपकी नज़र में संस्था का.. इसके योगदान का.. कोई महत्त्व है या नहीं ? .. विचारधारा का कोई वज़ूद है, या नहीं ?" - निलाद्री बाबू अच्युत बाबू के ऊपर लगभग चीखने लगे थे - "..आपको ये नाम, ये यश मंच माहौल.. इज़्ज़त शोहरत.. सारा कुछ.. क्या आपकी कलमघिसाई पर मिला है ? .. प्रतिबद्धता.. विचारधार के प्रति समर्पण.. इनसबका कोई मतलब है या नहीं ? आप तो पूरा कृतघ्न निकले भाई !"
अच्युत बाबू की आँखें विस्फारित हो गयीं - "क्या ? .. तो मेरा लेखन.. सर्जन.. शब्द-साधना.. इन सबकी कोई भूमिका नहीं है ?"
"इनकी भूमिका ? वेरी गुड ! अच्युत बाबू, कौड़ी के तीन नहीं तैंतालिस मिलते हैं, तैंतालिस.. कलम घिस-घिस के मर जाने वाले .. होश में आइये ! दो घण्टे से आपको यही समझा रहा हूँ मैं !.. "
अच्युतबाबू होश में क्या आते, निलाद्रि बाबू ने तो मानों उनको उनकी औकात ही बता दी थी. अच्युत बाबू का माथा जैसे सुन्न पड़ता जा रहा था. तभी वे एकदम से उजबुजाते हुए बोले - "अब क्या करना है, सो बोलिये.. नहीं-नहीं, कैसे करना है, ये बताइये.."
"सोही तो.." - निलाद्रि बाबू बिना लाग-लपेट के बोलने लगे - "कल रवीन्द्र कला निकेतन में हम समिति के सभी चार लोग अपनी-अपनी पुरस्कृत किताब की होली जला कर अपना सम्मान लौटायेंगे. अपना प्रतिकार ऐसे ही होगा. देश का माहौल, समझिये, पूरा दारुन है आज.. दुर्दिन आ गया है, दुर्दिन ! .. समझे ?"
अच्युत बाबू मानों पत्थर हो गये थे. निलाद्रि बाबू के इस ’समझे’ का उन्होंने कोई ज़वाब नहीं दिया. निलाद्रि बाबू तेज़ कदमों से बाहर निकल गये. तभी उनके सेल-फोन की घण्टी बजी - "हाँ हाँ हाँ, मान गये हैं !.. मगर क्या आदमी है ये साहब ! .. पूरा ऊँट है ऊँट ! .. सीधा तो सोचता ही नहीं.. सीधा चलने की तो बात ही छोड़िये.."
विचारधारा-विरोध को लेकर निलाद्रि बाबू का दिमाग़ आगे की चालों को साधने की जुगत लगाने में भिड़ गया. एक्सलेटर पर कसाव क्या बना, उनकी बाइक और तेज़ हो गयी.
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(मौलिक और अप्रकाशित)
समयानुसार विषय पर जो दृश्य खींचा है आपने आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी, वो अद्भुत है, लेखक की अनिच्छा परन्तु मजबूरी का शिकार होकर पुरस्कार लौटाना ही है और स्वयं की साधना की होली भी जलानी है| इस रचना के लिए सादर बधाई स्वीकार करें आदरणीय|
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