वह समय था
जब हम जाते थे माँ के साथ
नीरव-विजन मंदिर में
देव-विग्रह के समक्ष
सांध्य-दीप जलाने
क्रम से आती थी गाँव की
अन्य महिलाएं
मिलता था तोष
एक अनिवर्चनीय सुख
जबकि नहीं देते थे भगवान्
कुछ भी प्रत्यक्षतः
सिर्फ रहते थे मौन
आज वही विग्रह
करते है अवगाहन रात भर
ट्यूब–लाइट की दूधिया रोशनी मे
नहीं आती अब वहां ग्राम की बधूटियां
पर उपचार, देव-कार्य करते हैं
एक उद्विग्न कम उम्र के…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 27, 2016 at 11:04am — 1 Comment
कुछ भी
अनुपयोगी नहीं है
उसके लिए
सभी पर है
उसकी निगाहें
गहन कूड़े से भी
बीन और लेता है छीन
वह
प्राप्य अपना
जो है जगद्व्यव्हार में
वह भी
और जो नहीं है वह भी
बीन लेगा एक दिन वह
पेड़ –पौधे, नदी=-पर्वत
और पृथ्वी
यहां तक की जायेगा ले
सूरज गगन, नीहार, तारे
चन्द्र भी
ब्रह्माण्ड के सारे समुच्चय
लोग कहते हैं प्रलय
कहते रहे
किन्तु तय है
बीन…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 14, 2016 at 7:22pm — 4 Comments
संध्या के बाद पूर्व ऊषा तक जो निशि भाग चुना मैंने I
उस शब्द-हीन सन्नाटे में ईश्वर का राग सुना मैंने II
पुच्छल तारे की थी वीणा
शशि-कर के तार सजीले थे
उँगलियाँ चलाता था मारुत
रजनीले लोचन गीले थे
सरगम संगीत प्रवाहित था अपना प्रतिभाग गुना मैंने I
संध्या के बाद पूर्व ऊषा ---------------------------------
मुखरित होता है मौन कभी
नीरवता में भी रव होता
धरती…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 6, 2016 at 2:54pm — 8 Comments
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