अतुकांत - दवा स्वाद में मीठी जो है
*********************************
मोमबत्तियाँ उजाला देतीं है
अगर एक साथ जलाईं जायें बहुत सी
तो , आनुपातिक ज़ियादा उजाला देतीं हैं
कभी इतना कि आपकी सूरत भी दिखाई देने लगे
दुनिया को
लेकिन आपको ये जानना चाहिये कि ,
इस उजाले की पहुँच बाहरी है
किसी के अन्दर फैले अन्धेरों तक पहुँच नही है इनकी
भ्रम में न रहें
कानून अगर सही सही पाले जायें
तो, ये व्यवस्था देते…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 28, 2015 at 11:30am — 27 Comments
22 22 22 22 22 2
दरवाज़े पर देखो कोई आया क्या ?
अपने हिस्से का कोलाहल लाया क्या ?
ख़ँडहर जैसा दिल मेरा वीराना, भी
खनक रही इन आवाज़ों को भाया क्या ?
कुतिया दूध पिलाती है, बंदरिया को
इंसाँ मारे इंसाँ को, शर्माया क्या ?
फुनगी फुनगी खुशियाँ लटकी पेड़ों पर
छोटा क़द भी, तोड़ उसे ले पाया क्या ?
सारे पत्थर आईनों पर टूट पड़े
कोई पत्थर ,पत्थर से टकराया क्या ?
जुगनू सहमा सहमा सा…
Added by गिरिराज भंडारी on April 22, 2015 at 6:30pm — 28 Comments
तरही ग़ज़ल -
2122 2122 2122 212
तेज़ रफ़्तारी के सारे जब दिवाने हो गये
दूरियाँ सिमटीं नगर तक आस्ताने हो गये
अहदे नौ में टीव्ही ने तो यूँ मचाया है वबाल
बचपना में ही सभी बच्चे सयाने हो गये
जिस तरह फेरा ग़मों का लग रहा है घर मेरे
यूँ लगा मुझको ग़मों से दोस्ताने हो गये
अब नई तहज़ीब के पेशे नज़र , सारे ज़ईफ
नौजवानों के लिये , कपड़े पुराने हो गये
इंतख़ाबी , इंतज़ामी थे सभी वो वाक़िये
आप ये मत…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 17, 2015 at 5:30pm — 23 Comments
हार जाने के डर से छिपाये हुये तर्क
*******************************
कोरी बातों से या आधे अधूरे समर्पण से
किसी भी परिवर्तन की आशायें व्यर्थ है
जब तक आत्मसमर्पण न कर दें आप
तमाम अपने छुपाये हुये हथियारों के साथ
अंदर तक कंगाल हो के
सद्यः पैदा हुये बालक जैसे , नंगा, निरीह और सरल हो के
सत्य के सामने या
वांछित बदलाव के सामने
आपके सारे अब तक के अर्जित ज्ञान ही तो
हथियार हैं आपके
वही तो सुझाते हैं आपको…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 17, 2015 at 9:00am — 23 Comments
22 22 22 22 2
शहर ज़रा सा मुझमें भी तो आया है
यही सोच के गाँव गाँव शर्माया है
मुर्दों जैसा नया सवेरा है सोया
किस अँधियारे ने इसको भरमाया है
याराना कुह्रों से है क्या मौसम का
आसमान तक देखो कैसे छाया है
चौखट चौखट लाशें हैं अरमानों की
किस क़ातिल को गाँव हमारा भाया है
सूखी डाली करे शिकायत तो किस को
सूरज आँखें लाल किये फिर आया है
छप्पर चुह ते झोपड़ियों का क्या…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 15, 2015 at 8:30am — 27 Comments
क्या ये मेरा वही गाँव है
***********************
क्या ये मेरा वही गाँव है
सूरज अलसाया निकला है
मुर्गा बांग नहीं देता है
नहीं यहाँ चिड़ियों की चीं चीं
ना कौवे की काँव काँव है
क्या ये मेरा वही गाँव है
दो पहरी सोई सोई है
दिवा स्वप्न में कुछ खोई है
यहाँ धूल में सनी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 12, 2015 at 9:32am — 22 Comments
221 212 1 1221 212
बदली ने टांग अपनी अड़ाई हुई तो है
सूरज से आँख उसने मिलाई हुई तो है
कहने लगे हैं नक़्श हरिक शक्ल के यही
चक्की में ज़िन्दगी की पिसाई हुई तो है
बातों में तेवरी है बग़ावत की, मान ली
लेकिन जो सच थी बात, उठाई हुई तो है
देखें कि घर में रोशनी आती है कब तलक
तारीकियों के संग लड़ाई हुई तो है
सद शुक्र, ऐ तबीब दवा और मत लगा
उनकी हथेलियों से सिकाई हुई तो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 8, 2015 at 3:30pm — 32 Comments
चूल्हे वाली गुड़ की चाय लुभाती है
22 22 22 22 22 2
***********************************
याद मुझे वो अक्सर ही आ जाती है
चूल्हे वाली गुड़ की चाय लुभाती है
आग चढ़ी वो दूध भरी काली मटकी
वो मिठास अब कहाँ कहीं मिल पाती है
वो कुतिया जो संग आती थी खेतों तक
उसके हिस्से की रोटी बच जाती है
छुपा छुपव्वल वाली वो गलियाँ सँकरीं
दिल की धड़कन , यादों से बढ़ जाती है
डंडा पचरंगा खेले जिस बरगद…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 6, 2015 at 11:44am — 27 Comments
उड़ानें उसकी बहुत ऊँची हो चुकी हैं
बेशक , बहुत ऊँची
खुशी होती है देख कर
अर्श से फर्श तक पर फड़फड़ाते
बेरोक , बिला झिझक, स्वछंद उड़ते देख कर उसे
जिसके नन्हें परों को
कमज़ोर शरीर में उगते हुए देखा है
छोटे-छोटे कमज़ोर परों को मज़बूतियाँ दीं थीं
अपने इन्हीं विशाल डैनों से दिया है सहारा उसे
परों को फड़फड़ाने का हुनर बताया था
दिया था हौसला, उसकी शुरुआती स्वाभाविक लड़खड़ाहट को
खुशी तब भी बहुत होती थी
नवांकुरों की कोशिशें…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 9:30pm — 23 Comments
२११२२ २११२२ २११२
प्यास में अब. पानी न मिले शबनम ही सही
*****************************************
प्यास में अब. पानी न मिले शबनम ही सही
ख्वाब तो हो, सच्चा न सही मुबहम ही सही
लम्स तेरा जिसमें न मिले वो चीज़ ग़लत
आब हो या महताब हो या ज़म ज़म ही सही
मेरे सहन में आज उजाला , कुछ तो करो
धूप अगर हलकी है उजाला कम ही सही
कुछ तो इधर अब फूल खिले सह्राओं में भी
काँटों लदी हो डाल खिले…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 1:25pm — 29 Comments
2017
2016
2015
2014
2013
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |