सूर्य देवा, लाँघना कुछ सोचकर,
इस गाँव की चौखट।
बढ़ रहे तेवर तुम्हारे,
सिर चढ़े वैसाख में।
भू हुई बंजर चला जल,
भाप बन आकाश में।
देव! है स्वागत तुम्हारा,
ध्यान हो लेकिन हमारा,
बाँध लेना प्रथम अपनी आग सी,
किरणों की बिखरी लट।
मौन हैं प्यासे दुधारू
खूँटियों से द्वंद है।
हलक सूखे हैं, नज़र में
याचना की गंध है।
शेष जल यदि तुम निगल लो,
गागरी उदरस्थ कर लो,
अन्नपूर्णा किस…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on May 21, 2013 at 1:00pm — 16 Comments
सखि,चैत्र गया अब ताप बढ़ा।
धरती चटकी सिर सूर्य चढ़ा।
ऋतु के सब रंग हुए गहरे।
जल स्रोत घटे जन जीव डरे।
फिर भी मन में इक आस पले।
सखि पाँव धरें चल नीम तले।
इस मौसम में हर पेड़ झड़ा।
पर, मीत यही अपवाद खड़ा।
खिलता रहता फल फूल भरा।
लगता मन मोहक श्वेत हरा।
भर दोपहरी नित छाँव मिले।
सखि झूल झुलें चल नीम तले।
यह पेड़ बड़ा सुखकारक है।
यह पूजित है वरदायक है।
अति पावन प्राणहवा…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on May 13, 2013 at 8:46am — 21 Comments
जो जुटाते अन्न, फाकों की सज़ा उनके लिए।
बो रहे जीवन, मगर जीवित चिता उनके लिए।
सींच हर उद्यान को, जो हाथ करते स्वर्ग सम,
नालियों के नर्क की, दूषित हवा उनके लिए।
जोड़ते जो मंज़िलें, माथे तगारी बोझ धर,…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on May 2, 2013 at 8:53am — 34 Comments
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