सूरज बोला रात से, आना नदिया पास।
घूँघट ओढ़े मैं मिलूँ , मिल खेलेंगे रास । ।
गोद निशा रवि आ गया , सोया घुटने मोड़ ।
चन्दा भी अब चल पड़ा , तारा चादर ओढ़ । ।
पीड़ा वो ही जानता , खाए जिसने घाव ।
पाटन दृग रिसत रहे ,कोय न समझा भाव । ।
विरह मिलन दो पाट हैं, जानत हैं सब कोय ।
सबहि खुशी गम सम रहे, दुःख काहे को होय। ।
नदिया धीरे बह रही ; पुरवइया का जोर ।
चाँद ठिठोली कर रहा , चला क्षितिज जिस ओर । ।
बदरा घूँघट…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 23, 2015 at 8:00pm — 4 Comments
बंधन
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डाक्टर श्रीवास्तव की शुरू से आदत रही कि वे खुद और उनका स्टाफ समय पर अस्पताल पहुँचे। ज्यादातर वे समय से पहले अस्पताल पहुँच जाते ताकि अन्य राजकीय औपचारिकताओं के निर्वहन में खर्च होने वाले समय की प्रतिपूर्ति की जा सके और अधिक से अधिक मरीज देखे जा सकें। अपने सरल स्वभाव और मानवीय संवेदनाओं में अग्रणी होने के नाते क्षेत्र में बहुत लोंक प्रिय थे। मरीजों की भीड़ लगी थी और डाक्टर साहब तल्लीन थे सेवा भाव में। तभी मंत्री जी का आगमन हुआ। मंत्री का रूतबा और दबदबा दोनों ही कुछ ज्यदा…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 16, 2015 at 6:00pm — 6 Comments
तलाश
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निकल पड़ा हूँ
रोज की तरह आज भी
तलाश में ?
रोटी की
गोल हो , पतली या मोटी
जली काली , सफ़ेद
क्या फर्क
स्वाद तों एक ही होगा
कैसे ढूंढ लेते हो
अंतर
पांच सितारा होटल के नीचे पड़े
बजबजाते कूड़े में पडी
और
सुखिया के चूल्हे में सिंकी
सोंधी गंध वाली रोटी में
तुम्हें पता है ?
भूख कैसी होती है ?
मैं जानता हूँ।
मौलिक और अप्रकाशित
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 16, 2015 at 11:45am — 4 Comments
कवि
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आत्मावलोकन
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सभागार
खचा खच था भरा
कुछ सहमा सा
कुछ डरा डरा
खड़ा मैं किनारे धरे मौन
उसने
पूछा परिचय
मैं हूँ कौन ?
सकपकाया थर्राया
फिर तोडा मौन
तुम कौन ?
कभी अपने को जाना
नही समझोगे
व्यर्थ समझाना
मैं कवि हूँ अदना सा
नही हूँ डॉन
हकीकत
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भीतर घुसा
ढाढ़स कुछ पाया
अंधियारे में कुछ
समझ न आवा…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 13, 2015 at 5:07pm — 4 Comments
कवि सम्मेलन
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ट्रिन-ट्रिन
''हेलो '' लेखक मंडी
''दो दर्जन कवि , दोपहर ११ बजे , राम नाथ हाल, बेहाल मंडी भेज दीजिए''
''दहाड़ी कितनी ?
फिर दिमाग खराब हो गया तुम्हारा , दूसरे जिले से मंगवा लूँ ?मारे -मारे घूम रहे हैं। न इन्हें कोई सुनता , न छापता और न ही पढता।
'' फिर भी , कुछ तों देना ही होगा ''
'' २ टाइम चाय, बिस्कुट., ''
''बस, और कुछ नही भूखे मर जायेंगे बेचारे ''
''अभी कौन जिन्दा है ''
''कुछ तों बढाइये , बाल बच्चे दार…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 12, 2015 at 12:30pm — No Comments
शाम
स्वागतम
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स्वागत तेरा शाम सदा
श्याम सी सदा शाम हो ,
श्वेत श्याम उन यादों की
हर पल सुनहरी शाम हो
चाहत
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दूर होते हम तभी ,
भोर की जब बांग हो .
पास लाती चाहत हमे
नित मिलन की शाम हो
.
जिंदगी
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जिंदगी तू सुबह भी है
जिंदगी तू शाम भी है
बोझिल कभी तू दर्द से
देती कभी आराम भी है
.
हसरत
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हाथ थामे चलते रहें
हसरत मेरी…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 9, 2015 at 4:30pm — 2 Comments
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