तन्हाई चीखती है कहीं
पगलाई-सी हवा धमक पड़ती है ।
अंधेरे में भी दरवाजे तक पहुँच कर
बेतहाशा कुंडियाँ खटखटाती है।
अकेला सोया पड़ा इंसान अपने ही भीतर हो रहे शोर से
घबड़ा कर उठ बैठता है ।
मोबाइल में चौंक कर देखता है समय
“रात के ढ़ाई ही तो अभी बजे हैं “ बुदबुदाता है।
सन्नाटा उसकी दशा पर मुस्कुराता है।
उधर दुनिया के कहीं कोने में
भीड़ भूख-प्यास से बेकाबू हो कर सड़को पर नहीं निकलती,
सामूहिक आत्महत्याएं कर रही होती…
ContinueAdded by MAHIMA SHREE on August 24, 2015 at 8:30pm — 9 Comments
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