कल का किस को पता है
तुम कहते थे न
"कल का किस को पता है?"
और मैं इस पर हर बार ...
हर बार हँस देती थी,
इतिहास का वह सम्मोहक टुकड़ा
उढ़ते भूरे सफ़ेद बादल-सा
सैकड़ों कल को ले कर बीत गया,
कब आया, कब बूंद-बूंद रीत गया।
असंगत तर्कों के तथ्यों का विश्लेषण करती
सूक्ष्मतम मानसिक वृतियों से भयभीत,
आए-गए अब अपने अकेले में
मैं भी दुरहा दिया करती हूँ...
"कल का किस को पता…
ContinueAdded by vijay nikore on August 25, 2013 at 5:00pm — 12 Comments
अकथ्य व्यथा
अरक्षित अंतरित भावनाओं को अगोरती,
क्षुब्ध अनासक्त अनुभवों से अनुबध्द,
फूलों के हार-सी सुकुमार
मेरी कविता, तुम इतनी उदास क्यूँ हो ?
पँक्ति-पँक्ति में संतप्त, कुछ टटोलती,
विग्रहित शिशु-सी रुआँसी,
बगल में ज्यों टूटे खिलोने-से
किसी पुराने रिश्ते को थामे,
मेरे क्षत-विक्षत शब्दों में तुम
इतनी जागती रातों में क्या ढूँढती हो ?
अथाह सागर के दूरतम…
Added by vijay nikore on August 22, 2013 at 12:30pm — 31 Comments
पहचान
हटा कर धूल जब देखा अतीत के आईने ने हमको,
उसने भी न पहचाना और अनजान-सा देखा हमको,
सालों बाद हमसे पूछे बहुत सवाल पर सवाल उसने,
हर सवाल के जवाब में हमने नाम तुम्हारा था दिया।
ऐसा…
ContinueAdded by vijay nikore on August 18, 2013 at 11:30am — 28 Comments
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