सारी उमर मैं बोझ उठाता रहा जिनका
उन आल-औलादों की वफ़ा गौर कीजिये
मरने के बाद मेरा बोझ ले के यूँ चले
मानो निजात पा गए हों सारे बोझ से
मैंने समझ के फूल जिनके बोझ को सहा
छाती से लगाया जिन्हें अपना ही जानकर
वे ही बारात ले के बड़ी धूम धाम से
बाजे के साथ मेरा बोझ फेंकने चले
अपने लिए ही बोझ था मै खुद हयात में
अल्लाह ये तेरा भला कैसा मजाक है
ज्योही जरा हल्का हुआ मै मरकर बेखबर
खातिर मै दूसरों के एक बोझ बन गया
लगती थी बोझ जिन्दगी उनके बिना…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 27, 2014 at 10:02pm — 13 Comments
सोचता रहता हूँ
उदासियो में घिरकर
प्रतिक्षण-प्रतिपल
आबाद होंगे कब जीवन -मरुस्थल ?
काल की क्रूरता ने
मेरे प्रयासों को
आशा-उजासो को
जीवन-विकल्पों को
कर डाला धूमिल
कर्म हुआ निष्काम
कार्य भी निष्फल
आबाद होंगे कब जीवन-मरुस्थल ?
सूने शून्य जीवन में
नियति के बंधन से
करुणा से क्रंदन से
पूरे जो न हो पायें
स्वप्न हुए चंचल
पंगु प्रेरणा के पग
शान्त और…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 23, 2014 at 7:27pm — 20 Comments
बेसुध वैतालिक गाते हैं
नारी का जननी में ढलना
जीवन का जीवन में पलना
नभ पर मधु-रहस्य-इन्गिति के आने का अवसर लाते है
बेसुध वैतालिक गाते हैं
जग में धूम मचे उत्सव की
अभ्यागत के पुण्य विभव की
मंगल साज बधावे लाकर प्रियजन मधु-रस सरसाते हैं
बेसुध वैतालिक गाते हैं
आशीषो के अवगुंठन में
शिशु अबोध बंधता बंधन में
दुष्ट ग्रहों से मुक्त कराने स्वस्ति लिए ब्राह्मण…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 13, 2014 at 8:30pm — 15 Comments
अगम है प्रेम पारावार फिर भी प्रिये पतवार लेकर आ गया हूँ I
विकल मन में जलधि के ज्वार फूटे
तार संयम अनेको बार टूटे
प्राण आकंठ होकर थरथराये
नेह के बंधन सजीले थे न छूटे
प्यास की वासना उद्दाम ऐसी नयन सागर सहेजे आ गया हूँ I
नयन ने काव्य करुणा के रचे हैं
कौन से पाठ्यक्रम इससे बचे हैं
किसी कवि ने इन्हें जब गुनगुनाया
लाज ने तोड़ डाले …
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 10, 2014 at 2:30pm — 22 Comments
लोला
तीन साल बाद अपने पैतृक आवास की ओर जाते हुए बड़ा अन्यमनस्क था मै I इससे पहले आख़िरी बार पिताजी की बीमारी का समाचार पाकर उनकी चिकित्सा कराने हेतु यहाँ आया था I हालाँकि हमारी तमाम कोशिशे कामयाब नहीं हुयी थी और हम उन्हें बचा नहीं सके थे I मेरी भतीजी उस समय तीन या चार वर्ष की रही होगी I पिता जी की दवा और परिचर्या के बाद जो भी थोडा समय मिलता, वह मै अपनी भतीजी के साथ गुजारता I उसे बाँहों में लेकर जोर से उछालता I वह खिलखिलाकर हंसती थी I मै प्यार से उसे ‘लोला’ कहता…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 6, 2014 at 6:30pm — 20 Comments
दृष्टि मिलन के प्रथम पर्व में
दृप्त वासना नभ छू लेती
पागलमन को बहलाता सा
जग कहता नैसर्गिक सुख है I
क्या निसर्ग सम्भूत विश्व में
क्या स्वाभाविक और सरल क्या
वाग्जाल के छिन्न आवरण
में मनुष्य की दुर्बलता है I
बुद्धि दया की भीख मांगती
ह्रदय उपेक्षा से हंस देता
मानव ! तेरी दुर्बलता का
इस जग में उपचार नहीं …
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 1, 2014 at 4:00pm — 21 Comments
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