पौधा रोपा परम-प्रेम का, पल-पल पौ पसरे पाताली |
पौ बारह काया की होती, लगी झूमने डाली डाली |
जब पादप की बढ़ी उंचाई, पर्वत ईर्ष्या से कुढ़ जाता -
टांग अडाने लगा रोज ही, बकती जिभ्या काली गाली |
लगी चाटने दीमक वह जड़, जिसने थी देखी गहराई -
जड़मति करता दुरमति से जय, पीट रहा आनंदित ताली |
सूख गया जब प्रेम वृक्ष तो, काट रहा जालिम सौदाई -
आज ताकता नंगा पर्वत, बिगड़ चुकी जब हालत-माली |
लगी खिसकने चट्टानें अब , भूमि स्खलित होती हरदम -
पर्वत की…
ContinueAdded by रविकर on September 28, 2012 at 2:00pm — 4 Comments
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