तुमसे इश्क में भीगी बातें करनी थीं
लेकिन किसान का मायूस चेहरा
आता रहा बार-बार सामने
तुम्हारी घनी जुल्फों के साए में छुपना था
कि कार्तिक मास में
असमय छाये काले पनीले
मनहूस बादलों ने ग़मगीन किया मुझे
तुम्हारी खनकती हंसी सुननी थी
कि किसानो के आर्तनाद ने रोक लिया
तुम्हे मालूम है
कि…
Added by anwar suhail on October 28, 2013 at 7:29pm — 7 Comments
आकाश में छाये काले बादल
किसान के साथ-साथ
अब मुझे भी डराने लगे हैं...
ये काले बादलों का वक्त नही है
ये तेज़ धुप और गुलाबी हवाओं का समय है
कि खलिहान में आकर बालियों से धान अलग हो जाए
कि धान के दाने घर में पारा-पारी पहुँचने लगें
कि घर में समृद्धि के लक्षण दिखें
कि दीपावली में लक्ष्मी का स्वागत हो…
Added by anwar suhail on October 27, 2013 at 8:02pm — 2 Comments
छोड़ता नही मौका
उसे बेइज्ज़त करने का कोई
पहली डाले गए डोरे
उसे मान कर तितली
फिर फेंका गया जाल
उसे मान कर मछली
छींटा गया दाना
उसे मान कर चिड़िया
सदियों से विद्वानों ने
मनन कर बनाया था सूत्र
"स्त्री चरित्रं...पुरुषस्य भाग्यम..."
इसीलिए उसने खिसिया कर
सार्वजनिक रूप से
उछाला उसके चरित्र पर कीचड...…
Added by anwar suhail on October 26, 2013 at 8:30pm — 10 Comments
बड़े जतन से संजोई किताबें
हार्ड बाउंड किताबें
पेपरबैक किताबें
डिमाई और क्राउन साइज़ किताबे
मोटी किताबें, पतली किताबें
क्रम से रखी नामी पत्रिकाओं के अंक
घर में उपेक्षित हो रही हैं अब...
इन किताबों को कोई पलटना नही चाहता
खोजता हूँ कसबे में पुस्तकालय की संभावनाएं
समाज के कर्णधारों को बताता हूँ
स्वस्थ समाज के निर्माण में
पुस्तकालय की भूमिका के बारे में...
कि किताबें इंसान को अलग करती हैं हैवान से
कि मेरे पास रखी इन…
Added by anwar suhail on October 17, 2013 at 9:30pm — 11 Comments
आजकल अक्सर
टीसती रहती हैं
माथे पर उभर आई नसें
मटमैली-लाल होकर
दुखने लगती हैं आँखें
चेहरे पर बरसती रहती है फटकार
पपडियाये होंठों से हठात
निकलती हैं सूखी गालियाँ
खोजती रहती हैं नज़रें
दूर-दूर तक
क्षितिज से टकराकर
खाली हाथ लौट आती हैं निगाहें
दिमाग में ख्यालों का अकाल
दिल में कल्पनाओं के टोटे...
सब तरफ एक सन्नाटा...
कोई आहट...न कोई…
Added by anwar suhail on October 14, 2013 at 9:00pm — 9 Comments
जुग की मांग
समय की डिमांड
बात मेरी मान
बन जाएँ थेथर श्रीमान....
सलीकेदार लोगों को
जीने नही देगा समाज
भले से अच्छा था विगत
लेकिन बहुत क्रूर है आज
जीने की ये कला
जिसे सीखने में सबका भला
वरना रह जाओगे तरसते
आपका हिस्सा ये थेथर
झटक लेंगे हँसते-हस्ते...
हम जिस समय में जी रहे हैं
उसमे बदतमीज़,…
Added by anwar suhail on October 8, 2013 at 10:05pm — 8 Comments
दर्द रह-रह के बढ़ता है
और दिल डूबा जाता है
नब्ज़ थम-थम के चलती है
दिल ज़ोरों से धड़कता है
बीमारी बढती जाती है
फ़िक्र है खाए जाती है
सलाहें खूब मिलती हैं
दवाएं बदलती जाती हैं
दुआएं काम नही आतीं
करें क्या ऐसे में हमदम
कहाँ से चारागर पायें
मत्था किस दर पर टेंकें
कहाँ से तावीजें लायें
तुम्हे मालुम है फिर भी
छुपा कर रक्खे हो नुस्खे
न लो अब और इम्तेहाँ
चले आओ जहां हो तुम
तुम्हारे आते ही हमदम …
Added by anwar suhail on October 5, 2013 at 9:30pm — 12 Comments
हम क्या हैं
सिर्फ पैसा बनाने की मशीन भर न !
इसके लिए पांच बजे उठ कर
करने लगते हैं जतन
चाहे लगे न मन
थका बदन
ऐंठ-ऊँठ कर करते तैयार
खाके रोटियाँ चार
निकल पड़ते टिफिन बॉक्स में कैद होकर
पराठों की तरह बासी होने की प्रक्रिया में
सूरज की उठान की ऊर्जा
कर देते न्योछावर नौकरी को
और शाम के तेज-हीन सूर्य से ढले-ढले
लौटते जब काम से
तो पास रहती थकावट, चिडचिडाहट,
उदासी और मायूसी की परछाइयां
बैठ जातीं कागज़ के…
Added by anwar suhail on October 4, 2013 at 8:00pm — 9 Comments
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