छोड़ता नही मौका
उसे बेइज्ज़त करने का कोई
पहली डाले गए डोरे
उसे मान कर तितली
फिर फेंका गया जाल
उसे मान कर मछली
छींटा गया दाना
उसे मान कर चिड़िया
सदियों से विद्वानों ने
मनन कर बनाया था सूत्र
"स्त्री चरित्रं...पुरुषस्य भाग्यम..."
इसीलिए उसने खिसिया कर
सार्वजनिक रूप से
उछाला उसके चरित्र पर कीचड...
फिर भी आई न बस में
तो किया गया उससे
बलात्कार का घृणित प्रयास...
वह रहा सक्रिय
उसकी प्रखर मेधा
रही व्यस्त कि कैसे
पाया जाए उसे...
कि हर वस्तु का मोल होता है
कि वस्तु का कोई मन नही होता
कि पसंद-नापसंद के अधिकार
तो खरीददार की बपौती है
कि दुनिया एक बड़ा बाज़ार ही तो है
फिर वस्तु की इच्छा-अनिच्छा कैसी
हाँ..ग्राहक की च्वाइस महत्वपूर्ण होनी चाहिए
कि वह किसी वस्तु को ख़रीदे
या देख कर
अलट-पलट कर
हिकारत से छोड़ दे...
इससे भी उसका
जी न भरा तो
चेहरे पर तेज़ाब डाल दिया...
क़ानून, संसद, मीडिया और
गैर सरकारी संगठन
इस बात कर करते रहे बहस
कि तेज़ाब खुले आम न बेचा जाए
कि तेज़ाब के उत्पादन और वितरण पर
रखी जाये नज़र
कि अपराधी को मिले कड़ी से कड़ी सज़ा
और स्त्री के साथ बड़ी बेरहमी से
जोड़े गए फिर-फिर
मर्यादा, शालीनता, लाज-शर्म के मसले...!
(मौलिक अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय अनवर भाईजी. कुछ बातें ऐसी होती हैं जो सुगढ़ कथ्य में आते ही अपनी व्यवस्थित राह ढूँढने लगती हैं और न मिलने पर उच्छॄंखल हो उठती हैं. इधर कविताओं के कथ्य कई बार से सपाट हो जा रहे हैं. आपकी संवेदनशीलता पर हम सदा नत रहे हैं. अपेक्षा है, आपकी रचनाओं में काव्य पूर्ववत अपने नैसर्गिक रूप में उभर कर आयेगा.
सादर
waah waah waah .... behad sashakt lekhan .... iski jitni tareef ki jaaye kam hai .... badhai Anwar saheb ... haan, ek baat kahna chahunga, "स्त्री चरित्रं...पुरुषस्य भाग्यम..." is pankti ko aap ek antare mein galat dhang se prayog kar baithe mere anusaar ... meri samjh se yeh pankti vidvanon ne bahut hi adhik chintan manan ke upraant likhi hogi ... waise yeh bhi sambahv hai ki main aapke ukt antare ka sahi arth nahin samjha shayad
आपके द्वारा उठाए गए हर प्रश्न से सहमत होते हुए भी प्रस्तुतिकरण से सहमत नहीं हो पाया जिसका कारण रचना की सार्वभौमिकता है जिसमें पूरी नारी जाति को एक शिकार की तरह प्रस्तुत किया गया है और पुरुषवर्ग एक आखेटक । बात यहीं चुभती है बाकी आपकी इच्छा, सादर
स्त्रियों के बारे में चली आ रही मानसिकता पर सुन्दर रचना हुई है अनवर भाई | इस हेतु हार्दिक बधाई |
वैसे प्राचीन काल से ही अग्नि परीक्षा स्त्रियों को ही देनी पड रही है | "ढोर गंवार शुद्र पशु नारी, ये सब ताडन के अधिकारी"
जैसी पंक्तियाँ पढने को मिलती है | अब इस मानसिकता को बदलने का जोरदार प्रयास करने की आवश्यकता है |
हमारी न्याय व्यवस्था का सक्रीय प्रयास शुभ संकेत है, जिस पर संसद की मोहर लगाने सही चयन का दायित्व निर्वाह
जनता को करना होगा
टंकण त्रुटी के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ...भाई सुशील जोशी जी का आभार...
काम पिपासा में अंधे दरिन्दों का स्त्री पर अत्याचार एवं भोथरे तंत्रों के अनर्गल प्रलाप पर प्रहार करती एक अच्छी रचना के लिये साधुवाद.... कुछ त्रुटियों पर सुशील भाई से सहमत !!!!
आ0 अनवर भाई , स्त्र्रियों को लेकर समाज की मानसिकता का सही वर्णन किया भाई , ये मानसिकता कानून से नही बदलने वाली है !! एक एके को बदलना होगा !!!! आपको बधाई !!!!
स्त्रियों के मर्म को दर्शाती एक सार्थक अभिव्यक्ति है आ0 अनवर भाई... आजकल जिस प्रकार की परिस्थियाँ हमारे समाज में हैं, वह निश्चित रूप से स्त्रियों की सुरक्षा पर सवाल खड़ा करती हैं.................. बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति के लिए.....
तीसरी पंक्ति में 'पहली डाले गए डोरे'............ में 'पहले डाले गए डोरे' कर टंकण त्रुटि को समाप्त किया जा सकता है...
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