आशंका के कगार
जानता हूँ
हर पिघलती सचाई में
फीकी सचाई के पार
कुछ झुठाई भी है
तभी तो आशंका की परतों के बीच
किसी भी परिस्थिति को परखते
किसी का झूठ जानते हुए भी
सचाई की लाश को मानो
थपकियाँ देते
कभी खिड़की का शीशा
कभी मन काआईना
कोना-कोना साफ़ करते
खिसक जाते हैं दिन
ज़िन्दगी हाथ फैलाए
मांगती है…
ContinueAdded by vijay nikore on November 17, 2019 at 6:12pm — 7 Comments
ठण्डी गहरी चाँदनी
चिंताओं की पहचानी
काल-पीड़ित
अफ़सोस-भरी आवाज़ें ...
पेड़ों से उलझी रोशनी को
पत्तों की धब्बों-सी परछाई से
प्रथक करते
अब महसूस यह होता है
सपनों में
सपनों की सपनों से बातें ही तो थीं
हमारा प्यार
या उभरता-काँपता
धूल का परदा था क्या
विश्वासों में पला हमारा प्यार
आईं
व्यथाओं की ज़रा-सी हवाएँ
धूल के परदे में झोल न पड़ी
वह तो यहाँ वहाँ
कण-कण जानें…
ContinueAdded by vijay nikore on November 4, 2019 at 5:15pm — 12 Comments
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