पिघली हुई आँच
कुछ ऐसी ही
पीली उदासीन संध्याएँ
पहले भी आई तो थीं
पर वह जलती हुई भाफ लिए
इतनी कष्टमयी तो न थीं
दिल से जुड़े, चंगुल में फंसे हुए
द्व्न्द्व्शील असंगत फ़ैसलों पर तब
"हाँ" या "न" की कोई पाबंदी न थी
"जीने" या "न जीने" का
साँसों में हर दम कोई सवाल न था
अनवस्थ अनन्त अकेलापन
तब भी चला आता था
पर वह दिल के किसी कोने में दानव-सा
प्रतिपल बसा नहीं रहता…
ContinueAdded by vijay nikore on December 21, 2015 at 3:58am — 8 Comments
कहने को दोस्त हैं बहुत
लेकिन दोस्त,
सच में
तुम ही "एक" दोस्त थी मेरी
अपरिभाषित दिशाओं के पट खोल
सुविकसित कल्पनाओं को बहती हवाओं में घोल
मुझको अँधियाले ताल के तल से
प्रसन्नता की नभचुम्बी चोटी पर ले गई थी
वह तुम ही तो थी
हर हाल में मुझको
लगती थी अपनी
इतनी
कि मैं पैरों के घिसे हुए तलवों को
मन की फटी हुई चादर की सलवटों को
दिखाने में संकोच नहीं करता था...
सवाल ही नहीं उठता…
ContinueAdded by vijay nikore on December 13, 2015 at 9:17am — 12 Comments
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