मेरी रचना ऐसी हो
मेरी रचना वैसी हो
घूंघट में है रचना मेरी
न जाने वो कैसी हो
शृंगार करूँ मैं सदा कलम का
नित्य हृदय के भावों से
उस पलक द्वार पर देगी दस्तक
जो मेरी रचना की अभिलाषी हो
मौन अधर हों
मौन नयन हों
मौन प्रेम का
हर बंधन हो
बिन बोले जो
कह दे सब कुछ
मेरी रचना ऐसी हो,
हाँ ,मेरी रचना ऐसी हो…….
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 28, 2013 at 4:30pm — 12 Comments
क्यूँ
हाँ क्यूँ
मेरा मन
मेरा कहा नहीं मानता
क्यूँ मेरा तन
मेरे बस में नहीं
न जाने इस पंथ का अंत क्या हो
किस इच्छा के वशीभूत हो
मेरे पाँव
अनजान उजाले की ओर आकर्षित हो
निरंतर धुल धूसरित राह पे
बढ़ते ही जा रहे हैं
ये तन
उस मन के वशीभूत है
जो स्थूल रूप में है ही नहीं
न जाने मैं इस राह पे
क्या ढूढने निकला हूँ
क्या वो
जो मैं पीछे छोड़ आया
या वो
जो मेरे मन की
गहरी कंदराओं में…
Added by Sushil Sarna on December 27, 2013 at 8:00pm — 24 Comments
तीर चलते हैं मगर तरकश नजर नहीं आता
चाहत में निगाहों को सफर नजर नहीं आता
अंजाम जान के भी पलकों में घर बनाते हैं
क्यूँ दिल टूटने का उन्हें हश्र नजर नहीं आता
आसमान को छूने की तमन्ना करने वालो
क्यों ज़मीं पर तुम्हें टूटा पंख नजर नहीं आता
लगा दिया इल्जाम बेवफाई का उनके सर
क्यूँ आँख से गिरा अश्क नजर नहीं आता
जिस तकिये पे मिल कर गुजारी थी रातें
उस भीगे तकिये का दर्द नजर नहीं आता
सुशील सरना
मौलिक एवं…
Added by Sushil Sarna on December 25, 2013 at 12:30pm — 14 Comments
प्रेम तृणों से …….
पलक पंखुड़ी में प्रणय अंजन से
सुरभित संसृति का श्रृंगार करो
भ्रमर गुंजन के मधुर काल में
कुंतल पुष्प श्रृंगार करो
तृप्त करो तुम नयन तृषा को
मिलन क्षणों को स्वीकार करो
अपने उर में अपने प्रिय की
अनुपम सुधि से श्रृंगार करो
विस्मृत कर…
Added by Sushil Sarna on December 20, 2013 at 8:00pm — 22 Comments
दर्द का सावन ……
.
दर्द का सावन तोड़ के बंधन
नैन गली से बह निकला
मुंह फेर लिया जब अपनों ने
तो बैगानों से कैसा गिला
जो बन के मसीहा आया था
वो बुत पत्थर का निकला
मैं जिस को हकीकत समझी थी
वो रातों का सपना निकला
है रिश्ता पुराना कश्ती का
सागर के किनारों से लेकिन
जब दुश्मन लहरें बन जाएँ
तो कश्ती से फिर कैसा…
Added by Sushil Sarna on December 19, 2013 at 7:00pm — 18 Comments
ये कैसी आधुनिकता है …. …..
.
उफ्फ !
ये कैसी आधुनिकता है ….
जिसमें हर पल …..
संस्कारों का दम घुट रहा है //
हर तरफ एक क्रंदन है ….
सभ्यता आज ….
कितनी असभ्य हो गयी है //
आज हर गली हर चौराहे पर ….
शालीनता अपनी सभी …..
मर्यादाओं की सीमाएं तोड़कर हर ……
शिष्टाचार की धज्जियां उड़ा रही है //
बदन का सार्वजनिक प्रदर्शन …..
आधुनिकता का अंग बन गया…
Added by Sushil Sarna on December 16, 2013 at 7:30pm — 17 Comments
वादों की ..सडकों पे
कसमों के …गाँव हैं
प्रणय के ..पनघट पे
आँचल की ..छाँव है
…वादों की सडकों पे
…कसमों के गाँव हैं
प्रीतम की ……बातें हैं
धवल चांदनी …रातें हैं
सुधियों की .पगडंडी पे
अभिसार के ….पाँव हैं
…वादों की सडकों पे
…कसमों के गाँव हैं
शीत के …धुंधलके में
घूंघट की …..ओट में
प्रतिज्ञा की .देहरी पर
तड़पती एक .सांझ है
…वादों की सडकों पे
…कसमों के…
Added by Sushil Sarna on December 10, 2013 at 1:00pm — 16 Comments
किसी गली के नुक्कड़ पर
लगा दीजिये
किसी भी प्रसिद्ध नाम का पत्थर
वो उस गली की
पहचान हो जायेगा
वो नाम
सबकी जान हो जायेगा
कभी गलती से
किसी ने अगर उस पत्थर को
तोड़ने की कोशिश भी की तो
दंगाईयों का काम
आसान हो जायेगा
जी हाँ
नेताओं के लिए
चुनाव के निशान
पुजारी के लिए
तिलक के निशान
उनकी जान होते है
उनके व्यवसाय की
पहचान होते हैं
जाने क्योँ
लोग वाह्य आवरण को
अपनी पहचान…
Added by Sushil Sarna on December 9, 2013 at 4:30pm — 12 Comments
तुम्हारे बाहुपाश के लिए …….
कितने
वज्र हृदय हो तुम
इक बार भी तुमने
मुड़कर नहीं देखा
तुम्हारी एक कंकरी ने
शांत झील में
वेदना की
कितनी लहरें बना दी
और तुम इसे एक खेल समझ
होठों पर
हल्की सी मुस्कान के साथ
मेरे हाथों को
अपने हाथों से
थपथपाते हुए
फिर आने का आश्वासन देकर
मुझे
किसी गहरी खाई सा
तनहा छोड़कर
कोहरे में
स्वप्न से खो गए
और मैं
तुम्हें जाते हुए
यूँ निहारती रही…
Added by Sushil Sarna on December 7, 2013 at 5:30pm — 11 Comments
Added by Sushil Sarna on December 5, 2013 at 1:00pm — 6 Comments
इक पल मैं हूँ..........
इक पल मैं हूँ इक पल है तू
इक पल का सब खेला है
इक पल है प्रभात ये जीवन
इक पल सांझ की बेला है
इक पल मैं हूँ..........
ये काया तो बस छाया है
इससे नेह लगाना क्या
पूजा इसकी क्या करनी
ये मिट्टी का ढेला है
इक पल मैं हूँ..........
प्रश्न उत्तर के जाल में उलझा
मानव मन अलबेला है
क्षण भंगुर इस जिस्म में लगता
साँसों का हर पल मेला…
Added by Sushil Sarna on December 2, 2013 at 10:00pm — 14 Comments
बुजुर्ग को सुनाते हैं …..
हाँ
मानता हूँ
मेरा जिस्म धीरे धीरे
अस्त होते सूरज की तरह
अपना अस्तित्व खोने लगा है
मेरी आँखों की रोशनी भी
धीरे धीरे कम हो रही है
अब कंपकपाते हाथों में
चाय का कप भी थरथराता है
जिनको मैं अपने कंधों पर
उठा कर सबसे मिलवाने में
फक्र महसूस करता था
वही अब मुझे किसी से मिलवाने में
परहेज़ करते हैं
शायद मैं बुजुर्ग
नहीं नहीं बूढा बुजुर्ग हो गया हूँ
मैं अब वक्त बेवक्त की चीज़ हो गया हूँ…
Added by Sushil Sarna on December 1, 2013 at 6:12pm — 20 Comments
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