Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 29, 2017 at 10:00pm — 13 Comments
Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 26, 2017 at 5:50am — 17 Comments
Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 23, 2017 at 5:51am — 8 Comments
Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 20, 2017 at 7:50pm — 27 Comments
फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
.
धीरे- धीरे सब हुनर दिखने लगा।
उसमें कितना है जहर दिखने लगा।
आँख में कैसी खराबी आ गर्इ,
राहजन ही राहबर दिखने लगा।
लाख डींगे मारिये बेषक मगर,
आप के चेहरे से डर दिखने लगा।
जो दवायें दी थीं चारागर ने कल,
उन दवाओं का असर दिखने लगा।
जो कभी झुकता नहीं था दोस्तो
अब वही सर पाँव पर दिखने लगा।
जानवर तो जानवर हैं छोडि़ये,
आदमी भी जानवर दिखने…
Added by Ram Awadh VIshwakarma on November 25, 2013 at 7:30pm — 15 Comments
मफार्इलुन मफार्इलुन मफार्इलुन फअल
समझते थे उगा सूरज सवेरा हो गया ,
यहाँ तो और भी गहरा अंधेरा हो गया।
जरा सा फर्क आया क्या दिलों में एक दिन ,
सगी बहनों में तेरा और मेरा हो गया।
कभी पहले से कोर्इ तय नहीं होती जगह ,
जहाँ चाहा वहीं संतो का डेरा हो गया।
कटेगी राम जाने किस तरह से जिन्दगी ,
मगर के साथ मछली का बसेरा हो गया।
फंसा कर जाल में मानेगा ही अब तो उसे ,
सुनहरी मछली पे मोहित मछेरा हो…
Added by Ram Awadh VIshwakarma on November 6, 2013 at 8:30pm — 11 Comments
मफार्इलुन मफार्इलुन मफार्इलुन मफार्इलुन
वो तब होता है बेकल एक पल को कल नहीं मिलताा
उसे सेल फोन पर जब भी कभी सिगनल नहीे मिलता।
गरीबों की दुआओं से उन्हें भी स्वर्ग मिलता है,
जिन्हें मरते समय दो बूँद गंगा जल नहीे मिलता ।
मुसाफिर की बड़ी मुषिकल से तपती दोपहर कटती ,
अगर रस्ते में बरगद , नीम या पीपल नहीें मिलता।
किसी के घर में मिलतीं सिलिलयाँ सोने की चाँदी की ,
किसी के घर में साहब दो किलो चावल नहीं मिलता।
हमारे…
ContinueAdded by Ram Awadh VIshwakarma on October 27, 2013 at 9:14pm — 11 Comments
जिनके मुँह में नहीं बतीसी भार्इ साहब ,
चले बजाने वो भी सीटी भार्इ साहब।
.
भारी भरकम हाथी पर भारी पड़ती है ,
कभी - कभी छोटी सी चींटी भार्इ साहब।
.
काट रहे हैं हम सबकी जड धीरे-धीरे ,
करके बातें मीठी - मीठी भार्इ साहब।
.
मंहगार्इ डार्इन का ऐसा कोप हुआ है ,
पैंट हो गर्इ सबकी ढीली भार्इ साहब।
.
प्रजातंत्र में गूँगी लड़की का बहुमत से ,
रखा गया है नाम सुरीली भार्इ साहब।
.
सबको रार्इ खुद को पर्वत समझ रहा…
ContinueAdded by Ram Awadh VIshwakarma on October 23, 2013 at 8:30pm — 10 Comments
काँटे हैं किस के पास में किस पे गुलाब है।
जनता के पास आज भी सबका हिसाब है।
.
पढ़कर के जिस किताब को बच्चे बहक गये ,
बोलो र्इमान वालो वो कैसी किताब है।
.
लालो गुहर नही है मेरे पास में मगर ,
जो कुछ भी मेरे पास है वो लाजबाब है।
.
बैठे है करके बंद वो दरवाजे खिड़कियाँ ,
ये सोचकर कि अपना मुकददर खराब है।
.
ये सच है हाथ पाँव में अब जान ही नही ,
जिन्दा लहू में अब भी मेरे इन्कलाब है।
.
अंगार को बुझाइये पानी…
ContinueAdded by Ram Awadh VIshwakarma on October 19, 2013 at 11:30am — 8 Comments
खड़े होकर सभी के सामने अक्सर दुतल्ले से।
जो बातें सच थीं ज्यों की त्यों कहीं हमने धड़ल्ले से।
.
सुना है राह के काँटे भी उसका कुछ न कर पाये,
मग़र पैरों मे छाले पड़ गये जूते के तल्ले से।
.
अकेला ही मैं दुश्मन के मुकाबिल में रहा अक्सर ,
मदद करने नही निकला कोर्इ बन्दा मुहल्ले से।
.
वो इन्टरनेषनल क्रिकेट की करते समीक्षा हैं,
नही निकले कभी भी चार रन तक जिनके बल्ले से।
.
तुम्हारे गाँव के बारे में ये मेरा तजुर्बा है,…
Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 7, 2013 at 10:30am — 17 Comments
कलाम सबकी जुबाँ पर है लाकलाम तेरा।
सलाम करता है झुक कर तुझे गुलाम तेरा।
वो पाक़ साफ है इल्जाम न लगा उस पर,
करेगा काम वो वैसा ही जैसा दाम तेरा।
किसी को ताज़ किसी को दिये फटे कपड़े,
बड़े गज़ब का है दुनिया मे इन्तजाम तेरा।
जो अपने आप को पहुँचा हुआ समझते हैं,
समझ में उनके भी आता नहीं है काम तेरा।
तेरे ही नाम से होते हैं सारे काम मेरे,
मैं मरते वक्त तक लेता रहूँगा नाम तेरा।
मौलिक अप्रकाशित…
ContinueAdded by Ram Awadh VIshwakarma on October 4, 2013 at 8:00pm — 19 Comments
जाते-जाते वो मुझे लाकर की चाबी दे गया।
माल तो सब ले गया लाकर वो खाली दे गया।
मैं कभी तहजीब से बाहर निकल पाया नही ,
एक अदना आदमी फिर मुझको गाली दे गया।
उसने मेरी सादगी का यूँ उठाया फायदा ,
छीनकर दिन का उजाला रात काली दे गया।
जब भुनाने मैं गया उस रोज सेंट्रल बैंक में ,
तब पता मुझको चला कि चेक वो जाली दे गया।
रोटियाँ जो बांटने आया था भूखों को वही ,
खा गया खुद रोटियाँ आधी औ आधी दे गया।
अच्छे -अच्छे पारखी…
ContinueAdded by Ram Awadh VIshwakarma on September 29, 2013 at 10:00am — 10 Comments
ठीक जगह पर देख भाल के बैठा हूँ।
मैं अपनी कुर्सी संभाल के बैठा हूँ।
तीसमारखाँ बहुत बना फिरता था वो ,
मैं उसकी पगड़ी उछाल के बैठा हूँ।
दुष्मन से बदला लेने की खातिर मैं
आस्तीन में साँप पाल के बैठा हूँ।
संसद की गरिमा से क्या लेना-देना ,
संसद में जूता निकाल के बैठा हूँ।
कौन समस्यायें जनता की रोज सुने ,
अपने कान में रूर्इ डाल के बैठा हूँ।
ऐरा गैरा नत्थू खैरा मत समझो ,
सारी दुनिया मैं खंगाल के बैठा हूँ।
मौलिक अप्राकिषत एवं…
ContinueAdded by Ram Awadh VIshwakarma on September 25, 2013 at 8:41pm — 12 Comments
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |