2122 1122 1122 22
जिसको हम ग़ैर समझते थे हमारा निकला
उससे रिश्ता तो कई साल पुराना निकला (1)
हम भी हरचंद गुनहगार नहीं थे लेकिन
बे-क़ुसूरों में फ़क़त नाम तुम्हारा निकला (2)
हम जिसे क़ैद समझते थे बदन में अपने
वक़्त आया तो वो आज़ाद परिंदा निकला (3)
जान पर खेल के जाँ मेरी बचाई उसने
मैं जिसे समझा था क़ातिल वो मसीहा निकला (4)
दोस्तो जान छिड़कता था जो कल तक मुझ पर
आज वो शख़्स मेरे ख़ून का प्यासा निकला…
Added by सालिक गणवीर on August 13, 2020 at 4:00pm — 10 Comments
221 2121 1221 212
रस्ते की बात है न ये रहबर की बात है
पा लेना मंज़िलों को मुक़द्दर की बात है
ये बोरिया की है मिरे बिस्तर की बात है
फूलों की सेज मिलना मुक़द्दर की बात है
उस वाक़िआ का ज़िक्र मुनासिब नहीं यहाँ
चल घर पे चलके बात करें घर की बात है
कब कौन किसके शाने पे चढ़ जाए क्या पता
ऊपर पहुँचना भी तो सुअवसर की बात है
सब की क़लम से एक ही क़िस्सा निकलता था
आज़ादी छिन गई थी पिछत्तर की बात…
Added by सालिक गणवीर on August 10, 2020 at 11:30pm — 12 Comments
(2122 1212 22/122)
लोग घर के हों या कि बाहर के
प्यार करिएगा उनसे जी भर के
जाने क्या कह दिया है क़तरे ने
हौसले पस्त हैं समंदर के
जिस्म पर जब कोई निशाँ ही नहीं
कौन देखेगा ज़ख़्म अंदर के
दोस्ती उन से कर ली दरिया ने
जो थे दुश्मन कभी समंदर के
एक शीशे से ख़ौफ़ खाते हैं
लोग जो लग रहे थे पत्थर के
एक बस माँ को बाँट पाए नहीं
घर के टुकड़े हुए बराबर के
गरचे हर घर की है कहानी…
ContinueAdded by सालिक गणवीर on August 2, 2020 at 3:30pm — 15 Comments
(2122 1122 1122 22/112)
उनके ख़्वाबों पे ख़यालात पे रोना आया
अब तो मत पूछिये किस बात पे रोना आया
देखता कौन भरी आँखों को बरसातों में
फिर से आई हुई बरसात पे रोना आया
आप चाहें तो जो दो दिन में सुधर सकते हैं
उन बिगड़ते हुए हालात पे रोना आया
मुद्दतों जिनके जवाबात को तरसा हूँ मैं
आज कुछ ऐसे सवालात पे रोना आया
मुझको मालूम था अंजाम यही होना है
जीत रोने से हुई मात पे रोना आया
दिन…
ContinueAdded by सालिक गणवीर on July 29, 2020 at 12:00pm — 13 Comments
1222 1222 122
यहाँ तनहाइयों में क्या रखा है
चलो भी गाँव में मेला लगा है
तुझे मैं आज पढ़ना चाहता हूँ
मिरी तक़दीर में अब क्या लिखा है
किनारे पर भी आकर डूब जाओ
नदी है,नाख़ुदा तो बह चुका है
निकलना चाहता है मुझसे आगे
मिरा साया मिरे पीछे पड़ा है
ज़रा आगे चलूँ या लौट जाऊँ
गली के मोड़ पर फिर मैक़दा है
उसी पर मर रहे हैं लोग सारे
जो अपने आप पर कब से फ़िदा है
सितारों चैन से…
ContinueAdded by सालिक गणवीर on July 27, 2020 at 8:00am — 13 Comments
1212 1122 1212 22/112
गली से जाते हुए पैरों के निशान मिले
कहीं पे उजड़े हुए-से कई मकान मिले
ये अपने-अपने मुक़द्दर की बात है भाई
मुझे ज़मीं न मिली तुमको आसमान मिले
किसी ज़माने में उनके बहुत क़रीब थे हम
अभी तो फ़ासले ही सिर्फ़ दरमियान मिले
इसे भी बेचने आए थे लोग मंडी में
कहीं पे दीन मिला और कुछ ईमान मिले
मैं चढ़ के आ तो गया हूँ ऊँचाई पर लेकिन
मुझे भी ज़ीस्त में छोटी-सी इक ढलान…
Added by सालिक गणवीर on July 23, 2020 at 8:01am — 4 Comments
(2122 2122 2122 212)
सोचता हूँ आज तक ग़ज़लों से क्या हासिल हुआ
पहले से बीमार था दिल दर्द भी शामिल हुआ
जब तलक घुटनों के बल चलता रहा था ख़ुश बहुत
आ पड़ा ग़म सर पे जब से दौड़ के क़ाबिल हुआ
ज़िंदगी में तुम नहीं थे इक अधूरापन-सा था
जब से आए हो ये लगता है कि मैं कामिल हुआ
चलते-चलते लोग कहते हैं सफ़र आसान है
ज़िंदगानी में सरकना भी बहुत मुश्किल हुआ
वो शरीक-ए-ग़म है अब मैं क्या कहूँ तारीफ़ में
चोट लगती है मुझे वो…
Added by सालिक गणवीर on July 21, 2020 at 9:30am — 12 Comments
(221 2121 1221 212)
हद में कभी थे हद से गुज़रना पड़ा हमें
कई बार जीने के लिए मरना पड़ा हमें
शेरों की माँद में भी कभी बेहिचक गए
दौर-ए-रवाँ में चूहों से डरना पड़ा हमें
आकर समेटता है हमें वो ही बारहा
हर बार टूटते ही बिखरना पड़ा हमें
आए नहीं वो कल भी तो हर बार की तरह
वादे से अपने आज मुकरना पड़ा हमें
मंज़िल भी होती पाँव के नीचे मगर सुनो
उसके लिए रस्ते में ठहरना पड़ा हमें
होते कहीं पे हम भी…
ContinueAdded by सालिक गणवीर on July 18, 2020 at 7:00am — 6 Comments
(221 2121 1221 212)
उकता गया हूँ इनसे मेरे यार कम करो
ख़ालिस की है तलब ये अदाकार कम करो
आगे जो सबसे है वो ये आदेश दे रहा
आराम से चलो सभी रफ़्तार कम करो
वो हमसे कह रहे हैं कि मसनद बड़ी बने
हम उनसे कह रहे हैं कि आकार कम करो
जो मेरे दुश्मनों को गले से लगा रहा
मुझसे कहा कि दोस्तोंं से प्यार कम करो
अपने घरों में क़ैद हैं , हर रोज़ छुट्टियाँ
किससे कहें कि अब तो ये इतवार कम करो
बाज़ार में तो…
ContinueAdded by सालिक गणवीर on July 11, 2020 at 7:30am — 8 Comments
(221 2121 1221 212)
जाना है एक दिन न मगर फिक्र कर अभी
हँस,खेल,मुस्कुरा तू क़ज़ा से न डर अभी
आयेंगे अच्छे दिन भी कभी तो हयात में
मर-मर के जी रहे हैं यहाँ क्यूँँ बशर अभी
हम वो नहीं हुज़ूर जो डर जाएँँ चोट से
हमने तो ओखली में दिया ख़ुद ही सर अभी
सच बोलने की उसको सज़ा मिल ही जाएगी
उस पर गड़ी हुई है सभी की नज़र अभी
हँस लूँ या मुस्कुराऊँ , लगाऊँ मैं क़हक़हे
ग़लती से आ गई है ख़ुशी मेरे घर…
Added by सालिक गणवीर on June 30, 2020 at 8:00am — 14 Comments
( 2122 2122 212 )
ज़िंदगी में तेरी हम शामिल नहीं
तूने समझा हमको इस क़ाबिल नहीं
जान मेरी कैसे ले सकता है वो
दोस्त है मेरा कोई क़ातिल नहीं
सारी तैयारी तो मैंने की मगर
जश्न में ख़ुद मैं ही अब शामिल नहींं
हमको जिस पर था किनारे का गुमाँ
वो भंवर था दोस्तो साहिल नहीं
सोच कर हैरत ज़दा हूँ दोस्तो
साँप तो दिखते हैं लेकिन बिल नहीं
देखने में है तो मेरे यार - सा
उसके होटों के किनारे तिल…
Added by सालिक गणवीर on June 17, 2020 at 11:00pm — 6 Comments
(1222 1222 1222 1222)
अभी जो है वही सच है तेरे मेरे फ़साने में
अबद तक कौन रहता है सलामत इस ज़माने में
तड़पता देख कर मुझको सड़क पर वो नहीं रूकता
कहीं झुकना न पड़ जाए उसे मुझको उठाने में
गले का दर्द सुनते हैं वो पल में ठीक करता है
महारत भी जिसे हासिल है आवाज़ें दबाने में
किसी दिन टूट जाएँगी ये चट्टानें खड़ी हैं जो
लगेगा वक़्त शीशे को हमें पत्थर बनाने में
अजब महबूब है मेरा जो पल में रुठ जाता है
महीने बीत…
Added by सालिक गणवीर on June 13, 2020 at 2:00pm — 12 Comments
( 2212 122 2212 122)
कितनी सियाह रातों में हम बहा चुके हैं
ये अश्क फिर भी देखो आंँखों में आ चुके हैं
गर आके देख लो तो गड्ढे भी न मिलेंगे
हाँ,लोग काग़ज़ों पर नहरें बना चुके हैं
अब खिलखिला रहे हैं सब लोग महफ़िलों में
मतलब है साफ सारे मातम मना चुके हैं
वो ख़्वाब सुब्ह का था इस बार झूठ निकला
ता'बीर के लिए हम नींदें उड़ा चुके हैं
अब पाप का यहाँ पर नाम-ओ-निशांँ नहीं है
सब लोग शह्र के अब गंगा नहा चुके…
Added by सालिक गणवीर on June 9, 2020 at 4:00pm — 9 Comments
(2122 1212 22)
दूर की रौशनी से क्या कहते
था अंधेरा किसी से क्या कहते
जगमगाती सियाह रातों में
दर्द की चांदनी से क्या कहते
सारा पानी किसी ने रोका था
बेवजह हम नदी से क्या कहते
सामने उसके गिड़गिड़ाए थे
उसके खाता-बही से क्या कहते
अब वो हैवान बन गया तो फ़िर
हम उसी आदमी से क्या कहते
पी गए ख़ूं भी लोग सहरा में
आलमे-तिश्नगी से क्या कहते
तेरी गलियाँ तुझे मुबारक हो …
Added by सालिक गणवीर on June 7, 2020 at 4:30pm — 7 Comments
(2122 1212 22/112)
शह्र में फ़िर बवाल है बाबा
ये नया द्रोहकाल है बाबा
एक तालाब अब नहीं दिखता
क्या यही नैनीताल है बाबा?
क्या इसे ही उरूज कहते हैं?
अस्ल में ये ज़वाल है बाबा
भूख हर रोज़ पूछ लेती है
रोटियों का सवाल है बाबा
आंख इतना बरस चुकी अब तो
आंसुओं का अकाल है बाबा
मैं अकेला ही लड़ पड़ा सबसे
देखकर वो निढाल है बाबा
क़ब्र के वास्ते जगह न रही
फावड़ा है…
ContinueAdded by सालिक गणवीर on May 31, 2020 at 8:00am — 18 Comments
(1222 1222 122)
नहीं था इतना भी सस्ता कभी मैं
बशर हूँ ,था बहुत मंहगा कभी मैं
अभी जिसने रखा है घर से बाहर
उसी के दिल में रहता था कभी मैं
जिसे कहते हो तुम भी झोपड़ी अब
मिरा घर है वहीं पर था कभी मैं
वहाँ पर क़ैद कर रक्खा है उसने
जहाँ देता रहा पहरा कभी मैं
सड़क पर क़ाफिला है साथ मेरे
नहीं इतना रहा तन्हा कभी मैं
मुझे भी तुम अगर तिनका बनाते
हवा के साथ उड़ जाता कभी…
Added by सालिक गणवीर on May 24, 2020 at 8:30am — 8 Comments
(221 2121 1221 212)
अंधी गली के मोड़ पे सूना मकान है
तन्हा-सा आदमी अब इस घर की शान है
हमसे उन्होंने आज तलक कुछ नहीं कहा
हर बार उससे पूछा है जो बेज़बान है
हालात-ए- माज़ूर यक़ीनन हुये बुरे
ऊपर चढ़ाई है वहीं नीचे ढलान है
बदक़िस्मती का ये भी नमूना तो देखिये
गड्ढे नहीं मिले थे जहाँ पर खदान है
मरने के बाद भी तो फ़राग़त नहीं मिली
सारे बदन पे बोझ है मिट्टी लदान है
*मौलिक एवं…
ContinueAdded by सालिक गणवीर on May 21, 2020 at 6:00pm — 6 Comments
( 2122 2122 2122 )
हम सुनाते दास्ताँ फिर ज़िन्दगी की
काश हम भी काटते फसलें ख़ुशी की
अब चुरा लो शम्स की भी धूप सारी
कोई तो बदलो ये सूरत तीरगी की
जानवर अब हैं ज़ियादा जंगलों में
नस्ल घटती जा रही है आदमी की
हैं अंधेरे घर में अपने क़ैद सारे
कौन खींचेगा लकीरें रौशनी की
जो भी हो सागर मिलेगा तिश्नगी को
बाढ़ ले जाये हमें अब तो नदी की
आंखेंं फट जाएँगी हैरत से…
ContinueAdded by सालिक गणवीर on May 15, 2020 at 7:00pm — 10 Comments
1222 1222 1222 1222
तिजारत कैसे की जाए हुआ है फैसला जब से
बड़ी किल्लत है पानी की लहू सस्ता हुआ जब से
मशीनें अब यहाँ पर और महंगी क्यों नहीं होंगी?
वतन में मुफ़्त ही इंसान भी मिलने लगा जब से
हमारा शह्र छोटा था मगर मिलता नहीं था वो
हमें अक्सर बुलाता है नयी दिल्ली गयाा जब से
समय के साथ कम होगी यही हम सोच बैठे थे
ये दूरी कम नहीं होती मिटा है फासला जब से
नयी शक्लें दिखाता था कभी जब सामने आया
नहीं जाता…
Added by सालिक गणवीर on May 9, 2020 at 5:00pm — 17 Comments
(121 22 121 22 121 22 121 22)
नया ज़माना कभी न आया , पुरानी दुनिया बदल रही है
ज़मीन पैरों तले थी कल तक ,न जाने कैसे फिसल रही है
बुझा न पायेंगी आंधियाँ भी ,हवाओं से जिस की दोस्ती है
अभी तो शम्अ जवां हुई है ,अभी धड़ल्ले से जल रही है
किसी के अरमां मचल रहे हैं , हुई किसी की मुराद पूरी
यहाँ उठी है किसी की डोली, वहाँ से अरथी निकल रही है
निकल रहा है किसी का सूरज,अभी हुई दोपहर किसी की
हमारे दिन तो गुज़र चुके हैं , हमारी अब…
Added by सालिक गणवीर on May 5, 2020 at 7:00am — 5 Comments
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