बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२
वक़्त कसाई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ
जाने कितने टुकड़ों में किस किस के साथ गया हूँ
हल्के आघातों से भी मैं टूट बिखर जाता हूँ
इतनी बार हुआ हुँ ठंडा इतनी बार तपा हूँ
जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें
झूठे वादों की कीमत पर मैं हर बार बिका हूँ
अब दोनों में कोई अन्तर समझ नहीं आता है
सुख में दुख में आँसू बनकर इतनी बार बहा हूँ
मुझमें ही शैतान कहीं है और…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 12, 2015 at 4:40pm — 24 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 11, 2015 at 4:04pm — 24 Comments
बह्र : २१२२ १२१२ २२
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फ़स्ल कम है किसान ज़्यादा हैं
ये ज़मीनें मसान ज़्यादा हैं
टूट जाएँगे मठ पुराने सब
देश में नौजवान ज़्यादा हैं
हर महल की यही कहानी है
द्वार कम नाबदान ज़्यादा हैं
आ गई राजनीति जंगल में
जानवर कम, मचान ज़्यादा हैं
हाल क्या है वतन का मत पूछो
गाँव कम हैं प्रधान ज़्यादा हैं
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(मौलिक एवम् अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 2, 2015 at 1:00pm — 41 Comments
(१)
"मुई मई जान लेने आ गई"। मनफूला ने पंखा झलते हुए कहा। सुबह के दस बज रहे थे और दस बजे से ही गर्म हवा बहनी शुरू हो गई थी। गर्मी ने इस बार पिछले सत्ताईस वर्षों का रिकार्ड तोड़ दिया था। उनकी बहू राधा आँवले के चूर्ण को छोटी छोटी शीशियों में भर रही थी। उसका ब्लाउज पसीने से पूरी तरह भीग चुका था। उनका बेटा श्रीराम बाहर कुएँ से पानी खींचकर नहाने जा रहा था। घर के आँगन में दीवार से सटकर खड़ी एक पुरानी साइकिल श्रीराम का इंतजार कर…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 28, 2015 at 6:30pm — 16 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
माना मिट जाते हैं अक्षर कलम नहीं मिटती
मारो बम गोली या पत्थर कलम नहीं मिटती
जितने रोड़े आते उतना ज़्यादा चलती है
लुटकर, पिटकर, दबकर, घुटकर कलम नहीं मिटती
इसे मिटाने की कोशिश करते करते इक दिन
मिट जाते हैं सारे ख़ंजर कलम नहीं मिटती
पंडित, मुल्ला और पादरी सब मिट जाते हैं
मिट जाते मज़हब के दफ़्तर कलम नहीं मिटती
जब से कलम हुई पैदा सबने ये देखा है
ख़ुदा मिटा करते…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 25, 2015 at 12:30pm — 29 Comments
बह्र : २१२ २१२ २१२२
दूसरों में कमी ढूँढ़ते हैं
कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं
प्रेमिका उर्वशी ढूँढ़ते हैं
पर वधू जानकी ढूँढ़ते हैं
हर जगह गुदगुदी ढूँढ़ते हैं
घास भी मखमली ढूँढ़ते हैं
वोदका पीजिए आप, हम तो
दो नयन शर्बती ढूँढ़ते हैं
वो तो शैतान है जिसके बंदे
क़त्ल में बंदगी ढूँढ़ते हैं
आज भी हम समय की नदी में
बह गई ज़िन्दगी ढूँढ़ते हैं
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(मौलिक एवं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 15, 2015 at 11:42pm — 28 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२
फिर मिल जाये तुम्हें वही रस्ता, रुक जाना
ख़ुद को दुहराने से है अच्छा रुक जाना
उनके दो ही काम दिलों पर भारी पड़ते
एक तो उनका चलना औ’ दूजा रुक जाना
दिल बंजर हो जाएगा आँसू मत रोको
ख़तरनाक है यूँ पानी खारा रुक जाना
तोड़ रहे तो सारे मंदिर मस्जिद तोड़ो
नफ़रत फैलाएगा एक ढाँचा रुक जाना
पंडित, मुल्ला पहुँच गये हैं लोकसभा में
अब तो मुश्किल है ‘सज्जन’ दंगा रुक…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 13, 2015 at 10:32pm — 17 Comments
बह्र : २२१२ १२११ २२१२ १२
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अपनी मिठास पे उसे बेहद गरूर था
समझा था जिसको आम वो बंदा खजूर था
मृगया में लिप्त शेर को देखा जरूर था
बकरी के खानदान का इतना कसूर था
दिल्ली से दिल मिला न ही दिल्ली में दिल मिला
दिल्ली में रह के भी मैं यूँ दिल्ली से दूर था
शब्दों में विश्व जीत के शब्दों में छुप गया
लगता था जग को वीर जो शब्दों का शूर था
हीरे बिके थे कल भी बहुत, आज भी बिकें
लेकिन…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 8, 2014 at 8:30pm — 30 Comments
मेरी नज़रें तुमको छूतीं
जैसे कोई नन्हा बच्चा
छूता है पानी
रंग रूप से मुग्ध हुआ मन
सोच रहा है कितना अद्भुत
रेशम जैसा तन है
जो तुमको छूकर उड़ती हैं
कितना मादक उन प्रकाश की
बूँदों का यौवन है
रूप नदी में छप छप करते
चंचल मन को सूझ रही है
केवल शैतानी
पोथी पढ़कर सुख की दुख की
धीरे धीरे मन का बच्चा
ज्ञानी हो जाएगा
तन का आधे से भी ज्यादा
हिस्सा होता केवल…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 2, 2014 at 8:58pm — 26 Comments
बह्र : २१२२ १२१२ २२
आजकल ये रुझान ज़्यादा है
ज्ञान थोड़ा बयान ज़्यादा है
है मिलावट, फ़रेब, लूट यहाँ
धर्म कम है दुकान ज्यादा है
चोट दिल पर लगी, चलो, लेकिन
देश अब सावधान ज़्यादा है
दूध पानी से मिल गया जब से
झाग थोड़ा उफ़ान ज़्यादा है
पाँव भर ही ज़मीं मिली मुझको
पर मेरा आसमान ज़्यादा है
ये नई राजनीति है ‘सज्जन’
काम थोड़ा बखान ज़्यादा है
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(मौलिक एवं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 20, 2014 at 3:35pm — 21 Comments
बह्र : २१२ २१२ २१२
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जाल सहरा पे डाले गए
यूँ समंदर खँगाले गए
रेत में धर पकड़ सीपियाँ
मीन सारी बचा ले गए
जो जमीं ले गए हैं वही
सूर्य, बादल, हवा ले गए
सर उन्हीं के बचे हैं यहाँ
वक्त पर जो झुका ले गए
मैं चला जब तो चलता गया
फूट कर खुद ही छाले गए
जानवर बन गए क्या हुआ
धर्म अपना बचा ले गए
खुद को मालिक समझते थे वो
अंत में जो निकाले…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 6, 2014 at 2:00pm — 24 Comments
पलकों ने चुम्बन के गीत सुने
आँखों ने ख़्वाबों के फूल चुने
साँसें यूँ साँसों से गले मिलीं
अंग अंग नस नस में डूब गया
हाथों ने हाथों से बातें की
और त्वचा ने सीखा शब्द नया
रोम रोम सिहरन के वस्त्र बुने
मेघों से बरस पड़ी मधु धारा
हवा मुई पी पीकर बहक गई
बाँसों के झुरमुट में चाँद फँसा
काँप काँप तारे गिर पड़े कई
रात नये सूरज की कथा गुने
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on June 19, 2014 at 9:24pm — 18 Comments
धर्म-कर्म दुनिया में
प्राणवायु भरना
कब सीखा पीपल ने
भेदभाव करना?
फल हों रसदार या
सुगंधित हों फूल
आम साथ…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 26, 2014 at 11:00am — 20 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 20, 2014 at 5:18pm — 28 Comments
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण
तभी तो ये दोनों मोड़ देते हैं दिक्काल के धागों से बुनी चादर
कम कर देते हैं समय की गति…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 1, 2014 at 10:30am — 12 Comments
मैं पूँजीवादी मशीनरी का चमचमाता हुआ पुर्ज़ा हूँ
मेरे देश की शिक्षा पद्धति ने
मेरे भीतर मौजूद लोहे को वर्षों पहले पहचान लिया था
इसलिए फ़ौरन सुनहरे…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 24, 2014 at 11:30am — 16 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 17, 2014 at 5:30pm — 34 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २
जीने का या मरने का
ढंग अलग हो करने का
सबका मूल्य बढ़ा लेकिन
भाव गिर गया धरने का
आज बड़े खुश मंत्री जी
मौका मिला मुकरने का
सिर्फ़ वोट देने भर से
कुछ भी नहीं सुधरने का
कूदो, मर जाओ `सज्जन'
नाम तो बिगड़े झरने का
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(मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 15, 2014 at 10:30am — 14 Comments
फल, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य,…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 9, 2014 at 10:30am — 26 Comments
ध्यान से देखो
वो पॉलीथीन जैसी रचना है
हल्की, पतली, पारदर्शी
पॉलीथीन में उपस्थित परमाणुओं की तरह
उस रचना के शब्द भी वही हैं
जो अत्यन्त विस्फोटक और ज्वलनशील वाक्यों में होते हैं
वो रचना
किसी बाजारू विचार को
घर घर तक पहुँचाने के लिए इस्तेमाल की जायेगी
उस पर बेअसर साबित होंगे आलोचना के अम्ल और क्षार
समय जैसा पारखी भी धोखा खा जाएगा
प्रकृति की सारी विनाशकारी शक्तियाँ मिलकर भी
उसे नष्ट…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 24, 2014 at 11:51pm — 11 Comments
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