पुरानी इमारतों, कदीम घरों, और बोसीदा मकानों में.....
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पुरानी इमारतों, कदीम घरों, और बोसीदा मकानों में एक अलग सी जाज्बियत (आकर्षण) महसूस होती है! ऐसा लगता है जैसे ये बीते ज़मानों का लिबास पहने हैं और इनके सीने में न जाने कितने किरदारों (चरित्रों) की कहानियां दफ्न है, न जाने कितनी मुहब्बतों और नफरतों के ये बेज़ुबान गवाह हैं.
पुणे शह्र में अंग्रेजों के ज़माने के कई मकान हैं जो आज भी सदियों…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 10:56pm — No Comments
सोचता हूँ.....
सोचता हूँ अगर जंगल बात करते तो क्या करते, अगर नदियाँ गातीं तो क्या गातीं, पहाड़ मुस्कराते तो किस तरह, और रास्ते अपनी राह भूल जाते तो किधर जाते.
सोचता हूँ अगर जानवर भी बोल पाते तो हमसे क्या शिकायतें करते, दीवारें हमें समझ पातीं तो क्या आसूं न बहातीं? घर की खामोश पड़ी चीज़ों को हमारे आने जाने की खबर होती तो हमें कितना टोकतीं- इनती देर क्यूँ लगाई, कहाँ जा रहे हो, कब आओगे, वगैरह वगैरह....शायद तब पत्नी के दूर होने का एहसास न…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 10:53pm — No Comments
मैं चिरकाल से अपनी आत्मा में समाधिस्थ हूँ...
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मैं चिरकाल से अपनी आत्मा में समाधिस्थ हूँ, मुझे सिर्फ इस बात में अटूट विश्वास की आवश्यकता है. शनैः शनैः यह ज्ञान मेरे बाह्य भौतिक जीवन को भी अपने दिव्य आनंद की रसभरी हिलोरों में समा लेगा और मैं सांसारिकता की लहरों पे चढ़ता उतरता भी अपने आदि देव परम पूज्य परमात्मा के अनंत साम्राज्य में ही स्थापित रहूँगा, उसके चिर पुरातन मंदिर के सिंहद्वार की तरह!
हे प्रभु! मैं…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 10:50pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
वो रिश्ता भूल आया हूँ............
जिस पुरानी कदीम सी जगह से
जन्मों का रिश्ता महसूस करता आया हूँ
उसी, हरे पानी की झील से लगी सीढ़ियों पे
एक रिश्ता भूल आया हूँ अपना.........
एक नामालूम अन्जान सा
बारिश की रात में
बादलों के पीछे छिपे चाँद सा रिश्ता
जिसे आँखों में भरकर अब तक ढोता रहा था
जागते सोते, हर मोड़ पे जिसे
साथ रखता था उम्मीद की तहों…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 6:39pm — 6 Comments
(आज से बारह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
दिल में बसे अंजान रास्ते..
दिल में भी हैं बसे
कई अंजान रास्ते
जिनकी वाक़िफ़त शायद
इक उम्र ले लेगी मेरी हैरान आँखों से चुराकर।
अच्छे, बुरे-जैसे भी हैं लोग गिर्दोपेश में
जो हमसाये हैं या हमसफ़र
या जो गुज़र गये बहुत पास आकर
सब, कहीं न कहीं बसे होतें हैं
इन्हीं अन्जान रास्तों पर
जो दिल में बसे तो होते हैं मगर
जिनके…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 6:27pm — 2 Comments
(आज से सोलह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
फकत मैं और ये आलम.....
ये कैसी ख़ामोशी है मेरे बिस्तर पे
मेरे पास बैठी दम-ब-दम
ये कैसे हैं अजनबी साये
मेरी हर सम्त मेरे बाहम
ये कौन है जो रुक गया
मेरे नज़दीक आके दफ्अतन
ये क्या शय है जो बिखर गई सरेदामन
ये कैसी तनहाई है जो
दुखा गई जीवन
ये कैसे हैं वीरानों के नशेमन
रात अफ्सुर्दा,
सियाह, मुस्तहकम
कितना अजीब है ये…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 6:12pm — 3 Comments
(आज से सोलह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
किधर हैं वो ज़ंदगी के मोड़.....
कहाँ है मेरी आँखों का
वो नीला समंदर
जिसमें तुम डूब जाना चाहते थे
कहाँ हैं मेरी कुर्बत के वो खुनक साये
जिसके तुम शैदाई थे
कहाँ है मेरे सीने में धड़कता
वो उदास दिल
जिसके हासिल का तुम्हें नाज़ था
कहाँ है वो मेरी तक़रीर-ए-बिस्मिल
जिसके तुम कायल थे
कहाँ है वो कूचा-ए-लड़कपन
जहाँ हम मिले थे पहली बार
कहाँ है वो…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 6:10pm — 4 Comments
(आज से दस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
जी चाहता है...
आज गमों में डूबा-डूबा है
मेरे एहसास का हर गोशा
भीगी-भीगी हैं पलकों पे
थके -थके तसव्वुर की बूँदें
रुका-रुका सा है जाता हुआ
इमरोज़ का साया
बुझे-बुझे से हैं बर्ग दरख्तों पे
और धूप के साये दीवारों पे
हर तरफ गुमशुदगी है नुमायाँ
और उदासी है निगाहों में
जी चाहता है आज कहीं न जाऊँ
कुछ न करूँ,
देर तलक बैठा…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 6:06pm — 2 Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
तेरे शहर की सब अलामतें......
ये तेरे शहर की तमाम अलामतें
अजनबी हैं मेरे लिये
ये तेरे शहर की दूर तक फैली
अहलेज़र की पुरनूर बस्ती
ये आलीशान मकानों का हुस्नख़ेज़ तसल्सुल
ये ज़ुल्फेसियह सी बेनियाज़
आवारामनिश राहगुज़र
ये रौशनियों की दिलावेज़ जल्वागाह
ये ख़ला-ए-फैज़बख्श
ये फज़ा-ए-तमकनत
ये कारों की होशकुन तग़ोदौ
ये होटलों की रौनक़ोरौ
ये…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 6:00pm — 4 Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
हम तो गिर्दाबेतमन्ना हैं.......
ख़ाम रहने दो मेरी रग़बते उलफ़त को अभी
टूट जाने दो मेरे ख़्वाब के शीराज़े को
जाँबहक हो भी गये इश्क़ में
तो कुछ भी नहीं
मिट गये काविशे बेसूद में
तो ये भी सही
जो भी अंजामेवफ़ा होगा देखा जायेगा
हश्र बर्बादी-ए-हस्ती का सोचा जाएगा
हम तो यूँ भी
बेदस्तो पा-ए-ज़िन्दगी थे बहुत
रंज में डूबे थे, अस्ना-ए-बेबसी थे बहुत
जी…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 5:58pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
यूँ ही, फकत यूँही......
यूँ ही
किसी राहगुज़र सा मुड़ गया है वक्त
एक लकीर पे चलते चलते.....
मैंने सोचा है इस मोड़ से आगे
वो जगह होगी शायद
जहाँ अपने माज़ी के हर एहसास को
गहरे दफ्न कर दूँ
और उसपे नामालूम सी तारीख का हवाला लिख दूँ
ताकि मैं खुद भी चाहकर कभी
अपनी माज़ूरियों की इबारत पढ़ न सकूँ
और सोच लूँ
मैंने जो ख्वाब कभी देखे थे नीम आँखों…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 5:54pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
कभी-कभी.....
कभी-कभी मेरे दिल में
ऐसे खयाल से क्यों आते हैं
कि मैं कब से उस दरिया के किनारे बैठा हूँ
जिसकी मौजें उठती गिरती
अपनी ही अथाह गहराइयों में खो गयी हैं
और कागज़ की वो कश्ती भी
जिसे भेजाना चाहा था उस पार
अनजान अपरिचित से देश में
अपनी अनबुझी तृषाओं का बोझ देकर
इस उम्मीद से शायद
कि पेड़ों और पहाड़ों के पीछे
जो क्षितिज हर सुबह रौशनी के…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 5:50pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
इंसाफ....
जिस किसी दयार में बसना चाहा
अजनबी दीवार के सायों ने घेर लिया मुझे
जिस किसी की ऑख से रिश्तों के नक्श चुराये
तेज़ हवाओं ने मिटा दिया उसे
जब कभी अॅधेरी रात में उम्मीदों की शमा रौशन की
मेरी खुद की बीनाई जाती रही
जिस किसी की सम्त रफाकत का इख्दाम किया
हाथों में खार निकल आये अपने
ज़िन्दगी,
अगर यही तेरा इंसाफ है
तो पहले बता दिया होता…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 5:46pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
पहले भी कई बार...
पहले भी कई बार
जब चाँद का शिकारा
आस्मान से उतर चुका हो
और तारे भी लौट चुके हों घर को
दूर... बाद्लों के पहाड़ के पीछे चिनार की बस्तियों में
जब दूर दूर फैली लबबस्ता खलाओं में
रात ने लिख दी हो ज़िन्दगी की शबनमी नज़्म
जब आहटों से बसी गलियों में
खुलने को हो आये हों
कायनात के सुफैद दरीचे
जब दरख्तों से हवा की सरगोशियों का…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 5:44pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
अक्सरहा टुकड़े टुकड़े ....
रिश्तों को अक्सरहा टुकड़े टुकडे जी कर
अपनी नज़्म की किताब पूरी की है मैंने
एहसासों को रेज़ा रेज़ा सीने से लगा कर
हर्फ के साये में ढाला है
अपनी रायगाँ तमन्नाओं को
आरज़ूओं को यूँहीं वहशतों का नाम दिया
शबोरोज़ के मामूल में कुछ यूँ ही
ज़िन्दगी गुज़ारी है अब तक
जैसे गुमशुदा खला में मेरे नाम का इक बर्ग
दीवानावार हवाओं के दस्त ब…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 4:49pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
गुम गया है कहीं.....
मेरी ही तन्हाइयों के सिरहाने
एक एहसास कहीं
गुम गया है मेरा
एक मासूम सादासिफत एहसास
जो अब तलक ज़िन्दगी से मेरी निसबत का
एक अकेला शाहिद था
वही एक
रेज़ा-रेज़ा सा एहसास मेरा
जिसे कभी तुमसे चुराया था
ज़िन्दगी भर के लिये
जिसे सहेज कर रखा था अब तलक
खयालों के पैरहन में
वो नन्हा सा मुब्तसिम एहसास
गुम गया है…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 4:46pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
तगय्युर.....
खण्डहरों में पलने लगे हैं
तामीर के सपने.
उजड़ी बस्तियों में
फिर से कोर्इ खोल रहा है
ज़िन्दगी के ज़ख़ीरे.
वीरान घरों की दहलीज़ पे फिर से
आहटें बसने लगी हैं,
खामोश दरीचों से परदे
सरकने लगे हैं,
छत की चिमनियों से
धुओं का रेला
निकलने लगा है एक बार फिर.
ख़ामोश फ़ज़ाओं में
सय्यारों का झुण्ड
निकलने को…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 4:43pm — 2 Comments
(आज से तीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
वितृष्णाओं का सफर.....
संवेदनाओं से चलकर
वितृष्णाओं का सफर
अपनी अनुभूतिओं को समेटकर
चल देने की कथा है
जिसमें कदाचित
संबंधों के कंपनशील तंतुओं के
टूट जाने की नियति होती है
जिसमें मैं सदैव की तरह
स्थितियों के विपर्यय से लड़ता
एक रिक्तता के अनुभव में
विलीन हो जाता हूँ
और आत्मवेदना के दवाब की हवा
आलोचना के मौसम में
सघन से सघनतर होती…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 4:12pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
मुझे प्यार की सज़ा दो.......
तुमसे बगैर पूछे मैंने
तुम्हें सोचा है कई बार
कभी शाम की लम्बी सड़क पे
तन्हा टहलते समनज़ारों तक
कभी रात की सियाह खामोशी में
चहलकदमी करते घर के चौबारे पर
कभी कमरे के रौज़न से
दूर बाहर खलाओं में देखते हुए
कभी शहर की भीड़-भाड़ सड़कों में
दफतर से लौटते हुए
यूँ ही कभी
कुछ करते, कुछ न करते हुए
सोचा है कई बार…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 4:04pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
अपनी हताशा से फिर इक बार उठूँगा....
मैं मानता हूँ,
तुम्हारी उपेक्षा का प्रहार सह न सका
और गिर गया निराशा की कठोर धरा पे
अपनी व्यथा का भार लिए!
मैं मानता हूँ
मेरी पीड़ाका अतिस्राव
अभी और भी दुखायेगा मुझे
जब तुमसे बह कर आने वाली हवा
स्मृतियों का एक पूरा संसार
छोड जाएगी पीछे!
मैं मानता हूँ
अभी और भी जलेंगे
मेरी…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 3:59pm — No Comments
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