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धर्मेन्द्र कुमार सिंह's Blog (230)

ग़ज़ल : सदा सच बोलता है जो कभी अफ़सर नहीं होता

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

 

कहीं भी आसमाँ पे मील का पत्थर नहीं होता

भटक जाता परिंदा, गर ख़ुदा, रहबर नहीं होता

 

कहें कुछ भी किताबें, देश का हाकिम ही मालिक है

दमन की शक्ति जिसके पास हो, नौकर नहीं होता

 

बचा पाएँगी मच्छरदानियाँ मज़लूम को कैसे

यहाँ जो ख़ून पीता है महज़ मच्छर नहीं होता

 

मिलाकर झूठ में सच बोलना, देना जब इंटरव्यू

सदा सच बोलता है जो कभी अफ़सर नहीं होता

 

ये पीली पत्तियाँ, पत्ते हरे आने…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 22, 2014 at 8:00pm — 28 Comments

ग़ज़ल : जाति की बात करने से क्या फ़ायदा

बह्र  : २१२ २१२ २१२ २१२

 

ये ख़ुराफ़ात करने से क्या फ़ायदा

जाति की बात करने से क्या फ़ायदा

 

हाय से बाय तक चंद पल ही लगें

यूँ मुलाकात करने से क्या फ़ायदा

 

हार कर जीत ले जो सभी का हृदय

उसकी शहमात करने से क्या फ़ायदा

 

आँसुओं का लिखा कौन समझा यहाँ?

आँख दावात करने से क्या फ़ायदा

 

ये जमीं सह सके जो बस उतना बरस

और बरसात करने से क्या फ़ायदा

 

कुछ नया कह सको गर तो ‘सज्जन’ सुने

फिर…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 12, 2014 at 9:24pm — 20 Comments

कविता : विकास का कचरा और कचरे का विकास

शराब की खाली बोतल के बगल में लेटी है

सरसों के तेल की खाली बोतल

 

दो सौ मिलीलीटर आयतन वाली

शीतल पेय की खाली बोतल के ऊपर लेटी है

पानी की एक लीटर की खाली बोतल

 

दो मिनट में बनने वाले नूडल्स के ढेर सारे खाली पैकेट बिखरे पड़े हैं

उनके बीच बीच में से झाँक रहे हैं सब्जियों और फलों के छिलके

 

डर से काँपते हुए चाकलेट और टाफ़ियों के तुड़े मुड़े रैपर

हवा के झोंके के सहारे भागकर

कचरे से मुक्ति पाने की कोशिश कर रहे…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 1, 2014 at 11:03pm — 4 Comments

ग़ज़ल : परों को खोलकर अपने, जो किस्मत आजमाते हैं

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

 

गगन का स्नेह पाते हैं, हवा का प्यार पाते हैं

परों को खोलकर अपने, जो किस्मत आजमाते हैं

 

फ़लक पर झूमते हैं, नाचते हैं, गीत गाते हैं

जो उड़ते हैं उन्हें उड़ने के ख़तरे कब डराते हैं

 

परिंदों की नज़र से एक पल गर देख लो दुनिया

न पूछोगे कभी, उड़कर परिंदे क्या कमाते है

 

फ़लक पर सब बराबर हैं यहाँ नाज़ुक परिंदे भी

लड़ें गर सामने से तो विमानों को गिराते हैं

 

जमीं कहती, नई पीढ़ी के पंक्षी…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 24, 2014 at 10:15pm — 21 Comments

ग़ज़ल : सत्य लेकिन हजम नहीं होता

बह्र : २१२२ १२१२ २२

 

झूठ में कोई दम नहीं होता

सत्य लेकिन हजम नहीं होता

 

अश्क बहना ही कम नहीं होता

दर्द, माँ की कसम नहीं होता

 

मैं अदम* से अगर न टकराता

आज खुद भी अदम नहीं होता

 

दर्द-ए-दिल की दवा जो रखते हैं

उनके दिल में रहम नहीं होता

 

शे’र में बात अपनी कह देते

आपका सर कलम नहीं होता

 

*अदम = शून्य, अदम गोंडवी

-------

(मौलिक एवं…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 20, 2014 at 8:37pm — 16 Comments

ग़ज़ल : नयन में प्यार का गौहर सम्हाल रक्खा है

बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२

---------

सभी से आँख चुराकर सम्हाल रक्खा है

नयन में प्यार का गौहर सम्हाल रक्खा है

 

कहेगा आज भी पागल व बुतपरस्त मुझे

वो जिसके हाथ का पत्थर सम्हाल रक्खा है

 

तेरे चमन से न जाए बहार इस खातिर

हृदय में आज भी पतझर सम्हाल रक्खा है

 

चमन मेरा न बसा, घर किसी का बस जाए

ये सोच जिस्म का बंजर सम्हाल रक्खा है

 

तेरे नयन के समंदर में हैं भँवर, तूफाँ

किसी के प्यार ने लंगर सम्हाल…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 10, 2014 at 8:13pm — 25 Comments

कहानी : कटहल के पेड़ की आत्मकथा

(१)

जब मैंने होश सँभाला तो मेरी और राजू की लंबाई बराबर थी। मुझे आँगन के बीचोबीच राजू के दादाजी ने लगाया था। राजू के पिताजी अपने सभी भाइयों में सबसे बड़े हैं। पिछले पंद्रह वर्षों से घर में कोई छोटा बच्चा नहीं था। ऐसे में जब राजू का जन्म हुआ तो वह स्वाभाविक रूप से परिवार में सबका दुलारा बन गया, विशेषकर अपने दादाजी का। राजू की देखा देखी मैं भी उसके दादाजी को दादाजी कहने लगा। मेरे बारे में लोगों की अलग अलग राय थी। कुछ कहते थे कि आँगन में कटहल का पेड़…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 5, 2014 at 10:00pm — 4 Comments

नवगीत : पड़े रहेंगे बंद कहीं पर शादी के गहने

घूमूँगा बस प्यार तुम्हारा

तन मन पर पहने

पड़े रहेंगे बंद कहीं पर

शादी के गहने

 

चिल्लाते हैं गाजे बाजे

चीख रहे हैं बम

जेनरेटर करता है बक बक

नाच रही है रम

 

गली मुहल्ले मजबूरी में

लगे शोर सहने

 

सब को खुश रखने की खातिर

नींद चैन त्यागे

देहरी, आँगन, छत, कमरे सब

लगातार जागे

 

कौन रुकेगा दो दिन इनसे

सुख दुख की कहने

 

शालिग्राम जी सर पर बैठे

पैरों…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 5, 2014 at 7:59pm — 18 Comments

कविता : यंत्र युग

राष्ट्रपति बनने के लिए अब एकमात्र शर्त है

रोबोट होना

 

चाबी से चलने वाले खिलौनों को

प्रधानमंत्री पद के लिए प्राथमिकता दी जाती है

 

प्राणवान और बुद्धिमान बंदूकें बनाई जा रही हैं

गोलियों पर कारखानों में ही लिख दिये जाते हैं मरने वालों के नाम

 

इंसान विलुप्त हो चुके हैं

धरती पर रह गई है

मानव और यंत्र के समागम से बनी एक प्रजाति

 

सभी विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में

शिक्षा के नाम पर…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 3, 2014 at 7:46pm — 5 Comments

ग़ज़ल : ओढ़नी नोच डाली गई

बह्र : २१२ २१२ २१२

जब उड़ी नोच डाली गई
ओढ़नी नोच डाली गई

एक भौंरे को हाँ कह दिया
पंखुड़ी नोच डाली गई

रीझ उठी नाचते मोर पे
मोरनी नोच डाली गई

खूब उड़ी आसमाँ में पतंग
जब कटी नोच डाली गई

देव मानव के चिर द्वंद्व में
उर्वशी नोच डाली गई
------------
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 24, 2014 at 9:55pm — 34 Comments

ग़ज़ल : आँखों में जो न उतरे वो दिल तलक न पहुँचे

बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२

रस्ते में जिस्म आया मंजिल तलक न पहुँचे

आँखों में जो न उतरे वो दिल तलक न पहुँचे

 

मंजिल मिली जिन्हें भी मँझधार में, उन्हीं पर

कसता जहान ताना, साहिल तलक न पहुँचे

 

जो पिस गये वो चमके हाथों की बन के मेंहदी

यूँ तो मिटेंगे वे भी जो सिल तलक न पहुँचे

 

मैं चाहता हूँ उसकी नज़रों से कत्ल होना

पर बात ये जरा सी कातिल तलक न पहुँचे

 

घटता है आज गर तो कल बढ़ भी जायेगा, पर

जानम…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 13, 2014 at 7:31pm — 18 Comments

लघुकथा : कामरेड हनुमान

श्रीराम कुछ क्रोधित होकर बोले, “हनुमान तुमसे सीता की ख़बर लाने को कहा था। तुमने लंका में आग क्यों लगा दी?”

हनुमान शांत भाव से बोले, “प्रभो! जब तक हम जैसे आदिवासी पहाड़ों की गुफाओं, जंगलों और खुले आसमान के नीचे रह रहे हैं तब तक दुनिया में किसी को भी सोने के महल में रहने का अधिकार नहीं है। मुझे धरती पर हमेशा रहना है अतः मैं कभी मार्क्स, कभी मिन्ह, कभी लेनिन तो कभी माओ बनकर जनमानस तक ये संदेश पहुँचाता रहूँगा। सोने की लंका जलाकर मैंने इसकी शुरुआत की है प्रभो।“

हनुमान…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 8, 2014 at 2:25pm — 22 Comments

कविता : राजनीति की शतरंज

राजनीति की शतरंज में

पैदल बिल्कुल सीधा चलता है

किंतु उसे केवल तिरछा मारने का अधिकार होता है

पैदल को रोकने के लिए उसके सामने एक पैदल लगा देना काफ़ी होता है

इसलिये पैदल संख्या में सबसे ज्यादा होते हुये भी

सबसे कमजोर मोहरा माना जाता है

 

कोई पैदल अगर बचते बचाते विपक्षी के घर में घुस जाय

और सारे राज जान ले

तो उसे फौरन मार दिया जाता है

या फिर वो जो बनना चाहे बना दिया जाता है

 

ऊँट बेचारा जो वास्तव में हमेशा सीधा…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 2, 2014 at 9:22pm — 17 Comments

ग़ज़ल : इश्क जबसे वो करने लगे

बह्र : २१२ २१२ २१२

------------

इश्क जबसे वो करने लगे

रोज़ घंटों सँवरने लगे

 

गाल पे लाल बत्ती हुई

और लम्हे ठहरने लगे

 

दिल की सड़कों पे बारिश हुई

जख़्म फिर से उभरने लगे

 

प्यार आखिर हमें भी हुआ

और हम भी सुधरने लगे

 

इश्क रब है ये जाना तो हम

प्यार हर शै से करने लगे

 

कर्म अच्छे किये हैं तो क्यूँ

भूत से आप डरने लगे

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(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 27, 2013 at 11:39pm — 13 Comments

लघुकथा : बल्ब और सीएफ़एल

सीएफ़एल बोली, "हे बल्ब महोदय! आप ऊर्जा बहुत ज्यादा खर्च करते हैं और रोशनी बहुत कम देते हैं। मैं आपकी तुलना में बहुत कम ऊर्जा खर्च करके आपसे कई गुना ज्यादा रोशनी दे सकती हूँ।"

 

बल्ब महोदय ने चुपचाप सीएफ़एल के लिए कुर्सी खाली कर दी। रोशनी फैलाने वालों के इतिहास में बल्ब महोदय का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा गया।

 

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 7, 2013 at 11:30pm — 12 Comments

ग़ज़ल : सच है यही कि स्वर्ग न जाती हैं सीढ़ियाँ

बह्र : २२१२ १२११ २२१२ १२

-------- 

सच है यही कि स्वर्ग न जाती हैं सीढ़ियाँ

मैं उम्र भर चढ़ा हूँ पर बाकी हैं सीढ़ियाँ

 

तन के चढ़ो तो पल में गिराती हैं सीढ़ियाँ

झुक लो जरा तो सर पे बिठाती हैं सीढ़ियाँ

 

चढ़ते समय जो सिर्फ़ गगन देखता रहे

जल्दी उसे जमीन पे लाती हैं सीढ़ियाँ

 

मत भूलिये इन्हें भले आदत हो लिफ़्ट की

लगने पे आग जान बचाती हैं सीढ़ियाँ

 

रहना अगर है होश में चढ़ना सँभाल के

हर पग पे एक पैग…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 5, 2013 at 11:09pm — 24 Comments

ग़ज़ल : क्यूँ जाति की न अब भी दीवार टूटती है

बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२

 

इक दिन हर इक पुरानी दीवार टूटती है

क्यूँ जाति की न अब भी दीवार टूटती है

 

इसकी जड़ों में डालो कुछ आँसुओं का पानी

धक्कों से कब दिलों की दीवार टूटती है

 

हैं लोकतंत्र के अब मजबूत चारों खंभे

हिलती है जब भी धरती दीवार टूटती है

 

हथियार ले के आओ, औजार ले के आओ

कब प्रार्थना से कोई दीवार टूटती है

 

रिश्ते बबूल बनके चुभते हैं जिंदगी भर

शर्मोहया की जब भी दीवार टूटती…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 20, 2013 at 10:28pm — 18 Comments

ग़ज़ल : क्यूँ वो अक्सर मशीन होते हैं

बह्र : २१२२ १२१२ २२

---------

याँ जो बंदे ज़हीन होते हैं

क्यूँ वो अक्सर मशीन होते हैं

 

बीतना चाहते हैं कुछ लम्हे

और हम हैं घड़ी न होते हैं

 

प्रेम के वो न टूटते धागे

जिनके रेशे महीन होते हैं

 

वन में उगने से, वन में रहने से

पेड़ खुद जंगली न होते हैं

 

उनको जिस दिन मैं देख लेता हूँ

रात सपने हसीन होते हैं

 

खट्टे मीठे घुलें कई लम्हे

यूँ नयन शर्बती न होते…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2013 at 10:52pm — 34 Comments

ग़ज़ल : जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम

बह्र : २२१२ २२१२ २२१२ २२१२

 

जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम

हर पंक्ति में लिखने लगी आम आदमी मेरी कलम

 

जब से उलझ बैठी हैं उसकी ओढ़नी, मेरी कलम

करने लगी है रोज दिल में गुदगुदी मेरी कलम

 

कुछ बात सच्चाई में है वरना बताओ क्यों भला

दिन रात होती जा रही है साहसी मेरी कलम

 

यूँ ही गले मिल के हैलो क्या कह गई पागल हवा

तब से न जाने क्यूँ हुई है बावरी मेरी कलम

 

उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 15, 2013 at 11:34pm — 30 Comments

ग़ज़ल : सूखते नल के आँसू टपकने लगे

बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२

 

सूखते नल के आँसू टपकने लगे

देख छागल के आँसू टपकने लगे

 

भूख से चूक पत्थर गिरे याँ वहाँ

देखकर फल के आँसू टपकने लगे

 

था हवा की नज़र में तो बरसा नहीं

किंतु बादल के आँसू टपकने लगे

 

आइने ने कहा कुछ नहीं इसलिए

रात काजल के आँसू टपकने लगे

 

घास कुहरे से शब भर निहत्थे लड़ी

देख जंगल के आँसू टपकने लगे

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(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 8, 2013 at 12:30pm — 15 Comments

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