बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
कहीं भी आसमाँ पे मील का पत्थर नहीं होता
भटक जाता परिंदा, गर ख़ुदा, रहबर नहीं होता
कहें कुछ भी किताबें, देश का हाकिम ही मालिक है
दमन की शक्ति जिसके पास हो, नौकर नहीं होता
बचा पाएँगी मच्छरदानियाँ मज़लूम को कैसे
यहाँ जो ख़ून पीता है महज़ मच्छर नहीं होता
मिलाकर झूठ में सच बोलना, देना जब इंटरव्यू
सदा सच बोलता है जो कभी अफ़सर नहीं होता
ये पीली पत्तियाँ, पत्ते हरे आने…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 22, 2014 at 8:00pm — 28 Comments
बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२
ये ख़ुराफ़ात करने से क्या फ़ायदा
जाति की बात करने से क्या फ़ायदा
हाय से बाय तक चंद पल ही लगें
यूँ मुलाकात करने से क्या फ़ायदा
हार कर जीत ले जो सभी का हृदय
उसकी शहमात करने से क्या फ़ायदा
आँसुओं का लिखा कौन समझा यहाँ?
आँख दावात करने से क्या फ़ायदा
ये जमीं सह सके जो बस उतना बरस
और बरसात करने से क्या फ़ायदा
कुछ नया कह सको गर तो ‘सज्जन’ सुने
फिर…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 12, 2014 at 9:24pm — 20 Comments
शराब की खाली बोतल के बगल में लेटी है
सरसों के तेल की खाली बोतल
दो सौ मिलीलीटर आयतन वाली
शीतल पेय की खाली बोतल के ऊपर लेटी है
पानी की एक लीटर की खाली बोतल
दो मिनट में बनने वाले नूडल्स के ढेर सारे खाली पैकेट बिखरे पड़े हैं
उनके बीच बीच में से झाँक रहे हैं सब्जियों और फलों के छिलके
डर से काँपते हुए चाकलेट और टाफ़ियों के तुड़े मुड़े रैपर
हवा के झोंके के सहारे भागकर
कचरे से मुक्ति पाने की कोशिश कर रहे…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 1, 2014 at 11:03pm — 4 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
गगन का स्नेह पाते हैं, हवा का प्यार पाते हैं
परों को खोलकर अपने, जो किस्मत आजमाते हैं
फ़लक पर झूमते हैं, नाचते हैं, गीत गाते हैं
जो उड़ते हैं उन्हें उड़ने के ख़तरे कब डराते हैं
परिंदों की नज़र से एक पल गर देख लो दुनिया
न पूछोगे कभी, उड़कर परिंदे क्या कमाते है
फ़लक पर सब बराबर हैं यहाँ नाज़ुक परिंदे भी
लड़ें गर सामने से तो विमानों को गिराते हैं
जमीं कहती, नई पीढ़ी के पंक्षी…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 24, 2014 at 10:15pm — 21 Comments
बह्र : २१२२ १२१२ २२
झूठ में कोई दम नहीं होता
सत्य लेकिन हजम नहीं होता
अश्क बहना ही कम नहीं होता
दर्द, माँ की कसम नहीं होता
मैं अदम* से अगर न टकराता
आज खुद भी अदम नहीं होता
दर्द-ए-दिल की दवा जो रखते हैं
उनके दिल में रहम नहीं होता
शे’र में बात अपनी कह देते
आपका सर कलम नहीं होता
*अदम = शून्य, अदम गोंडवी
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(मौलिक एवं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 20, 2014 at 8:37pm — 16 Comments
बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ २२
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सभी से आँख चुराकर सम्हाल रक्खा है
नयन में प्यार का गौहर सम्हाल रक्खा है
कहेगा आज भी पागल व बुतपरस्त मुझे
वो जिसके हाथ का पत्थर सम्हाल रक्खा है
तेरे चमन से न जाए बहार इस खातिर
हृदय में आज भी पतझर सम्हाल रक्खा है
चमन मेरा न बसा, घर किसी का बस जाए
ये सोच जिस्म का बंजर सम्हाल रक्खा है
तेरे नयन के समंदर में हैं भँवर, तूफाँ
किसी के प्यार ने लंगर सम्हाल…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 10, 2014 at 8:13pm — 25 Comments
(१)
जब मैंने होश सँभाला तो मेरी और राजू की लंबाई बराबर थी। मुझे आँगन के बीचोबीच राजू के दादाजी ने लगाया था। राजू के पिताजी अपने सभी भाइयों में सबसे बड़े हैं। पिछले पंद्रह वर्षों से घर में कोई छोटा बच्चा नहीं था। ऐसे में जब राजू का जन्म हुआ तो वह स्वाभाविक रूप से परिवार में सबका दुलारा बन गया, विशेषकर अपने दादाजी का। राजू की देखा देखी मैं भी उसके दादाजी को दादाजी कहने लगा। मेरे बारे में लोगों की अलग अलग राय थी। कुछ कहते थे कि आँगन में कटहल का पेड़…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 5, 2014 at 10:00pm — 4 Comments
घूमूँगा बस प्यार तुम्हारा
तन मन पर पहने
पड़े रहेंगे बंद कहीं पर
शादी के गहने
चिल्लाते हैं गाजे बाजे
चीख रहे हैं बम
जेनरेटर करता है बक बक
नाच रही है रम
गली मुहल्ले मजबूरी में
लगे शोर सहने
सब को खुश रखने की खातिर
नींद चैन त्यागे
देहरी, आँगन, छत, कमरे सब
लगातार जागे
कौन रुकेगा दो दिन इनसे
सुख दुख की कहने
शालिग्राम जी सर पर बैठे
पैरों…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 5, 2014 at 7:59pm — 18 Comments
राष्ट्रपति बनने के लिए अब एकमात्र शर्त है
रोबोट होना
चाबी से चलने वाले खिलौनों को
प्रधानमंत्री पद के लिए प्राथमिकता दी जाती है
प्राणवान और बुद्धिमान बंदूकें बनाई जा रही हैं
गोलियों पर कारखानों में ही लिख दिये जाते हैं मरने वालों के नाम
इंसान विलुप्त हो चुके हैं
धरती पर रह गई है
मानव और यंत्र के समागम से बनी एक प्रजाति
सभी विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में
शिक्षा के नाम पर…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 3, 2014 at 7:46pm — 5 Comments
बह्र : २१२ २१२ २१२
जब उड़ी नोच डाली गई
ओढ़नी नोच डाली गई
एक भौंरे को हाँ कह दिया
पंखुड़ी नोच डाली गई
रीझ उठी नाचते मोर पे
मोरनी नोच डाली गई
खूब उड़ी आसमाँ में पतंग
जब कटी नोच डाली गई
देव मानव के चिर द्वंद्व में
उर्वशी नोच डाली गई
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 24, 2014 at 9:55pm — 34 Comments
बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२
रस्ते में जिस्म आया मंजिल तलक न पहुँचे
आँखों में जो न उतरे वो दिल तलक न पहुँचे
मंजिल मिली जिन्हें भी मँझधार में, उन्हीं पर
कसता जहान ताना, साहिल तलक न पहुँचे
जो पिस गये वो चमके हाथों की बन के मेंहदी
यूँ तो मिटेंगे वे भी जो सिल तलक न पहुँचे
मैं चाहता हूँ उसकी नज़रों से कत्ल होना
पर बात ये जरा सी कातिल तलक न पहुँचे
घटता है आज गर तो कल बढ़ भी जायेगा, पर
जानम…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 13, 2014 at 7:31pm — 18 Comments
श्रीराम कुछ क्रोधित होकर बोले, “हनुमान तुमसे सीता की ख़बर लाने को कहा था। तुमने लंका में आग क्यों लगा दी?”
हनुमान शांत भाव से बोले, “प्रभो! जब तक हम जैसे आदिवासी पहाड़ों की गुफाओं, जंगलों और खुले आसमान के नीचे रह रहे हैं तब तक दुनिया में किसी को भी सोने के महल में रहने का अधिकार नहीं है। मुझे धरती पर हमेशा रहना है अतः मैं कभी मार्क्स, कभी मिन्ह, कभी लेनिन तो कभी माओ बनकर जनमानस तक ये संदेश पहुँचाता रहूँगा। सोने की लंका जलाकर मैंने इसकी शुरुआत की है प्रभो।“
हनुमान…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 8, 2014 at 2:25pm — 22 Comments
राजनीति की शतरंज में
पैदल बिल्कुल सीधा चलता है
किंतु उसे केवल तिरछा मारने का अधिकार होता है
पैदल को रोकने के लिए उसके सामने एक पैदल लगा देना काफ़ी होता है
इसलिये पैदल संख्या में सबसे ज्यादा होते हुये भी
सबसे कमजोर मोहरा माना जाता है
कोई पैदल अगर बचते बचाते विपक्षी के घर में घुस जाय
और सारे राज जान ले
तो उसे फौरन मार दिया जाता है
या फिर वो जो बनना चाहे बना दिया जाता है
ऊँट बेचारा जो वास्तव में हमेशा सीधा…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 2, 2014 at 9:22pm — 17 Comments
बह्र : २१२ २१२ २१२
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इश्क जबसे वो करने लगे
रोज़ घंटों सँवरने लगे
गाल पे लाल बत्ती हुई
और लम्हे ठहरने लगे
दिल की सड़कों पे बारिश हुई
जख़्म फिर से उभरने लगे
प्यार आखिर हमें भी हुआ
और हम भी सुधरने लगे
इश्क रब है ये जाना तो हम
प्यार हर शै से करने लगे
कर्म अच्छे किये हैं तो क्यूँ
भूत से आप डरने लगे
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 27, 2013 at 11:39pm — 13 Comments
सीएफ़एल बोली, "हे बल्ब महोदय! आप ऊर्जा बहुत ज्यादा खर्च करते हैं और रोशनी बहुत कम देते हैं। मैं आपकी तुलना में बहुत कम ऊर्जा खर्च करके आपसे कई गुना ज्यादा रोशनी दे सकती हूँ।"
बल्ब महोदय ने चुपचाप सीएफ़एल के लिए कुर्सी खाली कर दी। रोशनी फैलाने वालों के इतिहास में बल्ब महोदय का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा गया।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 7, 2013 at 11:30pm — 12 Comments
बह्र : २२१२ १२११ २२१२ १२
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सच है यही कि स्वर्ग न जाती हैं सीढ़ियाँ
मैं उम्र भर चढ़ा हूँ पर बाकी हैं सीढ़ियाँ
तन के चढ़ो तो पल में गिराती हैं सीढ़ियाँ
झुक लो जरा तो सर पे बिठाती हैं सीढ़ियाँ
चढ़ते समय जो सिर्फ़ गगन देखता रहे
जल्दी उसे जमीन पे लाती हैं सीढ़ियाँ
मत भूलिये इन्हें भले आदत हो लिफ़्ट की
लगने पे आग जान बचाती हैं सीढ़ियाँ
रहना अगर है होश में चढ़ना सँभाल के
हर पग पे एक पैग…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 5, 2013 at 11:09pm — 24 Comments
बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२
इक दिन हर इक पुरानी दीवार टूटती है
क्यूँ जाति की न अब भी दीवार टूटती है
इसकी जड़ों में डालो कुछ आँसुओं का पानी
धक्कों से कब दिलों की दीवार टूटती है
हैं लोकतंत्र के अब मजबूत चारों खंभे
हिलती है जब भी धरती दीवार टूटती है
हथियार ले के आओ, औजार ले के आओ
कब प्रार्थना से कोई दीवार टूटती है
रिश्ते बबूल बनके चुभते हैं जिंदगी भर
शर्मोहया की जब भी दीवार टूटती…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 20, 2013 at 10:28pm — 18 Comments
बह्र : २१२२ १२१२ २२
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याँ जो बंदे ज़हीन होते हैं
क्यूँ वो अक्सर मशीन होते हैं
बीतना चाहते हैं कुछ लम्हे
और हम हैं घड़ी न होते हैं
प्रेम के वो न टूटते धागे
जिनके रेशे महीन होते हैं
वन में उगने से, वन में रहने से
पेड़ खुद जंगली न होते हैं
उनको जिस दिन मैं देख लेता हूँ
रात सपने हसीन होते हैं
खट्टे मीठे घुलें कई लम्हे
यूँ नयन शर्बती न होते…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 17, 2013 at 10:52pm — 34 Comments
बह्र : २२१२ २२१२ २२१२ २२१२
जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम
हर पंक्ति में लिखने लगी आम आदमी मेरी कलम
जब से उलझ बैठी हैं उसकी ओढ़नी, मेरी कलम
करने लगी है रोज दिल में गुदगुदी मेरी कलम
कुछ बात सच्चाई में है वरना बताओ क्यों भला
दिन रात होती जा रही है साहसी मेरी कलम
यूँ ही गले मिल के हैलो क्या कह गई पागल हवा
तब से न जाने क्यूँ हुई है बावरी मेरी कलम
उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 15, 2013 at 11:34pm — 30 Comments
बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२
सूखते नल के आँसू टपकने लगे
देख छागल के आँसू टपकने लगे
भूख से चूक पत्थर गिरे याँ वहाँ
देखकर फल के आँसू टपकने लगे
था हवा की नज़र में तो बरसा नहीं
किंतु बादल के आँसू टपकने लगे
आइने ने कहा कुछ नहीं इसलिए
रात काजल के आँसू टपकने लगे
घास कुहरे से शब भर निहत्थे लड़ी
देख जंगल के आँसू टपकने लगे
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 8, 2013 at 12:30pm — 15 Comments
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