दोहा त्रयी : राजनीति
जलकुंभी सी फैलती, अनाचार की बेल ।
बड़े गूढ़ हैं क्या कहें, राजनीति के खेल ।।
आश्वासन के फल लगे, भाषण की है बेल ।
राजनीति के खेल की , बड़ी अज़ब है रेल ।।
राजनीति के खेल की, छुक- छुक करती रेल।
डिब्बे बदलें पटरियां, नेता खेलें खेल ।।
सुशील सरना / 23-1-22
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 23, 2022 at 3:50pm — 8 Comments
दोहा त्रयी...
दुख के जंगल हैं घने , सुख की छिटकी धूप ।
करम पड़ेंगे भोगने , निर्धन हो या भूप ।।
धन वैभव संसार का, आभासी शृंगार ।
कभी कहकहे जीत के, कभी मौन की हार ।।
विदित वेदना शूल की, विदित पुष्प की गंध ।
सुख-दुख दोनों जीव की, साँसों के अनुबंध ।।
सुशील सरना / 20-1-22
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 20, 2022 at 1:00pm — 5 Comments
इस जग में दाता बता .....दोहे
इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।
बहता हो जिस तीर पर, बिना दर्द का नीर ।।
इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।
मिल जाए जिस घाट पर, सुख का थोड़ा नीर ।।
इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।
मिट जाए जिस तीर पर, जग की सारी पीर ।।
इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।
राँझे से आकर मिले, उसकी बिछुड़ी हीर ।।
इस जग में दाता बता, कोई ऐसा तीर ।
जहाँ बने बिगड़ी हुई, बन्दों की तकदीर…
Added by Sushil Sarna on January 13, 2022 at 1:12pm — 1 Comment
दिल से दिल की हो गई, दिल ही दिल में बात ।
दिल तड़पा दिल के लिए, मचल गए जज़्बात ।
दिल में दिल की जीत है, दिल में दिल की हार -
दिल को दिल ही दिल मिली, धड़कन की सौगात ।
2.
काल गर्भ में है निहित, कर्म फलों का राज़।
अंतस में गूँजे सदा, कर्मों की आवाज़ ।
कर्म प्राण है जीव का, कर्म जीव की आस -
अच्छे कर्मो से करो, जीने का आगाज़ ।
सुशील सरना / 27-12-21
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 27, 2021 at 7:30pm — 4 Comments
ममता पर दोहे .....
जाते हैं जो चूमकर, मात-पिता के पाँव ।
राहों में उनके नहीं, आते दुख के गाँव ।1।
जीवन में आते नहीं, उनके दुख के गाँव ।
जिनके सिर रहती सदा, आशीषों की छाँव ।2।
धन वैभव संसार में, मिल जाते सौ बार ।
मिलें नहीं जाकर कभी, मात-पिता साकार ।3।
दृष्टि धुंधली हो गई, काया हुई निढाल ।
आई बेला साँझ की, ढूँढे नैना लाल ।4।
ममता ढूँढे पालने, में अपना वो लाल ।
जिसको देखे हो गए,…
Added by Sushil Sarna on December 13, 2021 at 1:00pm — 8 Comments
दोहा त्रयी. . . . . .
ह्रदय सरोवर में भरा, इच्छाओं का नीर ।
जितना इसमें डूबते, उतनी बढ़ती पीर ।।
मन्दिर -मन्दिर घूमिये , मिले न मन को चैन ।
मन के मन्दिर को लगें, अच्छे मन के बैन ।।
झूठे भी सच्चे लगें, स्वार्थ नीर में चित्र ।
मतलब के संसार में, थोड़े सच्चे मित्र ।।
सुशील सरना / 6-12-21
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 6, 2021 at 3:08pm — 10 Comments
मन से मन की हो गई, मन ही मन में बात ।
मन ने मन को वस्ल की, दी मन में सौगात ।
मन मधुकर मन पद्म में, ढूँढे मन का छोर -
साथ निशा के हो गया , मन में उदित प्रभात ।
तन में चलते श्वास का, मत करना विश्वास ।
इस तन के अस्तित्व का, श्वास -श्वास आभास ।
ये जीवन है मरीचिका , इसकी साँझ न भोर -
झूठा पतझड़ है यहाँ, झूठा है मधुमास ।
सुशील सरना / 4-12-21
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 4, 2021 at 12:00pm — 4 Comments
तेरे मेरे दोहे :......
बनकर यकीन आ गए, वो ख़्वाबों के ख़्वाब ।
मिली दीद से दीद तो, फीकी लगी शराब ।।
जीवन आदि अनंत का, अद्भुत है संसार ।
एक पृष्ठ पर जीत है, एक पृष्ठ पर हार ।।
बढ़ती जाती कामना ,ज्यों-ज्यों घटता श्वास ।
अवगुंठन में श्वास के, जीवित रहती प्यास ।।
कल में कल की कामना ,छल करती हर बार ।
कल के चक्कर में फँसा , ये सारा संसार ।।
बेचैनी में बुझ गए , जलते हुए चराग़ ।
उम्र भर का दे गए, इस…
Added by Sushil Sarna on November 28, 2021 at 1:30pm — 16 Comments
बन्धनहीन जीवन :......
क्यों हम
अपने दु :ख को
विभक्त नहीं कर सकते ?
क्यों हम
कामनाओं की झील में
स्वयं को लीन कर
जीवित रहना चाहते हैं ?
क्यों
यथार्थ के शूल
हमारे पाँव को नहीं सुहाते ?
शायद
हम स्वप्न लोक के यथार्थ से
अनभिज्ञ रहना चाहते हैं ।
एक आदत सी हो गई है
मुदित नयन में
जीने की ।
अन्धकार की चकाचौंध को
अपनी सोच की हाला में
मिला कर पीने की…
Added by Sushil Sarna on November 10, 2021 at 1:54pm — 4 Comments
रहने भी दो अब सनम, आपस की तकरार ।
बीत न जाए व्यर्थ में, यौवन के दिन चार ।
यौवन के दिन चार, न लौटे कभी जवानी ।
चार दिनों के बाद , जवानी बने कहानी ।
कह 'सरना' कविराय, पड़ेंगे ताने सहने ।
फिर सपनों के साथ, लगेंगी यादें रहने ।
सुशील सरना / 25-10-21
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 25, 2021 at 1:30pm — 9 Comments
कुछ दर्द
एक महान ग्रन्थ की तरह होते हैं
पढना पड़ता है जिन्हें बार- बार
उनकी पीड़ा समझने के लिए ।
ऐसे दर्द
अट्टालिकाओं में नहीं
सड़क के किनारों पर
पत्थर तोड़ते
या फिर चन्द सिक्कों की जुगाड़ में
सिर पर टोकरी ढोते हुए
या फिर पेट और परिवार की भूख के लिए
किसी चिकित्सालय के बाहर
अपना रक्त बेचते हुए
या फिर रिश्तों के बाजार में
अपने अस्तित्व की बोली लगाते हुए
अक्सर मिल जाते…
Added by Sushil Sarna on October 22, 2021 at 1:30pm — 6 Comments
मीठे वादे दे रही, जनता को सरकार ।
गली-गली में हो रहा, वादों का व्यापार ।1।
जीवन भर नेता करे, बस कुर्सी से प्यार ।
वादों के व्यापार में, पलता भ्रष्टाचार ।2।
जनता को ही लूटती,जनता की सरकार ।
जम कर देखो हो रहा, वादों का व्यापार ।3।
जनता जाने झूठ है, नेता की हर बात ।
झूठे वादों को मगर, माने वो सौगात ।4।
भाषण में है दक्ष जो ,नेता वही महान ।
वादों से वो भूख का, करता सदा निदान ।5।
सुशील सरना /…
ContinueAdded by Sushil Sarna on October 17, 2021 at 4:30pm — 2 Comments
अपने दोहे .......
पत्थर को पूजे मगर, दुत्कारे इन्सान ।
कैसे ऐसे जीव का, भला करे भगवान ।1।
पाषाणों को पूजती, कैसी है सन्तान ।
मात-पिता की साधना, भूल गया नादान ।2।
पूजा सारी व्यर्थ है, दुखी अगर माँ -बाप ।
इससे बढ़कर सृृष्टि में , नहीं दूसरा पाप।3।
सच्ची पूजा का नहीं, समझा कोई अर्थ ।
बिना कर्म संंसार में,अर्थ सदा है व्यर्थ ।4।
मन से जो पूजा करे, मिल जाएँ भगवान ।
पत्थर के भगवान में, आ जाते हैं प्रान…
Added by Sushil Sarna on October 16, 2021 at 3:21pm — 7 Comments
मुक्तक
आधार छंद - रोला
10-10-21
छूट गए सब संग ,देह से साँसें छूटी ।
झूठी देकर आस, जगत ने खुशियाँ लूटी ।
रिश्तों के सब रंग ,बदलते हर पल जग में -
कैसे कह दें श्वास ,देह से कैसे टूटी ।
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बहके-बहके नैन, करें अक्सर मनमानी ।
जीने के दिन चार, न बीते कहीं जवानी ।
अक्सर होती भूल, प्यार की रुत जब आती -
भर देती है शूल, जवानी मैं नादानी ।
सुशील सरना…
ContinueAdded by Sushil Sarna on October 9, 2021 at 4:38pm — 5 Comments
तो रो दिया .......
मौन की गहन कंदराओं में
मैनें मेरी मैं को
पश्चाताप की धूप में
विक्षिप्त तड़पते देखा
तो रो दिया ।
खामोशी के दरिया पर
मैंने मेरी मैं को
तन्हा समय की नाव पर
अपराध बोध से ग्रसित
तिमिर में लीन तीर की कामना में लिप्त
व्यथित देखा
तो रो दिया
क्रोध के अग्नि कुण्ड में
स्वार्थघृत की आहूति से परिणामों को
जब धू- धू कर जलते देखा
तो रो दिया
सच , क्रोध की सुनामी के बाद जब…
ContinueAdded by Sushil Sarna on September 30, 2021 at 10:41pm — 12 Comments
पहाड़ की ऊंची चोटी पर
अपने चारों तरफ
हरियाले वृक्षों से घिरा
मैं ठूँठ सा तन्हा खड़ा हूँ ।
कुछ वर्ष पूर्व
आसमानी बिजली ने
हर ली थी मेरी हरियाली
यह सोच कर कि
वो मेरे तन-बदन को
जर्जर कर मेरे अस्तित्व को
नेस्तनाबूद कर देगी ।
मगर
वक्त के साथ
अपने नंगे बदन पर
मैं मौसम के प्रहार सहते-सहते
एक मजबूत काठ में
परिवर्तित होता गया ।
आज मैं
आसमान से
अपनी विध्वंसक शक्ति का डंका…
Added by Sushil Sarna on September 27, 2021 at 1:30pm — 8 Comments
वक्त के सिरहाने पर .........
वक्त के सिरहाने पर बैठा
देखता रहा मैं देर तक
दर्द की दहलीज पर
मिलने और बिछुड़ने की
रक्स करती परछाइयों को
जाने कितने वादे
कसमों की चौखट पर
चरमरा रहे थे
अरसा हुआ बिछड़े हुए
मगर उल्फ़त के
ज़ख्म आज भी हरे हैं
तुम्हारी बात
शायद ठीक ही थी कि
मोहब्बत अगर बढ़ नहीं पाती
माहताब की मानिंद घटते-घटते
एक ख़्वाब बनकर रह जाती है
और
वक्त…
Added by Sushil Sarna on September 22, 2021 at 8:30pm — 7 Comments
तुम्हारे इन्तज़ार में ........
देखो न !
कितने सितारे भर लिए हैं मैंने
इन आँखों के क्षितिजहीन आसमान में
तुम्हारे इन्तज़ार में ।
गिनती रहती हूँ इनको
बार- बार सौ बार
तुम्हारे इन्तज़ार में ।
तुम क्या जानो
घड़ी की नुकीली सुइयाँ
कितना दर्द देती हैं ।
सुइयों की बेपरवाह चाल
हर उम्मीद को
बेरहमी से कुचल देती है।
अन्तस का ज्वार
तोड़ देता है
घुटन की हर प्राचीर को
और बहते- बहते ठहर जाता है
खारी…
Added by Sushil Sarna on September 20, 2021 at 11:46am — 4 Comments
बेबसी ........
निशा के श्यामल कपोलों पर
साँसों ने अपना आधिपत्य जमा लिया ।
झींगुरों की लोरियों ने
अवसाद की अनुभूतियों को सुला दिया ।
स्मृतियाँ किसी खिलौने की भाँति
बेबसी के पलों को बहलाने का
प्रयास करने लगीं ।
आँखों की मुंडेरों पर
बेबसी की व्यथा तरल हो चली ।
आँखों के बन्द करने से कब दिन ढला है ।
मुकद्दर का लिखा कब टला है ।
मृतक कब पुनर्जीवित हुआ है ।
प्रतीक्षा की बेबसी के सभी उपचार
किसी रेत के महल से ढह गए…
Added by Sushil Sarna on September 17, 2021 at 5:55pm — 4 Comments
उम्मीद .......
मैं जानती हूँ
बन्द साँकल में
कोई आवाज नहीं होती
मगर होती हैं उसमें
उम्मीद की सीढ़ियों पर सोयी
अनगिनत प्यासी उम्मीदें
किसी के लौट आने की
मैं ये भी जानती हूँ
कि उम्मीद के दामन में
दर्द के सैलाब होते हैं
कुछ हसीन ख़्वाब होते हैं
साँझ के साथ
उम्मीद भी जवान होती है
शब
इन्तज़ार के पैरहन में रोती है
जानती हूँ
उम्मीद झूठी होती है
मगर दिल की बसती में
उम्मीद…
Added by Sushil Sarna on September 15, 2021 at 4:00pm — 6 Comments
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