मीठे वादे दे रही, जनता को सरकार ।
गली-गली में हो रहा, वादों का व्यापार ।1।
जीवन भर नेता करे, बस कुर्सी से प्यार ।
वादों के व्यापार में, पलता भ्रष्टाचार ।2।
जनता को ही लूटती,जनता की सरकार ।
जम कर देखो हो रहा, वादों का व्यापार ।3।
जनता जाने झूठ है, नेता की हर बात ।
झूठे वादों को मगर, माने वो सौगात ।4।
भाषण में है दक्ष जो ,नेता वही महान ।
वादों से वो भूख का, करता सदा निदान ।5।
सुशील सरना /…
ContinueAdded by Sushil Sarna on October 17, 2021 at 4:30pm — 2 Comments
अपने दोहे .......
पत्थर को पूजे मगर, दुत्कारे इन्सान ।
कैसे ऐसे जीव का, भला करे भगवान ।1।
पाषाणों को पूजती, कैसी है सन्तान ।
मात-पिता की साधना, भूल गया नादान ।2।
पूजा सारी व्यर्थ है, दुखी अगर माँ -बाप ।
इससे बढ़कर सृृष्टि में , नहीं दूसरा पाप।3।
सच्ची पूजा का नहीं, समझा कोई अर्थ ।
बिना कर्म संंसार में,अर्थ सदा है व्यर्थ ।4।
मन से जो पूजा करे, मिल जाएँ भगवान ।
पत्थर के भगवान में, आ जाते हैं प्रान…
Added by Sushil Sarna on October 16, 2021 at 3:21pm — 7 Comments
मुक्तक
आधार छंद - रोला
10-10-21
छूट गए सब संग ,देह से साँसें छूटी ।
झूठी देकर आस, जगत ने खुशियाँ लूटी ।
रिश्तों के सब रंग ,बदलते हर पल जग में -
कैसे कह दें श्वास ,देह से कैसे टूटी ।
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बहके-बहके नैन, करें अक्सर मनमानी ।
जीने के दिन चार, न बीते कहीं जवानी ।
अक्सर होती भूल, प्यार की रुत जब आती -
भर देती है शूल, जवानी मैं नादानी ।
सुशील सरना…
ContinueAdded by Sushil Sarna on October 9, 2021 at 4:38pm — 5 Comments
तो रो दिया .......
मौन की गहन कंदराओं में
मैनें मेरी मैं को
पश्चाताप की धूप में
विक्षिप्त तड़पते देखा
तो रो दिया ।
खामोशी के दरिया पर
मैंने मेरी मैं को
तन्हा समय की नाव पर
अपराध बोध से ग्रसित
तिमिर में लीन तीर की कामना में लिप्त
व्यथित देखा
तो रो दिया
क्रोध के अग्नि कुण्ड में
स्वार्थघृत की आहूति से परिणामों को
जब धू- धू कर जलते देखा
तो रो दिया
सच , क्रोध की सुनामी के बाद जब…
ContinueAdded by Sushil Sarna on September 30, 2021 at 10:41pm — 12 Comments
पहाड़ की ऊंची चोटी पर
अपने चारों तरफ
हरियाले वृक्षों से घिरा
मैं ठूँठ सा तन्हा खड़ा हूँ ।
कुछ वर्ष पूर्व
आसमानी बिजली ने
हर ली थी मेरी हरियाली
यह सोच कर कि
वो मेरे तन-बदन को
जर्जर कर मेरे अस्तित्व को
नेस्तनाबूद कर देगी ।
मगर
वक्त के साथ
अपने नंगे बदन पर
मैं मौसम के प्रहार सहते-सहते
एक मजबूत काठ में
परिवर्तित होता गया ।
आज मैं
आसमान से
अपनी विध्वंसक शक्ति का डंका…
Added by Sushil Sarna on September 27, 2021 at 1:30pm — 8 Comments
वक्त के सिरहाने पर .........
वक्त के सिरहाने पर बैठा
देखता रहा मैं देर तक
दर्द की दहलीज पर
मिलने और बिछुड़ने की
रक्स करती परछाइयों को
जाने कितने वादे
कसमों की चौखट पर
चरमरा रहे थे
अरसा हुआ बिछड़े हुए
मगर उल्फ़त के
ज़ख्म आज भी हरे हैं
तुम्हारी बात
शायद ठीक ही थी कि
मोहब्बत अगर बढ़ नहीं पाती
माहताब की मानिंद घटते-घटते
एक ख़्वाब बनकर रह जाती है
और
वक्त…
Added by Sushil Sarna on September 22, 2021 at 8:30pm — 7 Comments
तुम्हारे इन्तज़ार में ........
देखो न !
कितने सितारे भर लिए हैं मैंने
इन आँखों के क्षितिजहीन आसमान में
तुम्हारे इन्तज़ार में ।
गिनती रहती हूँ इनको
बार- बार सौ बार
तुम्हारे इन्तज़ार में ।
तुम क्या जानो
घड़ी की नुकीली सुइयाँ
कितना दर्द देती हैं ।
सुइयों की बेपरवाह चाल
हर उम्मीद को
बेरहमी से कुचल देती है।
अन्तस का ज्वार
तोड़ देता है
घुटन की हर प्राचीर को
और बहते- बहते ठहर जाता है
खारी…
Added by Sushil Sarna on September 20, 2021 at 11:46am — 4 Comments
बेबसी ........
निशा के श्यामल कपोलों पर
साँसों ने अपना आधिपत्य जमा लिया ।
झींगुरों की लोरियों ने
अवसाद की अनुभूतियों को सुला दिया ।
स्मृतियाँ किसी खिलौने की भाँति
बेबसी के पलों को बहलाने का
प्रयास करने लगीं ।
आँखों की मुंडेरों पर
बेबसी की व्यथा तरल हो चली ।
आँखों के बन्द करने से कब दिन ढला है ।
मुकद्दर का लिखा कब टला है ।
मृतक कब पुनर्जीवित हुआ है ।
प्रतीक्षा की बेबसी के सभी उपचार
किसी रेत के महल से ढह गए…
Added by Sushil Sarna on September 17, 2021 at 5:55pm — 4 Comments
उम्मीद .......
मैं जानती हूँ
बन्द साँकल में
कोई आवाज नहीं होती
मगर होती हैं उसमें
उम्मीद की सीढ़ियों पर सोयी
अनगिनत प्यासी उम्मीदें
किसी के लौट आने की
मैं ये भी जानती हूँ
कि उम्मीद के दामन में
दर्द के सैलाब होते हैं
कुछ हसीन ख़्वाब होते हैं
साँझ के साथ
उम्मीद भी जवान होती है
शब
इन्तज़ार के पैरहन में रोती है
जानती हूँ
उम्मीद झूठी होती है
मगर दिल की बसती में
उम्मीद…
Added by Sushil Sarna on September 15, 2021 at 4:00pm — 6 Comments
उस रात .......
उस रात
वो बल्ब की पीली रोशनी
देर तक काँपती रही
जब तुम मेरी आँखों के दामन में
मेरे ख्वाबों को रेज़ा-रेज़ा करके
चले गए
और मैं बतियाती रही
तन्हा पीली रोशनी से
देर तक
उस रात
मुझसे मिलने फिर मेरी तन्हाई आई थी
मेरी आरज़ू की हर सलवट पर
तेरी बेवफाई मुस्कुराई थी
और मैं
अन्धेरी परतों में
बीते लम्हों को बीनती रही
देर तक
उस रात
तुम उल्फ़त के दीवान का
पहला अहसास…
Added by Sushil Sarna on September 13, 2021 at 3:42pm — 6 Comments
चाँद -चाँदनी पर दोहावली ......
देख रहा है चाँदनी , आसमान से चाँद ।
मिलने आया झील में , नीले नभ को फाँद।1।
देख चाँद को चाँदनी ,करे झील पर रक्स ।
सिमट गया है चाँद का, उजियारी में अक्स ।2।
चाँद फलक का ख़्वाब तो, धवल चाँदनी नूर ।
वीचि -वीचि क्रीड़ा करे, सोम प्रीत में चूर ।3।
विभा चाँद की देखती, तारों वाली रात ।
नील झील से कौमुदी, करे चाँद से बात ।4।
छुप-छुप देखे चंद्रिका, अपने विधु का रूप ।
बिम्ब चाँद…
Added by Sushil Sarna on September 3, 2021 at 3:55pm — 5 Comments
एक दोहा गज़ल - नज़रें -(प्रथम प्रयास )
नज़रें मंडी हो गईं, नज़र बनी बाज़ार ।
नज़र नज़र में बिक गया, एक जिस्म सौ बार।
*
नजरों को झूठी लगे, अब नजरों की प्रीत ,
हवस सुवासित अब लगे, नजरों की मनुहार ।
*
नजरों से छुपती नहीं , कभी नज़र की बात ,
नजरें करती हैं सदा, नजरों से व्यापार ।
*
भद्दा लगता है बड़ा ,काजल का शृंगार ,
लुट जाता है जब कभी ,नजरों का संसार ।
*
कह देती है हर नज़र , अन्तस की हर बात ,
कहीं नज़र की जीत है, कहीं नज़र की…
Added by Sushil Sarna on August 31, 2021 at 11:12pm — 7 Comments
दोहा मुक्तक :.....
1
मिथ्या मैं की डुगडुगी, मिथ्या मैं के ढोल ।
मिथ्या मैं का आवरण, मिथ्या मीठे बोल ।
मिथ्या जग के कहकहे, मिथ्या सब सम्बंध -
मिथ्या मौसम प्रीत के, मिथ्या प्रीत के कौल ।
............................................................
2
हर लकीर में जिन्दगी, जीती एक विधान ।
मरता है सौ बार तब , जीता है इन्सान ।
रख पाया है वक्त की, वश में कौन लगाम -
श्वास पृष्ठ पर है लिखा, आदि संग अवसान ।
सुशील सरना / 29-8-21
मौलिक…
Added by Sushil Sarna on August 29, 2021 at 10:48am — 4 Comments
मन पर कुछ दोहे : ......
मन को मन का मिल गया, मन में ही विश्वास ।
मन में भोग-विलास है, मन में है सन्यास ।।
मन में मन का सारथी, मन में मन का दास ।
मन में साँसें भोग की, मन में है बनवास ।।
मन माने तो भोर है, मन माने तो शाम ।
मन के सारे खेल हैं, मन के सब संग्राम । ।
मन मंथन करता रहा, मिला न मन का छोर ।
मन को मन ही छल गया, मन को मिली न भोर । ।
मन सागर है प्यास का, मन राँझे का तीर ।
मन में…
Added by Sushil Sarna on August 3, 2021 at 9:28pm — 4 Comments
मौसम को .....
सुइयाँ
अपनी रफ्तार से चलती रहीं
समय
घड़ी के बाहर खड़ा खड़ा काँपता रहा
मौसम
समय के काँधे पर
अपनी उपस्थिति की दस्तक देता रहा
बदले मौसम की बयार को छूकर
झुकी टहनियाँ
स्मृतियों में
पिछले मौसम के स्पर्श का रोमांच
सुनाती रहीं
मौसम को
वायु वेग से
रेत पर छोड़े पाँव के निशान
उड़- उड़ कर
अपनी व्यथा सुनाने लगे
मौसम को
झील के पानी में निस्तब्धता
दिखाती रही…
Added by Sushil Sarna on August 2, 2021 at 1:59pm — 17 Comments
सावन के दोहे :.........
गुन -गुन गाएँ धड़कनें, सावन में मल्हार ।
पलक झरोखों में दिखे, प्यारी सी मनुहार ।।
सावन में अक्सर करे , दिल मिलने की आस।
हर गर्जन पर मेघ की, यादें करती रास ।।
अन्तस में झंकृत हुए, सुप्त सभी स्वीकार।
तन पर सावन की करे, वृृष्टि मधुर शृंगार ।।
सावन में अच्छे लगें, मौन मधुर स्वीकार ।
मुदित नयन में हो गई, प्रतिबन्धों की हार।।
अन्तर्मन को छू गये, अनुरोधों के ज्वार ।
इन्कारों…
Added by Sushil Sarna on July 28, 2021 at 3:30pm — 6 Comments
प्रश्न ......
प्रश्न प्रश्न प्रश्न
स्वयं को तलाशते
सैंकड़ों प्रश्न
क्या मैं
सदियों से वीरान किसी पूजा गृह की
काल धूल के आवरण से लिपटी
कोई खंडित प्रतिमा हूँ
या फिर
किसी हवन कुंड में
किसी मनोरथ की सिद्धि के लिए
झोंकी जाने वाली सामग्री हूँ
या फिर
विषधरों के दंश झेलता
कोई चंदन का विटप हूँ
या फिर
काल की आँधी में अपने अस्तित्व से जूझता
धीरे-धीरे विघटित होता
शिला खंड…
Added by Sushil Sarna on July 26, 2021 at 12:54pm — 6 Comments
फ़र्ज़ ......
निभा दिया फ़र्ज़
संतान ने
भेजकर माँ - बाप को
वृद्धाश्रम
........................
आजकल फ़र्ज़ भी
निभाए जाते हैं
कर्ज़ की तरह
.........................
गुजर गए
गुजरना था उनको
जिन्दगी की आखिरी पायदान से
बदल कर
पुरानी नेम प्लेट अपने नाम से
निभा दिया फ़र्ज़
अपने वारिस होने का
सुशील सरना / 23-7-21
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 23, 2021 at 5:37pm — 2 Comments
अन्तस में नर्तन करें, विगत रैन के द्वन्द ।
मुदित नैन रचने लगे, प्रीत गंध के छन्द । ।
नैनों से नैना करें , गुपचुप- गुपचुप बात ।
रैन तिमिर में हो गए, अलबेले उत्पात ।।
थोड़े से इंकार थे, थोड़े से इकरार ।
भली लगी संघर्ष में, भोली भाली हार ।।
सुशील सरना / 20-7-21
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 20, 2021 at 12:00pm — 10 Comments
अभिव्यक्ति ......
कैसे व्यक्त करूँ
अपने प्रेम की गहराई को
अभिव्यक्ति के अवगुंठन में
एक खीज है
तुम्हें छूने की
अबोले स्पर्शों से
कब तक लड़ूँ मैं
तुम ही कहो न
अपने प्रेम की गहराई को
कैसे व्यक्त करूँ मैं
हां! मैं तुम्हें प्यार करूँगी
भोर की उजास में
साँझ की प्यास में
तृप्ति की आस में
हर हलाहल पी जाऊँगी
मर के भी जी जाऊँगी
बस मेरी तन्हाई में
कुछ देर और जी जाओ
तुम ही कहो
तुम्हारे प्यार में आखिर…
Added by Sushil Sarna on July 15, 2021 at 3:32pm — 10 Comments
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