For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

परिंदा क़ैद का आदी नहीं था, घर चला आया (ग़ज़ल)

1222   1222   1222   1222

निगाहों  में  किसी की  चंद-पल  रुक कर चला आया
परिंदा   क़ैद  का  आदी   नहीं  था,   घर  चला  आया

सितमगर  की  ख़िलाफ़त  में  उछाला था  जिसे हमने
हमारे   आशियाने   तक   वही   पत्थर   चला   आया

सभी  क़समों,  उसूलों,  बंदिशों  को  तोड़कर,आखिर
मैं  अरसे  बाद आज उसकी  गली होकर  चला आया

दनादन   लीलता   ही   जा   रहा   है   कैसे  हरियाली
कि चलकर शह्र से अब गाँव तक अजगर चला आया

उतरकर  गोद  से  माँ  की,  जहाँ  बचपन  गुज़ारा  था
वो  मेरा  गाँव   ख़्वाबों  में   मेरे  अक्सर  चला  आया

मैं  जज़्बातों  की आंधी में बिखर जाता, मगर ज्यों ही
तुम्हारा  नाम  आया,  बज़्म  से   उठकर  चला  आया

=================================

~जयनित कुमार मेहता~

 {मौलिक व अप्रकाशित}

Views: 592

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Rahul Dangi Panchal on March 13, 2016 at 9:59pm
वाह वाह वाह आदरणीय जयनीत जी मजा आ गया बहुत सुन्दर
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 12, 2016 at 7:20pm

क्या बात है क्या बात है आदरणीय बहुत खूबसूरत 

Comment by रामबली गुप्ता on March 10, 2016 at 7:04pm
शानदार ग़ज़ल की प्रस्तुति हेतु हृदयतल से बधाई स्वीकार करें आ.जयनित जी
Comment by Sushil Sarna on March 10, 2016 at 3:52pm

निगाहों में किसी की चंद-पल रुक कर चला आया
परिंदा क़ैद का आदी नहीं था, घर चला आया
सितमगर की ख़िलाफ़त में उछाला था जिसे हमने
हमारे आशियाने तक वही पत्थर चला आया

वाह वाह वाह आदरणीय जयनित कुमार जी गज़ब के अशआर रचे हैं आपने। इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।

Comment by Ravindra Prabhat on March 10, 2016 at 3:33pm

बेहतरीन गज़ल, बधाइयाँ।

Comment by जयनित कुमार मेहता on March 10, 2016 at 2:09pm
आदरणीय तेजवीर सिंह जी,आ. राम शिरोमणि जी,आदरणीय लक्ष्मण जी, आप सबों का हृदय से आभारी हूँ।।
Comment by Ravi Shukla on March 10, 2016 at 12:45pm

आदरणीय जयनित जी बहुत बहुत बधाई इस गजल के लिये अच्‍छे शेर हुए है जहां आखिरी शेर का कथ्‍य बहुत अच्‍छा लगा वही जज्‍बात को जो स्‍वयं ही बहुवचन है उसे जज्‍बातों करना थोड़ा अलग लग रहा है

सितमगर  की  ख़िलाफ़त  में  उछाला था  जिसे हमने
हमारे   आशियाने   तक   वही   पत्थर   चला   आया    बहुत ही बढि़या बात कही है आपने

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 10, 2016 at 11:23am

अति उत्तम

Comment by ram shiromani pathak on March 10, 2016 at 10:50am
वाह भाई वाह तो तीन शेर बहुत ही बेहतरीन हुए है।।इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई आपको।।सादर
Comment by TEJ VEER SINGH on March 10, 2016 at 10:39am

हार्दिक बधाई आदरणीय जयनित कुमार जी!बेहतरीन गज़ल!

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"सुनते हैं उसको मेरा पता याद आ गया क्या फिर से कोई काम नया याद आ गया जो कुछ भी मेरे साथ हुआ याद ही…"
37 minutes ago
Admin posted a discussion

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)

आदरणीय साथियो,सादर नमन।."ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।प्रस्तुत…See More
51 minutes ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"सूरज के बिम्ब को लेकर क्या ही सुलझी हुई गजल प्रस्तुत हुई है, आदरणीय मिथिलेश भाईजी. वाह वाह वाह…"
11 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

कुर्सी जिसे भी सौंप दो बदलेगा कुछ नहीं-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

जोगी सी अब न शेष हैं जोगी की फितरतेंउसमें रमी हैं आज भी कामी की फितरते।१।*कुर्सी जिसे भी सौंप दो…See More
yesterday
Vikas is now a member of Open Books Online
Tuesday
Sushil Sarna posted blog posts
Monday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा दशम्. . . . . गुरु
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । विलम्ब के लिए क्षमा "
Monday
सतविन्द्र कुमार राणा commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"जय हो, बेहतरीन ग़ज़ल कहने के लिए सादर बधाई आदरणीय मिथिलेश जी। "
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"ओबीओ के मंच से सम्बद्ध सभी सदस्यों को दीपोत्सव की हार्दिक बधाइयाँ  छंदोत्सव के अंक 172 में…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, जी ! समय के साथ त्यौहारों के मनाने का तरीका बदलता गया है. प्रस्तुत सरसी…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"वाह वाह ..  प्रत्येक बंद सोद्देश्य .. आदरणीय लक्ष्मण भाईजी, आपकी रचना के बंद सामाजिकता के…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 172 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाई साहब, आपकी दूसरी प्रस्तुति पहली से अधिक जमीनी, अधिक व्यावहारिक है. पर्वो-त्यौहारों…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service