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पत्ता था, सब्ज़, टूटके खिड़की में आ गया

221 2121 1221 212

पत्ता था, सब्ज़, टूटके खिड़की में आ गया

हस्ती शजर की बाकी है मुझको बता गया

 

माना हवाएँ तेज़ हैं मेरे खिलाफ़ भी

लेकिन जुनून लड़ने का इस दिल पे छा गया

 

खोने को पास कुछ भी नहीं था हयात में

किसकी तलाफ़ी हो अभी तक मेरा क्या गया

 

शायद ये दुनिया मेरे लिए थी नहीं कभी

फिर शिकवा क्यों करुँ कि खुदा फ़ैज़ उठा गया

 

ख़्वाबों को ज़िन्दा करके भी क्या होता, दोस्तो!

मेरा जो वक्त था वो तो कब का चला गया

 

Meaning:

तलाफ़ी – क्षतिपूर्ति, फ़ैज़ -  अनुकम्पा

 

-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by शिज्जु "शकूर" on March 23, 2017 at 9:34pm
ग़ज़ल को समय देने के लिए आप सभी का तहेदिल से शुक्रिया
Comment by Ravi Shukla on March 21, 2017 at 11:57am

आदरणीय शिज्जु भाई इस उम्दा गजल के लिए दिली मुबारकबाद कुबूल करें  हर शेर कमाल का है

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 19, 2017 at 5:16pm
वाह आदरणीय बेहतरीन गजल बधाई
Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on March 19, 2017 at 10:04am
वाह शिज्जु शकूर साहिब बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही है। शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं। मतला और मकता के शेरों का तो क्या कहना। बहुत खूब।
Comment by TEJ VEER SINGH on March 18, 2017 at 2:47pm

हार्दिक बधाई शिज्जु "शकूर" जी ।बेहतरीन गज़ल।

ख़्वाबों को ज़िन्दा करके भी क्या होता, दोस्तो!

मेरा जो वक्त था वो तो कब का चला गया


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Comment by शिज्जु "शकूर" on March 18, 2017 at 9:45am
आ. सतविंदर जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया

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Comment by शिज्जु "शकूर" on March 18, 2017 at 9:44am
मोहतरम मोहम्मद आरिफ़ साहिब आपका तहेदिल से शुक्रिया
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on March 17, 2017 at 6:50pm
आदरणीय शिज्जु शकूर सर,सादर वन्दन!इस उम्दा गजल के लिए दिली मुबारकबाद!
Comment by Mohammed Arif on March 17, 2017 at 5:58pm
आदरणीय शिज्जू शकूर जी आदाब,बेहतरीन ग़ज़ल । शेर दर शेर दाद के साथ मुबारक़बाद क़ुबूल कीजिए ।

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