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मुकद्दर का घोड़ा 122, 122 22 रदीफ के साथ (ग़ज़ल,छोटी बहर पर एक प्रयास )

122, 122 22 (ग़ज़ल)

जमाया हथौड़ा रब्बा 

कहीं का न छोड़ा रब्बा 

बना काँच का था नाज़ुक 

मुकद्दर का घोड़ा रब्बा 

हवा में उड़ाया उसने 

जतन से था जोड़ा रब्बा

तबाही का आलम उसने 

मेरी और मोड़ा रब्बा  

बेरह्मी से दिल को यूँ 

कई बार तोड़ा रब्बा  

रगों से लहू को मेरे

बराबर निचोड़ा रब्बा

चली थी  कहाँ मैं देखो   

कहाँ ला के छोड़ा रब्बा

मुकद्दर पे ताना कैसे

कसे मन निगोड़ा रब्बा 

लगे ए  'राज' तेरा ये 

कहानी का रोड़ा रब्बा 

******************** 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 7, 2013 at 11:24pm

एक बहुत गंभीर प्रयास. कोशिश रंग लायेगी .. . इस ग़ज़ल के लिए बहुत-बहुत बधाई,आदरणीया.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 7, 2013 at 10:36pm

जनाब सलीम राजा जी से मैं सहमत हूँ , छोटी बहर में ग़ज़ल कहने में अदायगी पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है, प्रयास अच्छा है , कई शेर अच्छे बन पड़ें है, बधाई तो बनता है :-)

Comment by SALIM RAZA REWA on February 7, 2013 at 10:01pm

CHOTI BAHAR ME ACHHI GAZAL ////PAR HAR SHER PUREE BAT NAHI KAH RAHA //GAZAL KA HAR SHER APNE AAP MEN MUQAMMAL HONA CHAHIE //BANKI KHAYAL ACHHA HAI //

Comment by MAHIMA SHREE on February 7, 2013 at 9:53pm

जमाया हथौड़ा
कहीं का न छोड़ा

बना काँच का था
मुकद्दर का घोड़ा

हवा में उड़ाया
जतन से था जोड़ा

 

आदरणीया राजेश दी ..अच्छी  गज़ल केलिए

बहुत -२ बधाई आपको ..  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 7, 2013 at 9:30pm

छोटी सी बहर में बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है आदरणीया राजेश कुमारी जी, बहुत खूब.

जमाया हथौड़ा
कहीं का न छोड़ा.........वक़्त की क्रूरता 

बना काँच का था
मुकद्दर का घोड़ा.............कब पल में तकदीर बदल जाए 

हवा में उड़ाया
जतन से था जोड़ा...........बिलकुल मेहनत का दर्द का एहसास किये बिना..जमा पूंजी उड़ा देना 

तबाही का आलम
मेरी और मोड़ा..............किसी और के किये की सज़ा भुगतना 

बेरह्मी से दिल को
कई बार तोड़ा........................उफ़ 

रगों से लहू को
बराबर निचोड़ा....................बेबसी , दर्द की इन्तेहाँ 

चली थी कहाँ मैं 
कहाँ ला के छोड़ा................सपनों का टूट जाना, 

मुकद्दर पे ताना
कसे मन निगोड़ा................वाह वाह 

यही 'राज' तेरी
कहानी का रोड़ा...........................अरे रोड़ा कहाँ ये तो इतना प्रबल प्रवाह है हर रोड़ा हटा दे ....:)))

हार्दिक दाद कुबूलें इस शानदार ग़ज़ल पर आदरणीय राजेश जी .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 7, 2013 at 8:40pm

प्रिय संदीप आपकी प्रतिक्रिया का तहे दिल  से स्वागत है |

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on February 7, 2013 at 8:31pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी सादर प्रणाम
कारीगरी अच्छी है उसके लिए बहुत बहुत बधाई आपको
किन्तु ग़ज़ल के एक अशआर में ही पूरी बात समाप्त हो जाती है
उसकी कहीं न कहीं कमी सी लगी
बाकी गुरुजनों की राय का इंतज़ार होगा

कृपया ध्यान दे...

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