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क़ह्र को बाँधें क़हर वो और टोको तो कहें शे'र कहने की ये तरकीबें पुरानी हो गईं------क्या कहने वाह्ह्ह्हह्ह लाजबाब जानते हो ख़ूब यारो ओबीओ के मंच पर जिसने सीखा उसकी ग़ज़लें जाविदानी हो गईं-----ओबीओ जिंदाबाद हम यूँ ही नहीं कहते जो सीखने आते हैं वही सीखते हैं भाई जी ये तीसरी ग़ज़ल भी लाजबाब हुई दिल से ढेरों ढेर बधाई
आदरणीय समर साहब,
मुझे तो इसकी उम्मीद थी कि आप मेरे कहे को कहीं अधिक समझे होंगे और अपने निर्णयात्मक उत्तर के सापेक्ष टिप्पणीकारों को रचना प्रक्रिया पर ही केन्द्रित रहने की सलाह देंगे. इसके उलट आपके प्रश्न ने मुझे न केवल चकित किया है, बल्कि मुझे एक हद तक अपनी लघुता का भी अहसास कराया है.
आदरणीय, मेरे कहे का मंतव्य आपकी रचनाधर्मिता पर सवाल नही उठाना है, न ही उसके प्रति कोई भ्रम है. लेकिन एक रचनाकार इतना सचेत अवश्य हो कि वह अपनी रचनाओं पर आयी टिप्पणियों की तार्किकता के प्रति टिप्पणीकारों को अनावश्यक भावुकता में आने से भी बचाता रहे. कमसेकम ओबीओ पर तो अवश्य ही. यही ओबीओ पर अपनाया और स्वीकारा गया आचरण है. इसी आचरण और पाठकीय व्यवहार के तहत ही इतनी सहजता से रचनाओं का नीर-क्षीर इस मंच पर होता है, जोकि अन्यत्र दुर्लभ है. रचना पर आये सभी पाठक अपनी समझ के आधार पर ही अपनी-अपनी टिप्पणियों में अपनी बातें करते हैं, जिनमें कई बातें किसी पाठक की मानसिक दशा भी उजागर करती हैं. जो लगातार सीखने और जानने के के क्रम में उत्तरोत्तर संयत होती जाती है. ऐसा ओबीओ के अभिनव वातावरण के कारण ही होता है. तभी यहाँ मठाधीशी व्याप नहीं पायी. लेकिन इसके प्रति हर समय सचेत रहना आवश्यक है.
अपने इसी वातावरण के कारण ओबीओ का मंच प्रणम्य है जहाँ रचनाकार नहीं रचनाओं का महत्व अर्थ रखता है. इस परिप्रेक्ष्य में आपको शहंशाह आदि की पदवी से शोभायमान करना क्या ओबीओ की पाठकीय टिप्पणी के समकक्ष है ? क्या इस अन्यथा अतिशयोक्ति बचते हुए आपकी रचनाओं पर चर्चा नहीं हो सकती ? व्यक्तिगत भाव-प्रदर्शन एक बात है, और इस मंच पर टिप्पणियों के दायरे भिन्न हैं. आदरणीय, नये सदस्यों को न केवल इन विन्दुओं के प्रति सचेत करना हमारा दायित्व हो जाता है, बल्कि ऐसा करने से अपनी कोशिशों को लगातार बढ़ाते जाने में सहुलियत भी होती है. किसी संवाद के क्रम में किसी वरिष्ठ के प्रति आभार अभिव्यक्ति, उसके गुणों की सकारात्मक चर्चा और उसके व्यवहार का गुणगान एक बात है. किसी रचना के सापेक्ष ऐसी टिप्पणियाँ अन्य पाठकों को कुछ अन्यथा कहने से रोकती भी है. वैसे आजकल इस मंच पर गुरुदेव आदि आम संज्ञा होने लगी हैजिसके प्रति हम एक समय अत्यंत संवेदनशील हुआ करते थे. मैंने तो जाने कितनों को इसे लेकर समझाया है. नहीं माना तो लताड़ा भी है. और तब विरुदावलि गाने वाले उस तथाकथित पाठक ने अपना असली वो रूप दिखाया कि मंच से भी बाहर चला गया है. ऐसे संबोधनों की क्या आवश्यकता है, आदरणीय, जिसकी गरिमा का ख़याल तक नहीं है ?
विश्वास है, आप मेरे कहे का अर्थ समझ सहयोगी भाव बनाये रखेंगे.
सादर
देर से आने की मुआफ़ी चाहता हूँ...दरअसल मुंबई गया हुआ था..कल रात ही लौटा हूँ..
ग़ज़ल पर क्या कहूँ... इतनी मुश्किल ज़मीन पर आप दर्ज़न के हिसाब से मतले और शेर कहे जा रहे हैं कि मैं आवाक हूँ...और फिर तीसरी ग़ज़ल में ये शेर ...
.
हिज्र की रातों में इतनी बार उनके ख़त पढ़े
याद मुझको सारी तहरीरें ज़बानी हो गईं..... वाह वा ..
ये मेरी ख़ुशनसीबी है कि मैं आप से और इस मंच से जुड़ा हुआ हूँ ..
सादर
आदरणीय समर साहेब....उम्दा ग़ज़ल ....हार्दिक बधाई स्वीकार करें
और.. सदस्यों से जिनने इस प्रस्तुति पर टिप्पणी दी हैं.
आदरणीय सज्जनो ! रचना पर रचना के सापेक्ष ही टिप्पणियाँ दें. इस मंच पर रचनाकार कभी अपनी रचना से बड़ा नही होता. आगे से ध्यान रखा जाय. क्यों कि यही इस मंच का आग्रह रहा है.
सादर
बढ़िया .. हा हा हा..
वैसे भी ये एक गंभीर प्रयास है.. इस शेर के हवाले से बार-बार बधाइयाँ --
हिज्र की रातों में इतनी बार उनके ख़त पढ़े
याद मुझको सारी तहरीरें ज़बानी हो गईं
आगे के शेर किस्से हैं और मैं आपके अंदाज़ का मज़ा ले रहा हूँ जनाब .. :-))
जय-जय
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