सुबह-सुबह एक अजीब सा खयाल आया. आप कहेंगे ये सुबह-सुबह क्यों ? खयाल तो अक्सर रात में आते हैं, जोरदार आते हैं. फिर ये सुबह के वक्त कैसे आया ! यानि, कोई रतजगा था क्या कल रात जो इस खयाल को आने में सुबह हो गयी ? नहीं, ऐसा कुछ नहीं है. वस्तुतः, मेरे हिसाब से, ये खयाल कुछ अजीब सा था, इसीलिये इसे समझते-बूझते सुबह हो गयी.
चूँकि सुबह के वक्त जो कुछ भी आता है बहुत जोर से आता है, सो, खयाल की भी हालत कुछ वही थी. एकदम से बाहर निकल आने को बेकरार ! अब सुबह-सुबह अपना खयाल कहाँ, किसपे साफ़ करुँ ? एकदम से मानों दम सरका जा रहा था. ज़हेनसीब, तभी सामने अपने मित्र लाला भाई मिल गये. बस तो उन्हे ही पकड लिया और पलट दिया हमने अपना पूरा का पूरा खयाल उन्हीं पर !
खयाल भी क्या, ’क्यों न मै भी कवि हो जाऊँ’. आप कहेंगे, ’हाँ हो जाओ’. ठीक यही लाला भाई ने भी कहा. ठीक इसी ढंग से कहा. सो, मैं समझ ही नहीं पाया कि उनने मेरे इस खयाल को मूर्तरुप देने को हामी भरी, या मुझसे पीछा छुडाने के अन्दाज में कहा. हज़रत इतना ही कह कर निकल लिये. उनके इस वन लाइनर ने मुझे इतना हौसला तो दे ही दिया था कि अब मैं पूरी तरह से तैयार हो जाऊँ कि मै कुछ अलग या अलहदा करने जा रहा हूँ. इस उम्र में भी बहुत से लोग बहुत कुछ ऐसा करते हैं जो अजूबा हुआ करता है. वे बस शुरु हो जाते हैं.
तो साहब, मै भी निकल पड़ा कविता ढूँढने. बडे-बडे लोग ढूँढा करते हैं. मैं भी निकल गया. मगर वो ऐसे मिलती भी है क्या ? बचपन से अब तक की पढ़ी सारी कविताएँ याद कीं. कुछ किताबों में लिखी हुई, कुछ क्लास के बेंचों पर लिखी हुई. माने हर तरह की. किताब की तो कम याद आईं, अलबत्ते बेंचों वाली कविताएँ ज्यादा याद आईं. किताबों वाली कविताओं में बहुत-बहुत विभिन्नता थी. कुछ बड़ी थी, कुछ छोटी थीं. कछ शुरु हो कर खत्म ही नहीं होती थीं, तो कुछ शुरु होते ही खत्म हो जाती थीं. रंग-रंग की कविताएँ. ढंग-ढंग की कविताएँ. उस वक्त उनके इन विभिन्न प्रकारों से मेरा इतना ही नाता हुआ करता था कि एक वाली परीक्षा में श्योर शॉट हुआ करती थी, तो दूसरी वाली का आप्शन ये रहता था कि खुद उनका भाव नहीं लिखना होता था, बल्कि ’डी कुमार’ के गेसपेपर जिन्दाबाद हुआ करते थे.
स्कूल तक वैसे मैं लिखने को लेख ही ज्यादा लिखा करता था. और अमूमन सभी लेखों का प्रारम्भ और अन्त लगभग एक जैसा ही होता था, बस बीच के कण्टेण्ट थोडे बदल जाते थे. लेकिन कविता !! मैं दम साधे कुछ देर तक सोचता रहा. फिर अपना कम्प्यूटर खोल लिया. हाँ भाई, अब जमाना जरा आगे बढ़ गया है. कलम से पन्ने रंगने के दिन गये. अब तो ctrl+c के साथ ctrl+v का जमाना है. ऊपर से कुछ इधर-उधर हो गया तो ctrl+z तो है ही घेलुआ में !
तो हमने भी शुरुआत कर डाली लिखने की. लिखते गये. कुछ भाव उमड़े. कुछ भाव घुमड़े. उन भावों के रंग बदलते रहे. उन भावों का प्रभाव लगातार बनता-बिगड़ता रहा. कुछ शब्दों को सच कहूँ तो हिन्दी शब्दकोष से भी टीपा. फ़िर सारी पंक्तियों से चिपके अनावश्यक से लगते ’हैं’, ’हूँ’, ’होता है’ या ’रहता है’ आदि को उड़ाया. मतलब कि डिलीट किया. फिर कुछ शब्दों या शब्द समूहों को एक जगह एक-दूसरे के ऊपर-नीचे याने लम्बवत लिखा. तो कहीं शब्दों का विस्तार क्षैतिज रखा. माने, ऐसा लगे जैसे शब्द फुदक-फुदक कर आगे बढ रहे हों. शब्दकोष के टीपे हुए शब्दों को कुछ अलग कर के रखा, अकेला. कविता के बीच-बीच में घुसेड़ने के लिये. ताकि पढने और समझने में पाठक को कुछ तो दम लगे ! और येल्लो ! हो गयी मेरी कविता तैयार !
अब आपसे क्या छिपाना, जानते ही हैं कि एक बार कविता बनी नहीं कि एकदम से कुलबुलाहट सी शुरु हो जाती है, कि किस पर उसकी वर्षा की जाय. आजकल सुनने-सुनाने का जमाना तो रहा नही. समय किसके पास है कहने और सुनने के लिये ? सभी तो नेट पर रहते हैं. पडोसी भी आपस में दरवाजा खटखटाने के बजाय मेल करना ज्यादा आसान समझते हैं. मैने भी इस नेट का फ़ायदा उठाया. उझका ही तो दिया मैंने अपनी उस नई-नवेली कविता को एक प्रसिद्ध हो चले सामाजिक अंतर्जाल यानि सोशल नेट्वर्क पर ! विगत कितने समय से मै दूसरों के पोस्ट को ’लाइक’ करता रहा हूँ. अब मैं दूसरों को इसका मौका दे रहा था. पोस्ट को जैसे ही उझकाया कि फिर क्या था, पसन्द करने वालों ने इतने अंगूठे ’अप’ किये कि मेरे दिमाग का इण्डिया भी ’अप’ हो गया. उधर प्रतिक्रियाएँ या टिप्पणियाँ या शुद्ध भाषा में कहिये तो कामेंट मानों बजरंगबली की पूंछ हो गये. बढते ही जा रहे थे. क्या बात ! क्या बात ! तो मैं इतना बडा कवि हूँ और ये मुझे ही पता नहीं था ! भाईलोगो ने भी ऐसे-ऐसे भाव व्यक्त किये थे कि मै भी आवाक् सा हो गया था. मेरे कुछ शुभचिन्तको ने मुझे ’आधुनिक कविता’ का ’उदयीमान सितारा’ घोषित कर दिया था. यानि, ’साला मैं तो साहब बन गया’ ! मैं आज अचानक ’आधुनिक कवि’ हो गया. बहुत-बहुत से मित्रों ने बहुत-बहुत सी तारीफ़ की थी. कुछ तो मेरी मित्र मण्डली में भी शामिल नहीं थे. मै तो बस अभिभूत था. भागा-भागा अपने लाला भाई के पास गया. कम से कम भौतिक रुपसे भी किसी की तारीफ़ चाहिये न !
लाला भाई मेरी कविता को पढ़ गये. फिर पढ गये. पढ़ते ही गये. मेरी हालत तो कुछ ऐसी थी जैसे कोई मरीज जांच कराने के बाद अपने डाक्टर का मुँह ताकता हो. मैं लाला भाई के मनोभावों को गौर से देखता रहा जो हमेशा की तरह मेरे उत्साह के विरुद्ध ही लग रहे थे. वो मेरे प्रति अपने मुँह से कुछ उगलते कि मैने उन्हे अपनी गेयर में लिया. अपनी कविता को जिस साइट पर मैंने डाली थी अपने लैपटॉप पर उसी साइट का पन्ना खोल दिया. वे एक-एक कर के कुछ देर तक सारे कामेण्ट्स को पढते रहे. फिर कहा, ’यार, यहाँ तो तुम अपना नाम भी लिख मारो तो एकाध दर्जन पसंद करने वाले मिल जायेंगे. इन फैक्ट, कोमेण्ट्स में जो कुछ लिखा हुआ है या लिखा जाता है, उसका वो मतलब होता नहीं. बल्कि सही मतलब कुछ और ही हुआ करता है.’
मैं तो चकरा गया और झट से पहली प्रतिक्रिया पढी. लिखा था, ’क्या बात है ! क्या लिखा है !!’ लाला भाई ने शांत भाव से मतलब समझाया, ’ये तारीफ़ के शब्द नहीं है, बाबू, ये सही में पूछा जा रहा है, कि भाई मेरे बात क्या है ? यानि, जो कुछ लिख दिया है आपने वो कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’ फिर कहा, ’भाई मेरे, एक-एक करके प्रतिक्रियाएँ पढते जाओ मैं सही और सटीक मतलब बताता जाता हूँ.’ मैं तो जैसे एकदम से धरातल पर औंधे मुँह की दशा में गिरा था ! तुरत ही दूसरी प्रतिक्रिया पढी, ’आपकी रचना अतुलनीय है !’ लाला भाई ने इत्मिनान से इसका भी शुद्ध भाषा में तर्जुमा किया, ’मतलब कि तुलना करने लायक ही नहीं है ये रचना. मतलब? मतलब, ये कि एकदम से बकवास है.’
’हाय !’ मेरा हृदय तो जैसे तरल हुआ जा रहा था. इसके बाद का कामेंट था, ’कविता का मर्म बहुत बढिया है.’ लाला भाई एकदम से कृष्ण की तरह निर्विकार बने मुझ अर्जुन को ज्ञान देने की मुद्रा में थे, ’यानि, मतलब है, लिक्खाड़ ने सोचा तो बहुत कुछ है लेकिन उसने सारा कचरा-गोबर उगल भरा है. कायदे से कुछ नहीं कह पाया है.’ मुझे तो मारे घबराहट के पसीने आने लगे. मैंने उन ढेरों कोमेण्ट्स में से जो एक जबरदस्त कामेण्ट था, उसे पढ़ना जरूरी समझा, ’नये रचनाकारों को आधुनिक कविता लिखने के बारे में इनसे उदाहरण लेना चाहिये.’ ’हाय-हाय-हाय !’ लाला भाई गोया इस कोमेंट की अदायगी पर ही झूम गये. कहने लगे, ’भाई मेरे, इसका तो मतलब साफ़-साफ़ सा बनता है. कह रहा है कि कुछ भी करना, मगर ऐसा तो कत्तई मत लिखना. यानि औरों के लिये ये उदाहरण ही है कि कैसा नहीं लिखना चाहिये !’ अब तक मैं पूरी तरह से हिल चुका था. एक कामेण्ट था जिसमें लिखा तो कुछ नहीं था, अलबत्ता एक सेमीकोलोन के दाहिने ढेर सारी छोटी कोष्ठकें बनी थी. अमूमन नेट की दुनिया में इसे ठठा कर हँसना माना जाता है. लाला भाई के होठों पर विशुद्ध संज्ञान का वक्र खिल गया, ’इसका मतलब ये है बच्चे’ उन्होंने समझाया, ’कि, गाली देने तक को शब्द नहीं मिल रहे हैं, बस इतना समझ लीजो !’ मेरी हालत हवा निकले गुब्बारे की हो गयी थी...... फ़ुस्स्स !
अपने आप को संयमित करते हुए और खुद को करीब-करीब सहेजते हुए बेसब्री में मै लाला भाई पर चढ़ बैठा, ’आप महाराज, एक सिरे से गलत-शलत, अंट-शंट झोंके जा रहे हैं. अव्वल तो आप जलते हैं मेरी इस नई-नई प्रसिद्धि से. समझे आप ?’ लाला भाई ने मुझे समझाने का प्रयास किया, ’देखिये.. देखिये, मेरी बात को सच मानिये...’ लेकिन मैं क्यों सुनने लगा लाला भाई की ? एक तरह से ’न-लिखे-छपे हुए’ की ?
मैं कल का अदना सा आम आदमी आज कई संभावनाओं से युक्त अचानक ही खास की तरह स्वीकृत हो रहा था. मैं, यानि, एक आधुनिक कवि ! जिसकी वाह-वाही में कशीदे पढ़े गये थे ! सर पर भले ताज़ नहीं, पर एक कवि होने का गुरूर तो बैठ ही चुका था. मैं प्रबुद्ध जो हो गया था ! क्यों सुनूँ फिर लाला भाई जैसे घिस्सुओं की ? अब मुझे कविता के रुप, रंग, ढंग, उसके शिल्प, उसकी मात्रा आदि-इत्यादी से भी क्या लेना-देना था ? मुझे अपने बेशकीमती कोमेण्ट्स से नवाज़ने वाले निर्बुद्धि हैं क्या ? वो तो पुरातनपंथी होते हैं जो तमाम नियम-विधा-शिल्प आदि की बेवकूफ़ियों में उलझे रहते हैं. उनमें उलझ कर अपना समय बर्बाद करते हैं. हम तो भाई नेट वाले हैं. अत्याधुनिक हैं. नया समझने वाले हर कुछ नया ही करेंगे न? हम तो वास्तव के कवि है. आज लोग हमारी रचना को पसन्द कर रहे हैं तो ये हमारा दोष है क्या ? लाला भाई अपना सिर पीटें तो पीटते रहें, हमें इससे क्या ? तुम्हें न पसन्द आये तो तुम्हारी बला से, तुम.. कलमघिस्सुओ, पुरातनपंथियो !!
उधर लाला भाई भी अपनी खोपडी खुजलाते यही सोच रहे थे कि ये नेट भी कमाल की चीज़ है. क्या से क्या को क्या से क्या बना देती है ! यानि ? यानि, जो मुँह में आया बक दिया, जो मन में आया लिख दिया, जैसे, जो पेट में आया **** दिया.
-- शुभ्रांशु
Comment
आदरणीय प्रदीप जी, जवाहरजी, सीमा जी, सौरभ जी आप लोगों की प्रतिक्रियाओं ने मेरे इस व्यंग को एक मान दिया है,,,,बस बैठे ठाले भाव-प्रभाव में लिखे गये लेख को आप लोगों ने जो अपनापन दिया है उसका में शुक्रगुजार हूँ. अभी तो मैने सरकना ही सीखा है. लडखडाने पर सम्भालने के लिये आप लोगों के हाथ आगे हैं ही... सादर धन्यवाद.
वाह वाह ब्रिगेड तो सभी जगह हैं. नेट पे तो दिखता भी है. और उसे ही अपनी समझ के अनुरुप कलमबन्द किया है....पसंद आया इसके लिये एक बार फ़िर से आप सभी का धन्यवाद..
भाई शुभ्रांशु के प्रस्तुत व्यंग्य ’और मैं कवि बन गया’ के प्लॉट और उसके प्रवहमान विस्तार पर चकित हूँ.
अतिरेक नहीं, इस बेबाक व्यंग्य के माध्यम से सोशलसाइटों की अनुशासनहीन साहित्यिक-पोषण प्रक्रिया के कारण बरसाती कुकुरमुत्तों की तरह उग आये कई-कई नामधन्य, भाव-शब्दों से रिक्त किन्तु ’उच्च-भाव’ संतृप्त, आत्ममुग्ध तथाकथित साहित्यानुरागियों की वास्तविकता को साझा कर संवेदनशील पाठकों पर जो उपकार हुआ है, उसका सानी वर्तमान में संभवतः कहीं नहीं दीखता. कई-कई अंतर्जालीय मंचों पर, यह अवश्य है, कि गंभीर प्रयास हो रहे हैं ताकि ’वाह-वाह’ प्रेमी प्रविष्टिकारों को साहित्य का वास्तविक अर्थ और मूल हेतु बताया जाय, लेकिन, यह भी सबको विदित है, ऐसा कोई गंभीर प्रयास नक्कारखाने में तूती की मद्धिम आवाज़ बन कर रह जा रहा है.
शुभ्रांशुजी की प्रस्तुत व्यंग्य-प्रविष्टि इन अर्थों में स्तुत्य है कि आज के अंतर्जालीय साहित्यकारों के कई-कई वैशेषिक विन्दुओं को सापेक्ष करती चलती है, जहाँ तथाकथित ’कवि’ के अचानक ’इंडक्ट’ हो जाने से लेकर स्वयं को विधा-शिल्प से परे ही नहीं बल्कि ऊपर मान कर स्वयं के अभिभूत होने तक की दशा की गहरी विवेचना करती चलती है.
मुझे भी भान है कि प्रस्तुत व्यंग्य-प्रविष्टि दोनों हाथों कई-कई लापरवाह भाव जीवियों (आदरणीय योगराजभाईसाहब इस जमात को ’वाह-वाह ब्रिगेड’ का नाम देते हैं !) की बद्दुआ बटोर रही होगी, लेकिन हम समवेत ’चश्मेबद्दूर’ का जयघोष कर सुसाहित्य की जीवंतता को सबल करें.
इस विशिष्ट और उच्च कोटि की व्यंग्य-प्रस्तुति के लिये शुभ्रांशु जी को हार्दिक शुभकामनाएँ और शुभ-स्नेहाशीष.
कहना न होगा, आपसे उम्मीदें बहुत बढ़ गयी हैं.
adarniya pande ji, sadar abhivadan.
aapne to meri hi sthiti bayan kar di, par main sharma nahi raha hoon, intarnet baaba ke gun ga raha hoon, main hoon mahan kavi aur lekhak khyali ghode dauda raha hoon, baje taali ya na baje, bich sabha main apne gaal baja raha hoon. vastav main jo kavita kise ke samjh main na aati ho aart film ki tarah hit ho jaati hai . milte hain puruskaar unko , asli hakdaar kinare khade rah jaate hain, deta hoon badhai aapko swikar kar lijyega . aapka ek hasya tha, toota kitno ka vishvas tha. aapko to mil gaye they lala bhai, main ab bhag raha hoon aa rahe hai mere bade bhai.
धन्यवाद आप सभी को.....अरुण जी और दीपक जी और रविन्द्र जी की हौसला आफ़जाई के लिये शुक्रिया. राजेश कुमारी जी ने तो ....हा...हा.....हा....आधुनिक भी बना डाला..अश्विनी भाई लगी तो जोर की ही थी फ़िर भी महाउत्सव के समाप्त होने का इन्तजार किया....प्रतिक्रिया देने के लिये धन्यवाद....
बढ़िया व्यंग है , बधाई ....
भाई शुभ्रांशु जी ,,मानना पड़ेगा की बहुत ज़ोर की लगी थी ठीक ही है लेकिन कभी कभी बेवक्त भी लग जाया करती है ,,तूँ मेरे खुजा मै तेरी खुजाऊँ अपना रंग जमाना है ,इस रंगमंच का फंडा है ये बेधड़क इसे आजमाना है ,,:):):):):):):):):):):):).....
अच्छा और सटीक व्यंग .....
शुभ्रांशु जी कमाल है आपने कुछ कडवी सच्चाई को मीठी /व्यंगात्मक शैली में पांग कर इतनी अच्छी रोचक हास्य रचना लिख डाली सचमुच आप महान आधुनिक लेखक हैं|badhaai
एकदम सही व्यंग है . जिस तरह आज सोशल साईट्स पर लाईक और कमेन्ट किये जाते हैं , उनका अर्थ लालाजी के सामान ही निकालना चाहिए . बढ़िया है . बधाई .
GOOD VERY GOOD
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