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रिश्ते यहाँ लहू के सिमटने लगे हैं अब

रिश्ते यहाँ लहू के सिमटने लगे हैं अब

माँ बाप भाई भाई में बँटने लगे हैं अब

 

लो आज चल दिया है वो बाज़ार की तरफ  

सब्जी के दाम लगता है घटने लगे हैं अब

 

वो प्यार से गुलाब हमें बोल क्या गए

यादों के खार तन से लिपटने लगे हैं अब

 

बदले हुए निजाम की तारीफ क्या करें  

याँ शेर पे सियार झपटने लगे हैं अब

 

नेताओं की सुहबत का असर उनपे देखिये

देकर जबान वो भी पलटने लगे हैं अब

 

मशरूफ “दीप” सब हैं क्या मिलना नसीब हो  

मसले भी फोन पर ही सलटने लगे हैं अब

 

संदीप पटेल “दीप”

मौलिक एवं अप्रकाशित

 

 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 7, 2013 at 9:03pm

//अब से याद रखूँगा स्नेह और आशीष बनाये रखिये //

भाईजी, इस मंच की कार्यकारिणी के अहम मेम्बर हैं आप. फिर तो जो कुछ मैंने आपसे निवेदित किया है, उसकी अपेक्षा आपसे थी उन सदस्यों के प्रति जो भूलवश ऐसा कुछ लिखना या मेन्शन करना छोड़ देते.

जय हो.. . :-))))))))))

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on December 7, 2013 at 8:25pm

आदरणीय श्यामनारायण जी, आदरणीय गिरिराज सर जी, आदरणीय शिज्जू जी, आदरणीय गोपाल सर जी, आदरणीय जीतेन्द्र जी, आदरणीय नादिर खान जी, आदरणीय सौरभ सर जी, आदरणीय डॉ प्राची जी, आदरणीय रमेश जी, आप सभी का ह्रदय से धन्यवाद, स्नेह और मार्गदर्शन यूँ ही बनाये रखिये ..........आदरणीय सौरभ सर जी सादर प्रणाम ,,,,,,अब से याद रखूँगा स्नेह और आशीष बनाये रखिये

Comment by रमेश कुमार चौहान on November 27, 2013 at 7:07pm
संदीपजी वाह क्या कहने -

रिश्ते यहाँ लहू के सिमटने लगे हैं अब

माँ बाप भाई भाई में बँटने लगे हैं अब

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 27, 2013 at 4:59pm

लो आज चल दिया है वो बाज़ार की तरफ  

सब्जी के दाम लगता है घटने लगे हैं अब..............बहुत खूब :))

सुन्दर अशआर हुए हैं 

हार्दिक बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल पर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 27, 2013 at 3:59pm

मज़ा आ गया. संदीप भाईजी.

वो प्यार से गुलाब हमें बोल क्या गए

यादों के खार तन से लिपटने लगे हैं अब...... यह शेर तो बस वाह वाह वाह ! ..

लो आज चल दिया है वो बाज़ार की तरफ  

सब्जी के दाम लगता है घटने लगे हैं अब......  :-)))))))))

जय हो....

भाई, ग़ज़ल के मिसरे का वज़्न तो दिया करें. .. उदाहरणार्थ, २२१ २१२१ १२२१ २१२ ..

Comment by नादिर ख़ान on November 26, 2013 at 10:49pm

बेहतरीन ....

लाजवाब......

बहुत खूब ......

Comment by विजय मिश्र on November 26, 2013 at 5:35pm
वाह ! बहुत खूब ! ताने-बाने की खूबसूरती साफ झलकती है |हर एक शे'र सबासेर है |
ढेर सारी बधाईयाँ लें संदीपजी |
Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 26, 2013 at 2:27pm

संदीप जी 

लो आज चल दिया है वो बाज़ार की तरफ  

सब्जी के दाम लगता है घटने लगे हैं अब..........तसल्ली की बात ...बहुत बढिया 

 

वो प्यार से गुलाब हमें बोल क्या गए

यादों के खार तन से लिपटने लगे हैं अब......................बेहतरीन ..दिल को छू गया 

 

बदले हुए निजाम की तारीफ क्या करें  

याँ शेर पे सियार झपटने लगे हैं अब........................शानदार शब्दों से वर्तमान पर्द्रिश्य का शानदार खाका ...ढेरो बधाई 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 26, 2013 at 7:47am

बदले हुए निजाम की तारीफ क्या करें  

याँ शेर पे सियार झपटने लगे हैं अब.......यह शेर बहुत पसंद आया

बेहतरीन गजल पर हार्दिक बधाई आदरणीय संदीप जी

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 25, 2013 at 9:59pm

//लो आज चल दिया है वो बाज़ार की तरफ  

सब्जी के दाम लगता है घटने लगे हैं अब

 

//मस्रूफ़ “दीप” सब हैं क्या मिलना नसीब हो  

मसले भी फोन पर ही सलटने लगे हैं अब//  आपके इन अशआर पर जनाब बद्र साहब का ये शेर याद आ रहा है

 

"कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ

वो ग़ज़ल का लहजा नया नया न कहा हुआ न सुना हुआ"

आदरणीय संदीप जी आपका ये लहजा कुछ हट के लगा दाद कुबूल करें

कृपया ध्यान दे...

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