कुवत्स ने पिता को देखा जिनके दोनों नाक में आक्सीजन की नली लगी थी I अगर स्वस्थ होते तो आज ही के दिन उन्हें रिटायर होना था I उसे डाक्टर के शब्द याद आये –‘कुछ बचा नहीं, ज्यादा से ज्यादा दो दिन, बस I’ बेटे ने सोचा अगर आज कैजुअलिटी न हुयी तो मुफ्त की नौकरी तो जायेगी ही, बीमा अदि का पूरा पैसा भी नहीं मिलेगा ---- I
उसने चोर-दृष्टि से इधर –उधर देखा I आस-पास कोई न था I अचानक आगे बढ़कर उसने एक नाक से नली हटा दी I फिर वह दबे पांव कमरे से बाहर निकल गया और कारीडोर में रिश्तेदारों के बीच बैठी अपनी माँ के पास जाकर उनकी पीठ पर सर रख रोने लगा I माँ ने कहा –‘मत रो बेटा ! तू ही तो हमारा सहारा है I ’
[मौलिक व् अप्रकाशित ]
Comment
उफ्फ्फ ...............ऐसा भी हो सकता है ???? सोचा भी नही जा रहा है ...................
आदरणीय गोपाल भाई जी,
लगाया पौधा गुलाब का , पर खिला धतूरा फूल ।
फुर्सत से स्वर्ग में सोच रहा, कहाँ हो गई भूल ॥
वैसे जमाना धूर्त लोगों का ही है, वर्तमान सामाजिक , राजनैतिक व्यवस्था में कोई शरीफ ज्यादा दिन जी नहीं पाएगा । जो किया वह परिवार के भविष्य को ध्यान में रखकर ही किया। इस कलियुग में ऐसे लोग भी स्वर्ग के अधिकारी हैं।
हार्दिक बधाई गोपाल भाई
उफ्फ्फ पढना भी गवारा नहीं हो रहा है सोचना तो दूर ,ऐसे कुपूत भी हो सकते हैं दुनिया में ??किन्तु उत्तर खुद ही मिल जाता है हाँ आज के दौर में सब कुछ हो रहा है रोज अखबार में एसा पढने को मिल जाएगा|बहुत उम्दा सार्थक लघुकथा जो सीधे दिल पर वार करती है |बहुत- बहुत बधाई आपको आ० गोपाल जी
आ0 गोपाल भाई जी, प्रणाम! .......उच्च शिक्षा के बावजूद बेरोजगारी की समस्या और उस पर समाज के एफ0डी0आई0 तेवर.....मरता क्या न करता। यह समाज का आईना ही है।....आखिर एक मां का सहारा बेटा ही तो होता है। बहुत-बहुत बधाई। सादर,
आदरणीय गोपाल नारायण् जी,
सुन्दर कथा.
सादर.
उफ़ उफ़ उफ़ ... ऐसा बेटा!
क्या अंतरात्मा होती ही नहीं...
कैसा छद्म रूप.... एक ओर ऑक्सीजन की नाली इकालना तो दूसरे ही क्षण माँ के कंधे पर सर रख रोने का ढोंग
क्या सहारा होगा ऐसा कपूत....
आज के सामज में बुनियादी रिश्तों की विद्रूपता को चीत्कारते हुए प्रस्तुत करती है यह लघुकथा.
बहुत सशक्त प्रस्तुति.
हार्दिक शुभकामनाएं
बहुत संवेदनशील विषय , सच में आजकल ऐसे पुत्र दिख ही जाते हैं , बधाई इस लघुकथा के लिए..
कुपुत्रों जाए ----माता कुमाता न भवति | फिर भी तो आशर्वाद ही देती है माँ | नौकरी का स्वार्थ ऐसा था कि पिताजी की पुत्र ने
एक तो दिन पहले ही "ह्त्या" करदी | मार्मिक लघु रचना सुन्दर और सार्थक बन पड़ी है | हार्दिक बधाई डॉ गोपाल नारायण जी
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