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कुवत्स ने पिता को देखा जिनके दोनों नाक में आक्सीजन  की नली लगी थी I अगर स्वस्थ होते तो आज ही के दिन उन्हें रिटायर होना था I उसे डाक्टर के शब्द याद आये –‘कुछ बचा नहीं, ज्यादा से ज्यादा दो दिन, बस I’ बेटे ने सोचा अगर आज कैजुअलिटी न हुयी तो मुफ्त की नौकरी तो जायेगी ही, बीमा अदि का पूरा पैसा भी नहीं मिलेगा ---- I

उसने चोर-दृष्टि से इधर –उधर देखा I आस-पास कोई न था I अचानक आगे बढ़कर उसने एक नाक से नली हटा दी I फिर वह दबे पांव कमरे से बाहर निकल गया और कारीडोर में रिश्तेदारों के बीच बैठी अपनी माँ के पास जाकर उनकी पीठ पर सर रख रोने लगा I माँ ने कहा –‘मत रो बेटा ! तू  ही तो हमारा सहारा है I ’

 

[मौलिक व् अप्रकाशित ]                  

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Comment by Meena Pathak on August 2, 2014 at 3:41pm

उफ्फ्फ ...............ऐसा भी हो सकता है ????  सोचा भी नही जा रहा है ...................

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on August 2, 2014 at 2:07pm

आदरणीय गोपाल भाई जी,

लगाया पौधा गुलाब का , पर खिला धतूरा फूल । 

फुर्सत से स्वर्ग में सोच रहा, कहाँ हो गई भूल ॥

वैसे जमाना  धूर्त  लोगों  का  ही है,  वर्तमान सामाजिक , राजनैतिक व्यवस्था में कोई शरीफ ज्यादा दिन जी नहीं पाएगा । जो  किया वह परिवार के भविष्य को ध्यान  में रखकर  ही किया।  इस कलियुग में ऐसे लोग भी स्वर्ग के अधिकारी हैं। 

हार्दिक बधाई गोपाल भाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 1, 2014 at 9:25pm

उफ्फ्फ पढना भी गवारा नहीं हो रहा है सोचना तो दूर ,ऐसे कुपूत भी हो सकते हैं दुनिया में ??किन्तु उत्तर खुद ही मिल जाता है हाँ आज के दौर में सब कुछ हो रहा है रोज अखबार में एसा पढने को मिल जाएगा|बहुत उम्दा सार्थक लघुकथा जो सीधे दिल पर वार करती है |बहुत- बहुत बधाई आपको आ० गोपाल जी  

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 1, 2014 at 9:04pm

आ0 गोपाल भाई जी,   प्रणाम! .......उच्च शिक्षा के बावजूद बेरोजगारी की समस्या और उस पर समाज के एफ0डी0आई0 तेवर.....मरता क्या न करता।  यह समाज का आईना ही है।....आखिर एक मां का सहारा बेटा ही तो होता है। बहुत-बहुत बधाई। सादर,

Comment by Shubhranshu Pandey on August 1, 2014 at 6:24pm

आदरणीय गोपाल नारायण् जी, 

सुन्दर कथा.

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 1, 2014 at 3:22pm

उफ़ उफ़ उफ़ ... ऐसा बेटा! 

क्या अंतरात्मा होती ही नहीं... 

कैसा छद्म रूप.... एक ओर ऑक्सीजन की नाली इकालना तो दूसरे ही क्षण माँ के कंधे पर सर रख रोने का ढोंग 

क्या सहारा होगा ऐसा कपूत....

आज के सामज में बुनियादी रिश्तों की विद्रूपता को चीत्कारते हुए प्रस्तुत करती है यह लघुकथा.

बहुत सशक्त प्रस्तुति.

हार्दिक शुभकामनाएं 

Comment by seemahari sharma on August 1, 2014 at 2:48pm
बहुत भावुक कहानी ऐसा भी होता होगा
Comment by विनय कुमार on August 1, 2014 at 1:27pm

बहुत संवेदनशील विषय , सच में आजकल ऐसे पुत्र दिख ही जाते हैं , बधाई इस लघुकथा के लिए..

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 1, 2014 at 12:53pm
दुखद: वृत्तांत, शायद बहुत ही दुखद . कहानी के लिए बधाई .
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 1, 2014 at 12:15pm

कुपुत्रों जाए ----माता कुमाता न भवति | फिर भी तो आशर्वाद ही देती है माँ | नौकरी का स्वार्थ ऐसा था कि पिताजी की पुत्र ने 

एक तो दिन पहले ही "ह्त्या" करदी | मार्मिक लघु रचना सुन्दर और सार्थक बन पड़ी है | हार्दिक बधाई डॉ गोपाल नारायण जी 

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